बिगड़ता पर्यावरण : जंगल ही बनेंगे तारणहार

Last Updated 11 Mar 2019 12:42:19 AM IST

हाल के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद आदिवासी हितों की रक्षा से जुड़े लोग बहुत चिंतित हुए कि जिन आदिवासी व वनवासी समुदायों के वन अधिकार के दावे अस्वीकृत हुए हैं उन्हें विस्थापित करने की कार्यवाही शीघ्र ही हो सकती है।


बिगड़ता पर्यावरण : जंगल ही बनेंगे तारणहार

यह बहुत चिंता की बात है क्योंकि वन अधिकार कानून तो आदिवासियों की रक्षा के लिए आया था। अत: यदि उन्हें इस कानून के नाम पर अपनी जमीन छोड़नी पड़ी, जिस पर वह पहले खेती कर रहे थे तो यह उनके लिए बहुत बड़ा आघात होगा। अत: सुप्रीम कोर्ट से इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कहा गया है व पुनर्विचार हो भी रहा है।
ऐसे किसी संभावित विस्थापन कार्यवाही को रोकने का एक उपाय यह है कि इस जमीन पर खेती की जगह वृक्ष-खेती हो। न्यायालय की चिंता तो यही है कि इस भूमि पर वन बने रहें। आदिवासियों के पूरे सहयोग से वन लगाकर और उन्हें वन अधिकार देकर यह उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। इस तरह आदिवासी व वनवासी समुदाय के सहयोग से स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगाने का एक मॉडल भी विकसित हो सकता है। बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए हरियाली और वृक्षों को बढ़ाना बहुत जरूरी है। आदिवासियों-वनवासियों की आजीविका का संकट बढ़ रहा है और इस कारण उत्पन्न अभाव और असंतोष को दूर करना भी बहुत जरूरी है। इन दोनों उच्च प्राथमिकताओं को एक साथ पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर वृक्ष खेती व उजड़ते वनों को नया जीवन देने का व्यापक स्तर का कार्यक्रम शुरू करना चाहिए। यह कार्यक्रम वन-विभाग व आदिवासियों-वनवासियों के नजदीकी सहयोग पर आधारित होगा व वन-विभाग को जनपक्षीय बनाने के एक नये अध्याय की शुरुआत कर सकता है।

वन-विभाग के पास ऐसी लाखों एकड़ जमीन है, जिसमें वन नाम मात्र को है या पहले था पर अब बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। बहुत सी ऐसी जमीन है जो पूरी तरह खाली पड़ी है। यह वन-विभाग की जमीन कागजों पर जरूर दिखाई गई है पर इसमें वन नाम की कोई चीज नहीं है। इसके अतिरिक्त वह जमीन है, जिसे वन-विभाग अपनी बताता जरूर है पर जिस पर वर्षो से आदिवासी-वनवासी खेती कर रहे हैं। इस लाखों एकड़ भूमि पर पेड़-पौधे लगाने के लिए व जहां पहले से क्षतिग्रस्त पेड़-पौधे मौजूद हैं, उन्हें नया जीवन देने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर आदिवासियों (व वनों में या उनके आसपास रहने वाले अन्य गांववासियों) का नजदीकी सहयोग बड़े पैमाने पर प्राप्त करना चाहिए। विशेषकर सबसे गरीब व भूमिहीन लोगों का सहयोग प्राप्त करने को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस सहयोग का मूल आधार यह है कि आदिवासी-वनवासी इस भूमि पर वृक्ष व औषधि पौधे लगाएंगे व उनकी रक्षा करेंगे। इसके बदले में जो भी लघु वन-उपज, औषधि व घास यहां से प्राप्त होगी, उस पर आदिवासियों-वनवासियों का हक होगा। जो लोग पहले से विवादित वन-विभाग की भूमि पर खेती कर रहे हैं उन्हें उसी भूमि पर बने रहने व उसपर वृक्ष खेती करने का अधिकार मिलेगा। जो खाली या क्षतिग्रस्त वन भूमि है, उसमें हरियाली लाने के लिए आदिवासियों व वनों के अन्य गांववासियों का आवश्यकता व रुझान के आधार पर चयन होना चाहिए।  लगभग 200 से 300 एकड़ के वन-क्षेत्र के लिए ऐसे परिवारों का चयन कर उनकी एक वन उत्थान व रक्षा समिति बना देनी चाहिए। इन स्थानों पर वृक्ष लगाने या उनकी रक्षा के लिए कई तरह के कार्य की जरूरत होगी; जैसे चुने गए वन क्षेत्र के आसपास पत्थर की घेरवाड़ करना, गड्ढे खोदना, वन में जल संग्रहण व वाटर हाव्रेस्टिंग के प्रयास करना, नर्सरी तैयार करना आदि।
इन विविध कार्यों के लिए रोजगार गांरटी योजना या अन्य ग्रामीण रोजगार योजनाओं व विभिन्न वानिकी योजनाओं के अंतर्गत चयनित गांववासियों विशेषकर महिलाओं को न्यायसंगत मजदूरी पर रोजगार मिलते रहना चाहिए। घास बेचने से जो आय होगी वह भी इन परिवारों में ही बंटेगी। इसके अतिरिक्त कई औषधि पौधों व अन्य झाड़ीनुमा पौधों से भी आय मिलने लगेगी। जब वृक्ष बड़े हो जाएंगे तो उनके फल, फूल, पत्ती, बीज आदि कई तरह की लघु वन उपज आय का मुख्य स्रोत बन जाएगी। इस स्कीम की सफलता के लिए जरूरी है कि इससे जुड़े सभी परिवारों को लघु वन उपज, औषधि उपज व घास का अधिकार निश्चित तौर पर दीर्घकाल के लिए मिलना चाहिए। जब तक कोई परिवार वनों की रक्षा ठीक से कर रहा है, तब तक उसे हकदारी से वंचित नहीं किया जाएगा। माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी संतान को यह हक विरासत के रूप में मिलेगा। इस तरह की दीर्घकालीन हकदारी से लोगों का वन-रक्षा से पूरा जुड़ाव हो सकेगा।

भारत डोगरा


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