आकलन : पंचैती शायद ही कोई पक्ष मानेगा
भारत के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने बाबरी मस्जिद स्थल के स्वामित्व संबंधी संवेदनशील मामले में पहला महत्त्वपूर्ण फैसला दिया है।
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अदालत ने यह मामला तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति के पास भेज दिया है। समिति के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस एफएमआई कलीफुल्ला हैं। आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक एवं विवादास्पद आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर और मद्रास हाई कोर्ट के सीनियर एडवोकेट श्रीराम पांचू समिति के अन्य सदस्य होंगे। दिलचस्प यह कि तीनों तमिलनाडु से हैं, और तमिलभाषी हैं। फैजाबाद, जो हिंदी पट्टी में स्थित है और जिसे आसानी से चुनावी वेला में ध्रुवीकृत किया जा सकता है, अब मध्यस्थता का केंद्र होगा। लेकिन इसकी कार्यवाहियों को गुप्त रखा जाएगा। प्रधान न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशवृंद चाहते हैं कि इस ऐतिहासिक विवाद के सर्वस्वीकार्य एवं समावेशी समाधान के लिए एक और ईमानदार प्रयास किया जाए। इसलिए अपने आदेश में, उन्होंने कहा है कि ‘संबद्ध पक्षों में सर्वसम्मति नहीं बन पाने के चलते हम चाहते हैं कि मध्यस्थता द्वारा विवाद को सुलझाने का प्रयास हो’।
हमारी विधिक प्रणाली में संवैधानिक अदालत को काउंटर-मेजोरिटेरियन भूमिका का निर्वहन करना होता है। वह कर्त्तव्यनिष्ठ होती है कि प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण करे। इसलिए लोगों की भावनाएं इस लिहाज से बेमानी रह जाती हैं, या हो जाती हैं। न्यायिक फैसले के विपरीत मध्यस्थता विरोधात्मक प्रक्रिया नहीं होती। जहां न्यायिक फैसले से एक पक्ष जीतता है, और दूसरा हारता है। वहीं मध्यस्थता के उपरांत जरूरी है कि दोनों पक्ष समझौता हो जाने पर पूर्णत: संतुष्ट हों। मध्यस्थता कभी भी इसलिए नहीं होनी चाहिए कि एक पक्ष ने अदालती फैसला मानने से इनकार कर दिया है। यहां तक कि उदारमना अटलबिहारी वाजपेयी तक ने 1992 में मस्जिद विध्वंस से दो वर्ष पहले कहा था कि ‘कोई भी अदालत इस मुद्दे पर स्पष्ट फैसला नहीं दे सकती और यदि फैसला आता भी है तो कोई सरकार इसे क्रियान्वित नहीं करवा सकती’। बेशक, यह कानूनी मामला संपत्ति विवाद से ज्यादा कुछ नहीं है, और शीर्ष अदालत ने सही कहा है कि इस मामले से लाखों लाख भारतीयों की भावनाएं जुड़ी हैं। भगवान राम का जन्म स्थल होने से यह हिंदुओं के ‘विश्वास’ का सवाल है, तो मुसलमानों के लिए संविधान और देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा दिए जाने वाले निष्पक्ष न्यायिक फैसले में उनके ‘विश्वास’ का प्रमुख मुद्दा है। जिन लोगों ने न केवल एक मस्जिद बल्कि शरकी स्थापत्य के एकमात्र स्थल को ध्वस्त किया उन्हें 27 वर्षो बाद भी दंडित नहीं किया जा सका है। शीर्ष अदालत ने उस हालिया अध्यादेश, जिसमें विवादित भूमि को संबद्ध पक्षों में से एक पक्ष को दिए जाने की बात कही गई है, तक पर स्थगनादेश नहीं दिया। हालांकि यह अध्यादेश उसके अपने आदेशों का ही उल्लंघन करता है।
मध्यस्थता आदेश को लेकर छह प्रमुख चिंताएं हैं: पहली, मध्यस्थता अदालत द्वारा उन पक्षों पर थोप दी गई है, जिन्होंने तर्क रखे जाने के समय इसका विरोध किया था, और अब आदेश पारित होने के बाद भी वे वही बातें कह रहे हैं। दूसरी, मध्यस्थों खासकर श्रीश्री रविशंकर को चुना जाना जिन्होंने मुस्लिमों से ‘सदिच्छा’ दिखाते हुए अपने दावे को छोड़ने की बात बाकायदा कही थी। यहां तक कि इस मामले में शीर्ष अदालत द्वारा कोई फैसला दिए जाने संबंधी उसकी क्षमता पर भी सवाल उठाया था। सच तो यह है कि उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि शीर्ष अदालत इस मामले में फैसला देती है तो हारने वाले पक्ष के लिए उग्रता अपनाए जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। चूंकि अदालत ने इस विवाद को धार्मिक मामला कहना बेहतर समझा है, इसलिए हमारी राजनीति को भी संभवत: यह प्रभावित करेगा। अच्छा तो यह रहता कि किसी धार्मिक व्यक्ति को मध्यस्थता-प्रक्रिया से दूर ही रखा जाता। इसी तरह, मध्यस्थता पैनल का अध्यक्ष कोई मुस्लिम नहीं होना चाहिए था। बेहतर होता कि कोई निरीरवादी, तटस्थ या किसी तीसरे धर्म का अनुयायी मध्यस्थता-प्रक्रिया की अध्यक्षता करता। तीसरी, अदालत के यह कहने से कि मामले को मध्यस्थता के लिए भेजे जाने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है, यह मामला खुल गया है। मध्यस्थता का विरोध करने वाले पक्ष का तर्क था कि एफकोन्स इंफ्रास्ट्रक्चर लि. (2010) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मध्यस्थता सार्वजनिक हित के प्रतिनिधिक वाद या अदातल में पेश न हुए ज्यादा लोगों से जुड़े हित के मामले में नहीं कराई जा सकती। चौथी चिंता है, सुप्रीम कोर्ट ने एफकोन्स इंफ्रास्ट्रक्चर फैसले में कहा था कि देवताओं, अवयस्कों और मानसिक रुग्णों के मामले मध्यस्थता के लिए नहीं भेजे जा सकते। पांचवीं चिंता है, कुछ पक्षों ने समझौता की बात को सीधे ही नकार दिया है। अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने अपने लिखित तर्क में काफी कुछ कहा है, ‘..लाखों वर्षो से मामले से जुड़ी भूमि लाखों लाख हिंदुओं का पूजा स्थल रही है..देवता के स्थान की रक्षा के लिए यह हिंदुओं के लिए मरने-मारने का प्रश्न है’। उसने यह भी कहा है कि ‘हिंदुओं का भगवान राम के जन्म स्थान से धार्मिक विश्वास, गहरी धार्मिक भावनाएं जुड़ी हैं, और इस पर कोई समझौता करने को वे तैयार नहीं हैं’। छठी चिंता है, मध्यस्थता प्रक्रिया के लिए दिया गया समय बेहद कम है। अदालत ने मध्यस्थों से कहा है कि एक हफ्ते में अपना काम शुरू कर दें और चार हफ्तों में कार्य प्रगति की जानकारी दें और इस कार्य को पूरी तरह से आठ सप्ताहों में पूरा करें। हालांकि सामान्यत: जरूरी नहीं है कि अदालत में पेश दस्तावेज मध्यस्थता पैनल के पास भेजे ही जाएं। लेकिन इतने बेहद महत्त्वपूर्ण मामले में मध्यस्थों से दस्तावेज के भंडार को जांचे-परखे बिना अपना कार्य जल्द शुरू करने की अपेक्षा जरूरत से ज्यादा उम्मीद जैसी बात है। हो सकता है कि कोई किसी एक पक्ष से अपना दावा छोड़ने की बात कहे लेकिन मध्यस्थ ऐसा नहीं कर सकते। कोई सुझाव देने से पहले उन्हें यह तो सुनिश्चित कर लेना ही होगा कि उनके सुझाव से संपत्ति के काननून वास्तविक स्वामी के साथ अन्याय न हो जाए। बेहतर होगा कि मध्यस्थ पहले दस्तावेजी प्रमाणों के आधार पर तय करें कि उस जगह का वास्तविक स्वामी कौन है, जहां कभी बाबरी मस्जिद थी, और उसी के बाद उन्हें इस पक्ष को अपना दावा छोड़ने के लिए समझाइश देनी चाहिए।
आम तौर पर मध्यस्थों के पहले बयान और विवाद से जुड़े पक्षों के बयान दर्ज होते ही मध्यस्थता की कार्यवाही आरंभ हो जाती है। मध्यस्थता एक असामान्य प्रक्रिया है, और इसमें प्रमाण के नियम उपयोग नहीं किए जाते। समझौते का मसौदा तैयार होता है। इस मामले में समझौता सुप्रीम कोर्ट के आने वाले आदेश में दर्ज किया जाएगा। चमत्कार होते हैं, और एक दूसरे के कट्टर शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। इसलिए प्रधान न्यायाधीश ने मध्यस्थता करवाए जाने को बेहतर समझा। इतना जानते हुए भी कि इसकी सफलता की संभावना बेहद क्षीण है। आइए, सुप्रीम कोर्ट की इस पहल का स्वागत करें और साथ ही उम्मीद करें कि मध्यस्थता पैनल और संबद्ध पक्ष बड़े दिल से, पूरी सहिष्णुता से और एक दूसरे के प्रति सद्भाव दिखाते हुए किसी सर्वसम्मत नतीजे पर पहुंचेंगे।
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