सरोकार : चुनावी घोषणा पत्र पर चर्चा जरूरी
आने वाले कुछ दिनों में लोक सभा चुनाव होने वाले हैं। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण होता है घोषणापत्र जिसके सहारे राजनीतिक दलों के दावों और वादों से जनता रूबरू होती है।
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घोषणापत्र के जरिए राजनीतिक दल अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और विचारों को जनता के सामने लाते हैं। हालांकि भारत में चुनाव घोषणापत्र जारी करने की प्रक्रिया और समय तय नहीं है , न ही राजनीतिक दल के लिए चुनाव घोषणापत्र जारी करना अनिवार्य है, जैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने घोषणापत्र जारी नहीं किया। यह चुनाव से पहले एक राजनीतिक अभ्यास बन कर रह जाता है। घोषणापत्र को असरदार बनाने के लिए कुछ आवश्यक पहलू हैं। पहला, घोषणापत्र निर्माण की प्रक्रिया स्पष्ट, जनभागीदारीपूर्ण और विकेंद्रीकृत होनी चाहिए जिससे जनता की अपेक्षाओं व आकांक्षाओं को घोषणापत्र में शामिल किया जा सके। हमारे देश में साल 1952 से चुनाव होते आ रहे हैं। पहले सभी राजनीतिक दल घोषणापत्र प्रकाशित नहीं करते थे। हाल में कई राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय दल हर आम चुनाव में अपने घोषणापत्र प्रकाशित कर रहे हैं। लेकिन इसके निर्माण में जनता और जनसमूहों की भागीदारी नहीं के बराबर होती रही है। हालांकि पिछले आम चुनाव से क्राउडसोर्संिग का चलन बढ़ गया है, और राजनीतिक दल घोषणापत्र जारी करने से पहले जनता की राय शामिल करने का दावा करते हैं। दूसरा, चुनाव के दौरान इस पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त अवसर होने चाहिए।
चुनाव घोषणा पत्र जारी करने की कोई समय सीमा तय नहीं होने से इस पर चर्चा नहीं हो पाती है। पिछले आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने पहले चरण के चुनाव के दिन ही घोषणापत्र जारी किया वहीं कांग्रेस पार्टी ने प्रथम चरण के चुनाव से महज 12 दिन पहले घोषणापत्र जारी किया। गौरतलब है कि चुनाव आयोग का हालिया प्रयास भी विफल हो गया जिसमें पहले चरण के चुनाव के 72 घंटे बाद घोषणापत्र जारी करने पर रोक लगी थी। इसके लिए राजनीतिक दलों के बीच सहमति नहीं बन सकी। तीसरा, घोषणापत्रों में नीतियों और कार्ययोजनाओं के बजाय लुभावने वादे ज्यादा देखने को मिलते हैं। लुभावने वादों से मतदाताओं को आकर्षित करने की कोशिश की जाती है। कई दफा घोषणाओं की होड़ में पार्टयिां कानून को दरकिनार करके घोषणाएं करती हैं। घोषणापत्रों में वादे कर दिए जाते हैं पर उन्हें पूरा कैसे करेंगे और उनको क्रियान्वित करने में खर्च कितना होगा, उसके बजट का कोई आकलन नहीं होता। किसी भी घोषणा के कानूनी और आर्थिक प्रभाव का कोई जिक्र ही नहीं होता। चौथा, घोषणापत्रों को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इसके लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दलों की इसके प्रति जवाबदेही हो। हालांकि घोषणापत्र को अमलीजामा पहनाना कानूनन बाध्यकारी नहीं है, लेकिन दलों को नैतिक और राजनीतिक रूप से अपने घोषणापत्र के प्रति समर्पित होना चाहिए। सत्ता में आए राजनीतिक दल को अपने घोषणापत्र के वादों की ईमानदारी से समीक्षा और मूल्यांकन करने की जरूरत है। जिन वादों के सहारे पार्टी सत्ता में आती है, उनके प्रति राजनीतिक दलों की जवाबदेही सुनिश्चित होनी ही चाहिए। कहना न होगा कि इसके लिए राजनैतिक दलों में दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति हो।
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