बतंगड़ बेतुक : ये वीर विजेता युद्धकाल के
उफ् बाल-बाल बचा पाकिस्तान! वो तो उसने हमारे वीर अभिनंदन को धीर अभिनंदनीय बनाकर हमें वापस कर दिया वरना हम धरती-पाताल एक कर देते और अपने सैन्यवीरों के बल पर नहीं अपने वाक्वीरों के बल पर उसे एक से अनेक कर देते।
![]() बतंगड़ बेतुक : ये वीर विजेता युद्धकाल के |
हम चिल्लाकर तबाही कर देते, पहले से तबाह दुश्मन को धराशाही कर देते। हम इतने जुलूस निकालते, इतनी सभाएं करते, मुर्दाबाद-जिंदाबाद के इतने नारे लगाते, इतनी चेतावनियां देते, ऐसे-ऐसे ओजपूर्ण-जोशपूर्ण भाषण देते, गालियों की इतनी बौछार करते, इतना गर्जन-तर्जन करते कि दुश्मन का कलेजा फट जाता और दुश्मन बिना मिटे ही मिट जाता। अब देखो, दुश्मन कैसा हांफ रहा है, हमारे डर से कैसा थर-थर कांप रहा है!
अब दुश्मन हारा हो न हारा हो मगर उसके बुरे दिन बीत गये थे और हम सकुशल जीत गये थे। अब हमारा चाक-चौबंद, चुस्त-दुरुस्त और बेहद तंदुरुस्त नागर समाज यह तय करने में जुट गया था कि किसे पटका जाये, किसे उठाया जाये और युद्धकाल के अप्रतिम शौर्य का सेहरा किस के सर चढ़ाया जाये। तभी एक प्रस्ताव आया कि देशभक्त वीर-विजेता तय करने से पहले युद्धकाल के गर्हित गद्दारों को तय किया जाये और उनके देशभक्ति विरोधी चेहरों को उजागर किया जाये। युद्धकाल के बिगुल के आगे जो शांति की पीपनी बजा रहे थे, युद्ध के खतरे समझा रहे थे, देशभक्ति के उन्माद पर उंगली उठा रहे थे, धैर्य-संयम-समझदारी का पाठ पढ़ा रहे थे, गरीबी-बीमारी-बेरोजगारी जैसे तुच्छ सवाल उठा रहे थे, आतंकवाद को वैचारिक विकृति बताकर उसके विरुद्ध वैचारिक मुहिम चलाने की चर्चा चला रहे थे, किसी भी अकाल मौत को इंसानियत की मौत बता रहे थे और जो उफनती देशभक्ति के आगे सजगती रोक लगा रहे थे, उन्हें तुरंत गद्दार घोषित कर दिया गया।
आगे विचार हुआ कि उन व्यक्तियों, समूहों, दलों, भीड़ों और झुंडों पर ध्यान दिया जाये जिन्होंने युद्धकाल में अपने सधे कदम आगे बढ़ाए और जो किसी न किसी रूप-स्वरूप में देश के काम आये। चर्चा मोमबत्ती समूहों पर हुई जिन्होंने मोमबत्तियां खरीदने के लिए कुछ पैसे निकाले, अपनी नियमित दिनचर्या में से कुछ समय निकाला और फिर शहीदों की याद में मोमबत्ती मार्च निकाला। इनके नाम पर चर्चा के दौरान पाया गया कि ये मोमबत्ती समूह देशभक्त तो थे मगर थोड़े संवेदनशील थे और क्योंकि इनकी आंखों में नमी थी, इनमें उत्साह और आक्रोश की कमी थी इसलिए इन्हें वीर-विजेता श्रेणी से अलग कर दिया गया और विचारार्थ अगले समूह को ले लिया गया।
अगला समूह जुलूसबाजों और सभाबाजों का था। जुलूसबाजों ने दुश्मन पाकिस्तान के विरुद्ध जमकर जुलूस निकाले थे तो सभाबाजों ने जमकर सभाएं की थीं। जुलूसों में भीड़ मुर्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे गुंजाती थी, मुठ्ठियां कसती थी, भुजाएं हवा में उछालती थी। सभाओं में नेतागण जोर-शोर से भाषण देते थे, दुश्मन को चेतावनी देते थे, उसे समूल मिटाने की सौगंध उठाते थे, एक के बदले सौ को मारने की कसम खाते थे, फिर माइक दूसरे के हाथ में थमा दिग्विजयी भाव के साथ परे खिसक जाते थे। जुलूसबाज और सभाबाज जितना जोर जुलूस-सभाओं को बांधने में लगाते थे, उससे ज्यादा जोर मीडिया को साधने में लगाते थे। पूरा ध्यान रखते थे कि मीडिया का कैमरा उनके बली व्यक्तित्व से हट न जाये। इस समूह के वीर-विजेतापन पर विचार किया गया, इसे पारंपरिक और रस्मी पाया गया और इसका प्रशस्तिवाचन कर इसे ससम्मान सूची से हटा दिया गया।
इसके बाद समूह उन मीडियाई उछल-बच्चों का था, जिन्होंने अपने-अपने समाचार कक्षों से देशभक्ति के नाले-परलाने बहा दिये थे, संयम-समझदारी के सारे बंधे ढहा दिये थे। सीमा पर भले ही तोपें थम गयी हों मगर इन्होंने अपने वचनों-प्रवचनों के ऐसे गोले दागे, गोलीनुमा गलेबाजी की ऐसी बौछार की, अपनी परम देशभक्ति की ऐसी मिसाइलें दागीं कि अगर दुश्मन तक पहुंच जाएं तो उसके छक्के छूट जाएं। कैसी अद्भुत, अटूट देशभक्ति थी, तभी टूटती थी, जब कोई सहोदरी विज्ञापन इसे तोड़ देता था, उसके अटूट प्रवाह को थोड़ा मोड़ देता था। एकबारगी लगा सीमा पर सैनिक बेकार खड़े हैं। बम की जगह बस उछल-बच्चों का हाहाकार दुश्मन पर गिरा दो, दुश्मन बुरी तरह डर जाएगा, नहीं तो बिना डरे ही मर जाएगा।
इससे पहले कि उछलबच्चा समूह को वीर विजेता घोषित कर दिया जाता चयनकर्ता का ध्यान उस सोशल मीडियाई समूह की ओर आकर्षित किया गया जो देशभक्ति के गद्दारों से जमकर लोहा ले रहा था और अपनी विकट-उत्कट देशभक्ति का परिचय दे रहा था। इस महाबली समूह ने गद्दारों के मुंह खोलने तक पर पाबंदी कर दी और जिसने मुंह खोला उसकी मां-बहन एक कर दी। इस समूह ने गद्दारों को चुन-चुनकर चुना और अपनी विशुद्ध लैंगिक गालियों से उन्हें जमकर धुना। इन्होंने पुरुष गद्दारों के पास उन्हें नापुरुष करने की भभकी पहुंचायी और महिला गद्दारों के पास समूह बलात्कार की धमकी पहुंचायी। युद्धकाल में इस समूह के गद्दार-भंजन योगदान को समवेत सराहा गया और अंतत: इसे ही वीर विजेता पदक पुरस्कार से नवाजा गया।
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