वैश्विकी : पहली बार जंगी हालात में चुनाव

Last Updated 10 Mar 2019 02:00:14 AM IST

लोक सभा चुनाव चंद महीने दूर है और भारत के विभिन्न राजनीतिक दल राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न मुद्दों पर अपनी रणनीतियां तय करने में जुट गए हैं।


वैश्विकी : पहली बार जंगी हालात में चुनाव

इनमें से ज्यादातर मुद्दे देश की घरेलू समस्याओं से संबंधित हैं, और हमेशा की तरह विदेश नीति से संबंधित मुद्दों को पृष्ठभूमि में डाल दिया गया है, लेकिन इसका एक अपवाद भारत-पाकिस्तान का संबंध है यानी इस चुनाव में भारत-पाक के रिश्ते एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आम चुनाव एक असफल लोकतांत्रिक देश पाकिस्तान की ओर से पैदा किए गए हालात के बीच होने वाले हैं। मतदाताओं के कान में बार-बार पाकिस्तान, आतंकवाद और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे शब्द गूंजेंगे। कोई राजनीतिक दल विदेश नीति से जुड़े गंभीर पहलुओं पर ज्यादा चर्चा नहीं करेंगे। इसके बावजूद यह तथ्य उजागर होता है कि वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति की सफलता या असफलता को भी कसौटी पर परखा जाना है।
आजादी के बाद देश में पहली बार आम चुनाव युद्ध जैसी परिस्थितियों के बीच होने जा रहे हैं। दो अवसरों पर आम चुनाव और युद्ध आसपास हुए थे। 1962 में चीन के साथ युद्ध होने के कुछ ही पहले चुनाव हो चुके थे जिसमें पं. नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस विजयी रही थी। इस युद्ध में चीन के हाथों पराजय के कारण पं. नेहरू की राजनीतिक साख पर पड़े प्रतिकूल असर के बावजूद कांग्रेस बची रही थी। इसी तरह, इंदिरा गांधी को दिसम्बर1971 में भारत-पाक युद्ध के पहले ही भारी जीत मिली थी। इस बार हालात बदले हुए हैं। और युद्ध जैसी स्थिति में चुनाव होने जा रहे हैं। सैनिक कार्रवाइयों की दृष्टि से देखा जाए तो पिछले कुछ हफ्तों के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष बहुत सीमित दायरे में हुआ। आमने-सामने मुठभेड़ की कोई नौबत नहीं आई। लेकिन इन दोनों देशों के परमाणु हथियार संपन्न होने के कारण विवाद की गूंज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से हुई। किसी भी देश में आम चुनाव आम तौर पर घरेलू मुद्दों पर ही होते हैं। आम मतदाता को विदेश नीति जैसे मुद्दों में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती और न ही वह इसके आधार पर वोट देता है। भारत में भी कुछ महीने पहले ऐसी स्थिति थी। सत्तारूढ़ पार्टी उरी बाद की गई पहली सर्जिकल स्ट्राइक को नरेन्द्र मोदी के सफल नेतृत्व का सबूत होने के रूप में पेश कर रही थी। लेकिन रोजगार, ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाल स्थिति, नोटबंदी और जीएसटी विपक्ष के लिए कारगर हथियार साबित हो रहे थे।

राजनीतिक दल चुनाव के पहले अपने घोषणा पत्र में विदेश नीति का विषय रखते हैं। 2014 के चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में 9/11 के हमले के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराते हुए उसके साथ भारत के रिश्ते सुधारने का वादा किया था। इसी तरह भाजपा ने पाक-अधिकृत कश्मीर के शरणार्थियों की समस्याओं को सुलझाने का वादा किया था। लेकिन विदेश नीति से संबंधित घोषणाएं औपचारिकता ही होती हैं। दुनिया के विभिन्न देश विशेषकर अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की चर्चा घोषणापत्र में करते हैं। नई सरकार विदेश नीति के संबंध में राष्ट्रीय हितों के अनुरूप मतैक्य पर आधारित बिंदुओं पर ही अमल करती है।
भारत में आम चुनाव पाकिस्तान में हमेशा जिज्ञासा और चिंता का विषय बनता है। इस बार पाकिस्तान की चिंता कुछ ज्यादा ही है। पुलवामा हमले के बाद नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति और सामरिक रणनीति में मूलभूत बदलाव किया है। राजनीतिक नेतृत्व ने अपने लिए जिन लक्ष्मण रेखाओं को तय किया था, भारत ने उन्हें पार कर लिया है। यह तथाकथित लक्ष्मण रेखाएं वास्तव में देश के व्यापक हितों के खिलाफ थीं। आत्मविश्वास नहीं, बल्कि दब्बूपन की परिचायक थीं। पुलवामा और बाद के घटनाक्रम के दौरान पाकिस्तान के नेता, विश्लेषक और मीडियाकर्मी भारत के चुनाव का उल्लेख कर रहे हैं। उनका निष्कर्ष है कि मोदी यह सब कुछ अपने घटते जनाधार को फिर से हासिल कर चुनाव जीतने की कवायद में हैं। वे पिछले पांच वर्षो के दौरान दुनिया में बढ़ती हुई भारतीय साख और मोदी की सफल विदेश नीति की ओर से आंख मूंद रहे हैं। वास्तव में हाल का घटनाक्रम मोदी की विदेश नीति की सफलता को दर्शाता है। यह मोदी द्वारा अपनाई गई सक्रिय विदेश नीति का ही नतीजा है कि दुनिया आज भारत के साथ खड़ी दिखाई दे रही है।

डॉ. दिलीप चौबे


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment