मीडिया : ‘फेक न्यूज’ बनाने के तरीके
मीडिया में ‘फेक न्यूज’ (जाली खबर) न बने। बने तो पहचान ली जाए और सावधान हो लिया जाए।
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इस बाबत पिछले दिनों मीडिया में अनेक प्रकार के विज्ञापन दिए गए हैं। इन विज्ञापनों में समझाया गया है कि किसी भी खबर को आंख मूंद कर न स्वीकार करें। उसका सत्यापन करें। ‘सत्यापन’ के बिना उसका विश्वास न करें और उसे फॉर्वड न करें। चुनावों में ‘फेक न्यूज’ बनाने वाले कोई गड़बड़ न कर पाएं-यह मांग भी उठी है। इसके पक्ष में बड़े-बड़े लोग बोले हैं कि मीडिया पर खासकर सोशल मीडिया पर निगाह रखी जाएगी ताकि लोगों को फेक न्यूज निर्माता बरगला न सकें। फेसबुक और व्हाट्सऐप के सर्वसर्वा जुकरबर्ग साहब ने भी फरमाया है कि हम अपने प्लेटफॉर्म्स में आने जाने वाली सूचनाओं को ऐसे ‘एनक्रिप्ट’ (बदली गई चित्रलिपि) में तब्दील करेंगे कि उसमें क्या जा रहा है, इसे हम भी डिकोड नहीं कर पाएंगे। इससे हम पर कोई यह इल्जाम नहीं लगा सकेगा कि फेसबुक या व्हाट्सऐप किसी चुनाव में दिलचस्पी रखने वाली पार्टी या नेता को डाटा बेच रहा है, और खरीदने वाला चुनाव पर अपना इच्छित असर डाल रहा है।
हमारे कई चैनल और कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी फेक न्यूज और रीयल न्यूज के बीच फर्क करने का प्रयत्न करते हैं। सारे तकरे और तथ्यों को बताने के बाद अंतत: ये सभी ही कहते हैं कि हमें सूचना का सत्यापन अवश्य करना चाहिए। जो सत्यापित नहीं जा सकतीं, उन खबरों का यकीन नहीं करना चाहिए। सिद्धांतत: यह एकदम सत्य कथन है, लेकिन जिस देश में आबादी का साठ फीसद गरीब किसान, मजदूर, निरक्षर या बेहद कम पढ़े-लिखे हों और उनमें से अधिकांश के पास स्मार्ट फोन हों तो वे सूचना का सत्यापन कैसे करेंगे? जब सूचना तकनीक के बड़े एक्सपर्ट तक महीनों की मेहनत के बाद किसी ‘फेक न्यूज’ को पकड़ पाते हैं, तो सामान्य जन कैसे पकड़े? अगर कोई पहले खबर का सत्यापन करने चले तो कैसे करे? सामान्य जन के पास सूचना-संग्रह का ऐसा कौशल कहां कि किसी ‘फेक न्यूज’ को तुरंत ‘पकड़ कर’सबको बता दे?
फेक न्यूज छांटना, उनको एक्सपोज करना एक ऐसा काम है, जो बहुत मेहनत मांगता है। यही नहीं, कोई खबर ‘फेक न्यूज’ है, इसे मनवाना कोई आसान काम नहीं। जिस देश में हर खबर के ‘कई अर्थ’ बना दिए जाते हों, जहां हर खबर झगड़े की जगह बन जाती हो, जहां मीडिया हर पल झगड़े की जगह बनता हो, वहां सिर्फ‘एक सत्य’ को ‘एकमात्र सत्य’ की तरह पेश करना असंभव काम है। और जब राजनीति नित्य ध्रुवीकरण करती हो और हर खबर की राजनीति चौबीस बाई सात के हिसाब से खुलकर खेलती हो, तब एक खबर सिर्फ ‘एक खबर’ नहीं रहती और उसका सत्य सिर्फ ‘एक सत्य’ नहीं होता। खबर के आते ही उसका एक प्रतिपक्ष पैदा हो जाता है।
आज के सूचना तकनीक से सुसज्जित ‘उत्तर आधुनिक’ समय में, जहां हर एक के हाथ में उसका परम उत्तर आधुनिक मीडियम स्मार्टफोन है, वहां ‘फेक’ को ‘सत्य’ बनाने या ‘सत्य’ को ‘फेक’ बनाने का सिर्फ एक तरीका नहीं हो सकता, बल्कि कई तरीके हो सकते हैं। इनमें से एक तरीका है हर खबर को संदिग्ध गिना देना, विवाद में डाल देना, उसकी अति व्याख्या करके कई अर्थ और रूप गढ़ देना।
इस तरीके से अब तक के एक ‘अपरिभाषित सत्य’ को कंफ्यूजन में डालने का सबसे नया उदाहरण है बालाकेाट में भारतीय वायु सेना के हमले में मारे गए आतंकवादियों की संख्या को ही विस्त कर देना। जब पूछा गया कि कितने मारे सबूत दें तो एक नेता ने कहा, ढाई सौ आतंकवादी मारे, दूसरे बोले, तीन सौ मारे गए, तीसरे बोले, साढ़े तीन सौ मारे; और चौथे बोले, चार सौ मारे जबकि वायु सेना ने कहा, हताहतों की संख्या गिनना हमारा काम नहीं।
कितने मारे गए? इसका सबसे पक्का डाटा तो पाकिस्तान ही दे सकता है, या हमारे जहाजों के कैमरों के वीडियो दे सकते हैं, और ये दोनों काम दो शतरे पर ही संभव है। एक, पाकिस्तान अपनी पिटाई स्वीकार करके अपनी समूची हानि को सही ही बताए; जबकि ऐसा वह कभी नहीं करने वाला। भारत के जहाजों के कैमरे मारे गए आतंकवादियों के वीडियो बना पाए हों और सरकार उनको तुरंत दिखाने को तैयार हो, जो कि कूटनीतिक कारणों से संभव नहीं।
जब हम स्वयं ‘एक सत्य’ को ‘अनेक’ बनाकर ‘संदिग्ध’ और ‘फेक’ समान बना सकते हैं, तब ‘फेक’ बनाने वाले क्या कहीं और से आएंगे। जब किसी को सच न बता सको तो उसे कंफ्यूज कर दो। ‘फेक न्यूज’ बनाने का यह भी एक तरीका है।
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