कश्मीर : अब हुई असली कार्रवाई
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस सहित स्थानीय पार्टियों के चेहरे से उड़तीं हवाइयां और आतीं उद्विग्न प्रतिक्रियाएं बता रहीं हैं कि सरकार और कानूनी एजेंसियों के पिछले कुछ दिनों के कदम का असर गहरे हो रहा है।
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ऐसा लगता है जैसे जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाने के बाद की कार्रवाई ने कश्मीर के सामंती चरित्र वाले दलीय और गैर दलीय राजनीति की जड़ को हिलाना आरंभ कर दिया है। उमर अब्दुल्ला एवं फारुख अब्दुल्ला तो अपनी बौखलाहट को संभालकर अभिव्यक्त कर रहे हैं, लेकिन महबूबा के लिए यह संभव नहीं।
घाटी में उनकी राजनीतिक ताकत का आधार ही ये भारत विरोधी तत्व हैं, जिनको वहां पूरे सत्ता प्रतिष्ठान का वरदहस्त प्राप्त था। हालांकि जमात पर 1990 में जब तीन वर्ष के लिए प्रतिबंध लगा तो महबूबा के अब्बाजान मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्रीय गृहमंत्री थे और 1975 में फारु ख अब्दुल्ला के अब्बाहुजूर शेख अब्दुल्ला ने भी इनको दो वर्षो के लिए प्रतिबंधित किया था। इसलिए इन दोनों पार्टयिों को यह भी जवाब देना चाहिए कि आखिर उन्होंने तब ऐसा क्यों किया और फिर उनको किस आधार पर इस्लाम के नाम पर भारतीय भू-भाग को खंडित करने के लिए काम करने की आजादी कैसे मिलती रही? जो लोग जम्मू कश्मीर पर गहरी नजर रखते हैं, उनको मालूम है कि यह कितना बड़ा कदम है। वे यह भी जानते हैं कि भारत से तोड़ने के लिए राजनीतिक और हिंसक यानी आतंकवादी गतिविधियों में जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन की बड़ी भूमिका है।
1993 के बाद से खुफिया एजेंसियां ने कितनी बार केंद्र एवं प्रदेश सरकारों को यह रिपोर्ट दिया है कि इस्लामिक कट्टरवाद की खतरनाक विचारधारा के आधार पर भारत को तोड़ने के लिए जमात काम कर रही है। उसमें सीमा पार के तत्वों के साथ उनका सीधा रिश्ता, उनसे निर्देश और धन लेने से लेकर आतंकवादी बनाने, उनको पनाह देने, उनके संसाधनों का प्रबंधन करने आदि सारी बातें विस्तार से दी जातीं रहीं हैं। सुरक्षा बल अनुशंसा कर रहे थे कि इनके खिलाफ कार्रवाई का कानूनी आधार दिया जाए। यही सूचना और अनुरोध हुर्रियत सहित अलगाववादी संगठनों और नेताओं के खिलाफ भी था। कानूनी आधार के साथ इनकी कट्टर इस्लामवाद और उस पर खड़े आतंकवाद को नष्ट करने के लिए कार्रवाई के लिए एजेंसियां छटपटा रहीं थीं। संगठन के स्तर पर ऐसे तत्वों को खत्म कर देने का कदम तो छोड़िए, सोचा तक नहीं गया। इसे आतंकवाद विरोधी गैरकानूनी गतिविधियां निरोध कानून के तहत प्रतिबंधित किया गया है। लेकिन जरा सोचिए, अब तक क्या हो रहा था? हिज्बुल मुजाहिदीन जैसा जम्मू कश्मीर का सबसे बड़ा आतंकवादी संगठन इसका अंग है। आतंकवादी घटनाओं से लेकर अन्य प्रकार की हिंसा आदि की छानबीन में यह बात साफ हुई कि जमात की भूमिका इनमें प्रत्यक्ष रूप से और व्यापक पैमाने पर रही। जब कश्मीर में आतंकवाद आरंभ हुआ तब हिज्बुल ही मुख्य आतंकवादी संगठन था और जमात उसको आधारभूमि प्रदान करता था। जमात कागजों पर तो एक सामाजिक और मजहबी संगठन है, पर यहां हाथी की दांत वाली स्थिति भी नहीं है। सब कुछ सामने है।
पिछले चार सालों में ही पकड़े या मारे गए स्थानीय आतंकवादियों के संबंध जमात से मिले हैं। जमात अब हिज्बुल के साथ दूसरे आतंकवादी संगठनों के लिए भी काम कर रहा है। चार सालों के दौरान जमात के कुछ नेता अगर पकड़े गए तो इसी कारण क्योंकि उनके खिलाफ आतंकवादियों का समर्थन करने, साथ देने, उनको पनाह देने, उनके असलहे आदि को अपने यहां रखने और महिमंडित करने के प्रमाण मिले। आतंकवादी गांवों या शहरों में कहां छिपते हैं, जिनकी सूचना पर मुठभेड़ होती है? ज्यादातर घर जमात नेताओं या उनके परिचितों के होते हैं। पत्थरबाजों को घर से निकलने के लिए कौन उकसाता है? यही तो। इतना ही नहीं, आज आपको जितने अलगाववादी नेता दिखते हैं, उनमें से ज्यादातर जमात में रहे हैं।
गिलानी तो उसी के टिकट से 1972 में विधायक भी बने। इनके लोग पीडीपी एवं नेशलन कांफ्रेस में शामिल होकर सत्ता की राजनीति भी कर रहे हैं। इस कारण पूरे सत्ता प्रतिष्ठान में इनका प्रभाव कायम रहता है। थोड़े शब्दों में कहें तो आतंकवाद, अलगाववाद और पत्थरबाजी के पीछे की मुख्य ताकत जमात है। इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती कि इस संगठन को नष्ट करने के लिए कभी ठीक से कार्रवाई नहीं हुई। तो आतंकवाद और अलगाववाद खत्म होगा कैसे? महबूबा कह रहीं हैं कि आप किसी संगठन को प्रतिबंधित कर सकते हैं उसके विचार को नहीं। भारत दोनों को खत्म करेगा मोहतरमा आप चिंता न करिए। क्या वह इस्लामीकरण और इसके आधार पर हिंसा द्वारा कश्मीर को तोड़ने के विचार का समर्थन करतीं हैं? यदि पहले की सरकारों ने जमात को नष्ट करने पर संकल्प के साथ काम किया होता तो न इसका इतना प्रभाव फैलता, न राजनीति और प्रशासन में इनके लोग भारी संख्या में होते। ऐसा लगता है कि भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार चलाने के लिए जो कुछ आत्मघाती भूल किए उनका परिमार्जन सूद सहित करने का निश्चय कर चुकी है। पूर्व में दो बार के प्रतिबंध केवल प्रतीकात्मक रह गए। 1990 में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने प्रतिबंध को कागजों तक सीमित रहने दिया।
अब प्रतिबंध के बाद इनके सारे बड़े चिह्नित नेता गिरफ्तार हो रहे हैं, छापों में मजहबीकरण, भारत तोड़ने, आतंकवाद के समर्थन, हवाला से धन लेने और बेनामी संपत्तियों के दस्तावेज मिल रहे हैं। कई अरब की संपत्तियां तो अभी तक ही सामने आ गई है। जम्मू कश्मीर के अलगाववाद और आतंकवाद के इतिहास की इस सबसे बड़ी कार्रवाई का परिणाम आना निश्चित है। ठीक इसी तरह की कार्रवाई हुर्रियत के खिलाफ भी हो। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासिन मलिक पर शिंकजा कसा हुआ है। शब्बीर शाह सहित दस नेता आतंकवाद के वित्त पोषण और हवाल के आरोप में एनआईए की गिरफ्त में हैं। हालांकि लक्ष्य लंबा एवं कठिन हो चुका है। किंतु इस तरह की संकल्पबद्ध कार्रवाई एवं इसके साथ आम जनता की विचारधारा बदलने के लिए वैचारिक अभियान से घाटी में अमन संभव है।
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