मुद्दा : खतरे में वन्य जीवों का अस्तित्व

Last Updated 04 Mar 2019 06:42:25 AM IST

आज दुनिया में सर्वत्र वन्यजीवों की दिनोंदिन तेजी से गिरती तादाद से वन्यजीव वैज्ञानिक, वन्यजीव प्रेमी और पर्यावरणविद खासे चिंतित हैं।


मुद्दा : खतरे में वन्य जीवों का अस्तित्व

वह बरसों से वन्यजीवों की विभिन्न प्रजातियों की तेजी से गिरती तादाद के चलते पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहे असंतुलन के बारे में चेतावनियां दे रहे हैं, सरकारों को चेता रहे हैं। लेकिन दुख इस बात का है कि इस ओर सरकारों की उदासीनता के कारण वन्यजीवों पर संकट और गहराता चला गया है।
इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। इसका जीता जागता सबूत है बीते दिनों जर्नल साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन। इसमें कहा गया है कि मौजूदा हालात के मद्देनजर जंगली जीवों की सुरक्षा को रफ्तार देने वाले ठोस कदम उठाने में नीति-निर्माताओं को दो दशक से भी अधिक समय लग सकता है। हालात की गंभीरता इस तथ्य को प्रमाणित करती है। अध्ययनकर्ता शिकागो यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर ईयाल फैंक के अनुसार वन्यजीवों की कुछ प्रजातियां आने वाले कुछेक सालों में विलुप्त होने वाली हैं जबकि सैकड़ों विलुप्त हो चुकी हैं।
शोधकर्ता ईयान फैंक ने ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर दि कंर्जव्रेशन ऑफ नेचर’ की विलुप्तप्राय: रेडलिस्ट में उल्लेखित 958 प्रजातियों का विलेषण करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है। इसमें दो राय नहीं कि वन्यजीवों की दिनोंदिन घटती तादाद में आए-दिन वन्यजीवों की हत्याएं अहम भूमिका निभा रही हैं। देश का कोई ऐसा इलाका नहीं है, जहां आए-दिन मानव आबादी में वन्यजीवों के प्रवेश के कारण उनकी हत्याएं न की जाती हों।

दरअसल, विकास की अंधी दौड़ के चलते अपने आश्रय स्थल जंगलों के खात्मे और भोजन के अभाव में वन्यजीवों के मानव आबादी में घुसने और उसके परिणामस्वरूप उनकी हत्या किए जाने की घटनाएं अब आम हो गई हैं। यहां यह गौरतलब है कि सरकार वन्यजीव अभयारण्य या संरक्षित पार्का के बीच से रेल की पटरियां हटाने के सवाल पर बरसों से मौन साधे बैठी है। हर साल काजीरंगा में बाढ़ से गैंडों, हाथियों और अन्य वन्यजीवों के बहने से मौत होती है। उत्तराखण्ड में अक्सर ट्रेन की चपेट में आकर हाथियों व दूसरे जानवरों का मरना, गुजरात में गिर अभयारण्य से शेरों का शहरी आबादी में घुसना और अक्सर हाईवे पर परिवार के साथ चहलकदमी करना एक आम बात है। जहां तक नागरिकों द्वारा वन्यजीवों को मारे जाने का सवाल है, जाहिर है ऐसी घटनाएं जनमानस के असुरक्षा बोध की जीती-जागती मिसाल हैं। वह इससे भयग्रस्त हैं कि जंगल से मानव आबादी में आकर जंगली जानवर उनके जीवन को असुरक्षित बना रहे हैं। लेकिन काजीरंगा आदि पाकरे में होने वाली घटनाएं अधिकारियों की उदासीनता का परिचायक हैं। दुख इस बात का है कि इसे देखने का सरकार और प्रशासन के पास समय ही नहीं है। असलियत में ऐसी घटनाएं अब आम हो चली हैं। आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जहां से आए-दिन ऐसी खबरें न आती हों। अब तो सरकार और प्रशासन के रवैये को देखते हुए इस पर फिलहाल अंकुश की बात बेमानी सी प्रतीत होती है। यदि वैश्विक स्तर पर नजर दौड़ाएं तो पाते हैं कि करोड़ों साल से अपनी गोद में जीव-जंतुओं को जीवन देती आई धरती की क्षमता अब चुकती चली जा रही है। मानवीय गतिविधियों का दवाब, अंधाधुंध उपभोग की बढ़ती प्रवृत्ति और बेतहाशा बढ़ती आबादी की अंधी रफ्तार से धरती जहां सहने की शक्ति खो चुकी है, वहीं बहुतेरे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है तो कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं और सैकड़ों-हजारों की तादाद में विलुप्ति के कगार पर हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की ‘लिविंग प्लानेट’ नामक रिपोर्ट की मानें तो धरती पर उसकी क्षमता से ज्यादा बोझ है। यह बोझ इतनी तेजी से बढ़ता चला जा रहा है कि साल 2030 तक हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए धरती जैसे एक ग्रह की और जरूरत पड़ेगी। इससे आगे के 20 साल बाद यानी 2050 तक धरती के अलावा दो और ग्रहों की जरूरत होगी।
यह तो अब जगजाहिर है कि जलवायु परिवर्तन के चलते जहां जंगलों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, वहीं जंगलों पर आए खतरे के चलते वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है। जहां तक हमारे देश का सवाल है आशंका जताई जा रही है कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव हिमालयी क्षेत्र के जंगलों पर पड़ेगा। केवल वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए बनी योजनाओं के ढिंढोरा पीटने से कुछ नहीं होने वाला। जनमानस का वन्यजीवों के प्रति सोच में बदलाव की भी बेहद जरूरत है। अन्यथा वन्यजीवों के अस्त होते सूर्य को बचाना बहुत मुकिल हो जाएगा।

ज्ञानेन्द्र रावत


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