सरोकार : नौकरशाही पर गंभीर विमर्श की जरूरत

Last Updated 10 Feb 2019 12:32:21 AM IST

भारत की नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश शासन से ही आया है। आज नौकरशाही अनेक तरह के गंभीर आरोपों में घिरी हुई है।


नौकरशाही पर गंभीर विमर्श की जरूरत

आज की नौकरशाही और शुरुआती नौकरशाही में अंतर क्या है? पराधीनता के समय नौकरशाही का मुख्य उद्देश्य क्या था? उसका उद्देश्य था भारत में अंग्रेजी शासन को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूती प्रदान करना। जनता के हित, जरूरतें और अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकार नहीं थे। स्वतंत्रता के बाद भारत में अनेक लोकतांत्रिक बदलाव हुए लेकिन नौकरशाही को यथावत ही स्वीकार कर लिया गया। लिहाजा उसकी विरासत और उसका चरित्र पूर्ववत ही बना रहा। भारत का स्वरूप स्वाधीनता के बाद अनेक क्षेत्रों में बहुत विस्तृत हुआ है लेकिन नौकरशाही का अपने अधिकारी होने का दंभ एक ओर और उसके भ्रष्टाचार दूसरी ओर। यह वर्ग खुद को आम भारतीयों से अलग, शासक और स्वामी भावना से भरा होता है। किसी जमाने में सरदार पटेल ने भारत की नौकरशाही को स्टील फ्रेम कहा था, लेकिन समय के साथ यह अवधारणा भी संदिग्ध होती गई।

पिछली 26 जनवरी को राष्ट्र ने 70वां गणतंत्र मनाया। ऐसे में हमें इन 70 सालों की खूबियों और खामियों पर विचार करना चाहिए। पिछले कुछ दिनों में कुछ ऐसे मामले आए हैं, जिनके मद्देनजर यह प्रश्न विचारणीय हो गया है। पिछले दिनों सीबीआई के उच्चाधिकारियों की जैसी नूराकुश्ती हुई और उसका जो हश्र हुआ, उसकी आड़ में भी कहीं न कहीं भ्रष्टाचार ही है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की बहुचर्चित आईएएस अधिकारी बी. चंद्रकला के घर सीबीआई का छापा पड़ा, जिसका संबंध उत्तर प्रदेश में खनन घोटाले से बताया गया। बंगाल में पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के घर जब सीबीआई गई तो पुलिस ने उन्हें ही गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद बंगाल सरकार खुद धरने पर आ गई और मामला सुप्रीम कोर्ट से निपटा। यह कोई पहला मामला नहीं है जब भ्रष्टाचार में बड़े अधिकारियों का नाम आया है। चाहे चारा घोटाला हो, बोफोर्स, टू जी हो, कोयला हो, नोएडा विकास प्राधिकरण हो, ताज कॉरिडोर हो या एक्सप्रेस वे हो। विकास का कोई भी बड़ा अध्याय असंदिग्ध नहीं है। ऐसे कई अवसर आए हैं, जब नौकरशाही पर दाग लगा है और जनमानस की ओर से इस तरह की आवाज उठाई गई है कि इस पर बहस की जाए, मगर ये आवाजें दब जाती हैं, या दबा दी जाती हैं। भारत की नौकरशाही संविधान से बड़ी नहीं है।

भारत की आस्था संविधान के प्रति है और नौकरशाही भी संविधान के दायरे में ही आती है। फिर नौकरशाही पर बहस क्यों नहीं हो रही? हाल में विभिन्न मंत्रालयों में उच्च पदों के लिए विज्ञापन निकला था किंतु वह कहीं खो सा गया। विज्ञापन आने पर खलबली मच गई क्योंकि यह सकारात्मक कदम था। अब इस पर गंभीर बहस की जरूरत महसूस की जा रही है। देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी विकास से दूर है। इस बहस के माध्यम से नये रास्ते और नये सुधार की ओर बढ़ना देशहित में है। देश में जिस तरह की सामाजिक-राजनैतिक स्थिति बन रही है, उसमें यह बहस देश को नई दिशा दे सकती है। पुराने मानकों से आगे निकलकर नई उम्मीदों और नई सामाजिक वैचारिक बहसों से एक सकारात्मक राह निकाली जा सकती है।

संतोष कुमार राय


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