मुद्दा : सवर्ण बनाम संवैधानिक आरक्षण

Last Updated 08 Feb 2019 06:59:08 AM IST

अम्बेडकर के नेतृत्व में संविधान निर्माताओं ने संविधान को स्वतंत्र भारत में राष्ट्र निर्माण परियोजना के उद्देश्यों को हासिल करने का सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना।


मुद्दा : सवर्ण बनाम संवैधानिक आरक्षण

अम्बेडकर ने खुशी जाहिर की थी कि संविधान में हरेक नागरिक का मूल्य एक बराबर है और वो वयस्क मताधिकार के रास्ते राजनीतिक समानता को हासिल करने में कारगर सिद्ध हुआ। परन्तु सामाजिक समानता के मार्ग में हिन्दू समाज की जातिगत संरचना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। यहां पर असमानता पूरी तरह से घर बना चुका था। इस बिंदु पर ‘मूकनायक पत्रिका’ के प्रथम संस्करण में अम्बेडकर ने प्रकाश डालते हुआ लिखा है कि हिन्दू समाजिक संरचना में असमानताओं को बहुत स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। मसलन हिंदू समाज को एक ऐसा बहुमंजिला मीनार बताया, जिसमें न तो सीढ़ी है और न ही दरवाजे। जो जिस तल पे जन्मेगा वो उसी तल पर मरेगा।
एक तरफ जहां हिंदू धर्म दावा करता है ईश्वर हर किसी में बसता है, चाहे वह चाहे सजीव या निर्जीव वस्तु ही क्यों न हो? परंतु परेशान करने वाले सवाल यह है कि हिंदू समाज अपने समाज के एक बड़े हिस्से को अछूत क्यों मानता है? ऐसे गैर-बराबरी से ग्रसित समाज को लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर सामाजिक-आर्थिक विकास की कल्पना संविधान निर्माताओं के लिए चुनौतीपूर्ण थी। व्यापक विमर्श के बाद विभिन्न अभिवंचित वगरे को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण को संविधान में अंकित किया गया और इसे सामाजिक न्याय का एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में प्रस्तुत किया। वंचितों के लिए विशेष अवसर का प्रावधान करके संविधान ने समतामूलक समाज की स्थापना के लिए प्रतिबद्धता को परिलक्षित किया।

आरक्षण का मूल उद्देश्य सदियों से अपृश्यता और जातिगत शोषण से प्रभावित वंचितों को मुख्यधारा से जोड़ने और उचित प्रतिनिधित्व के तरफ बढ़ने के लिए था। वंचितों के लिए आरक्षण की मांग आजादी-पूर्व से चली आ रही थी और संविधान सभा में सर्वपक्षीय विमर्श के आधार पर आरक्षण की परिकल्पना को अंतिम रूप दी गई। ऐतिहासिक शोषण, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को संवैधानिक मान्यता मिली और संविधान के अनुच्छेद 15 (4), 16 (4), 46 और 341 के तहत इंगित की गई। एक तरफ सामाजिक और भौगोलिक रूप से बहिष्कृत समाज को सत्ता और संसाधनों में हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता दी गई वहीं आर्थिक आधार पर आरक्षण के पहल को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया गया। तार्किक आधार पर स्पष्ट किया गया कि आरक्षण का उद्देश्य वंचितों और पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व का विषय तक ही सीमित है। पिछड़ों के लिए मंडल आयोग के सिफारिश को लागू करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले पर एक अहम फैसला बरकरार रखा। इसके अनुसार आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसद तय की। समानता के अधिकार और समतामूलक समाज बनाने की जरूरत में संतुलन की स्थापना उसका मूल उद्देश्य था। इस संवैधानिक भावना के तहत एससी/एसटी के लिए यह प्रावधान स्वतंत्रता के साथ ही की गई जबकि सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ों के लिए विधिसम्मत आयोग के माध्यम से शुरुआत की गई।
भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान कई वादे किए। दो करोड़ नौकरी, प्रत्येक नागरिक के एकाउंट में 15 लाख रु पये और कालेधन की वापसी के आधार पर ‘अच्छे दिन’ का सियासी जुमला गढ़ा। मगर कई वादे अभी भी वैसे ही पड़े हैं। उपरोक्त असंतोष से बचने के लिए ही कार्यकाल के अंतिम चरण में सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण का सियासी दांव चला। आरक्षण को पहली बार गरीबी उन्मूलन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जबकि इसे लोकतंत्र को समावेशी बनाने का यंत्र माना गया था। बिना कोई अध्ययन या रिपोर्ट और संशोधन के मसौदे पर व्यापक विमर्श के बगैर ही सरकार ने सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए आर्थिक आधार पर सवर्ण विधेयक को संसद के दोनों सदनों से पारित करा लिया। सवर्ण आरक्षण के तहत गरीबी के परिभाषा को देखे तो अब उत्कृष्ट पांच फीसद सामान्य वर्ग के लिए 40 फीसद हो गया जबकि 95 फीसद सामान्य वर्ग  के लिए 10 फीसदी आरक्षण में ही सीमित कर दिया। ये वंचित गरीबों के हकमारी का प्रयास ही तो है। मंडल आयोग रिपोर्ट के आधार आरक्षण के खिलाफ मंडल विरोधी आंदोलन का एक माहौल बनाया गया। मीडिया और बौद्धिक विमशर्ों में आरक्षण को प्रतिभा की हत्या से लेकर देश के विकास में आरक्षण को सबसे बड़ी बाधा के रूप में प्रस्तुत किया गया।

डॉ. नवल किशोर


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