अमेरिका-अफगानिस्तान समझौता : भारतीय हितों को चुनौती
अमेरिका और तालिबान अफगान संकट को खत्म करने पर सहमत हो गए हैं।
अमेरिका-अफगानिस्तान समझौता |
शनिवार को दोनों पक्षों की तरफ से वार्ताकारों ने 17 साल से जारी युद्ध को खत्म करने पर सहमति व्यक्त की। दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों ने छह दिन की कठोर वार्ता के बाद आखिरकार अफगान युद्ध को समाप्त करने के समझौता मसौदे पर हस्ताक्षर किए। तालिबान सूत्रों के अनुसार अमेरिका को इस बात का आश्वासन दिया गया है कि अफगानिस्तान में अल कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को पनाह नहीं दी जाएगी। वार्ता में अमेरिका की ओर से तत्काल संघर्ष विराम की मांग की गई थी। हालांकि इस संबंध में अभी कोई कार्यक्रम तय हुआ है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं हो सका है।
वहीं तालिबान ने दावा किया है कि अमेरिका अगले 18 महीनों में सभी विदेशी सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला लेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की सोच अफगानिस्तान को लेकर बिल्कुल स्पष्ट है कि अमेरिका वहां से अपनी सेना को 18 महीने में वापस बुला लेगा। राष्ट्रपति की सोच के कारण से ही पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री मैटीज ने त्यागपत्र दे दिया था। 2001 से लेकर 2018 तक तकरीबन 7000 से ज्यादा अमेरिकी सैनिक और करीब 8000 तक अमेरिकी व्यवसायी अफगानिस्तान में हताहत हुए हैं। अमेरिका लगभग 45 मिलियन डॉलर हर वर्ष अफगानिस्तान में खर्च करता है। पिछले 17 साल से अमेरिकी सेना वहां पर तैनात है। इसलिए ट्रंप सुदूर की जंग लड़ने के मूड में नहीं है। उनकी नजरों में अमेरिका को कोई लाभ नहीं होगा। संभवत: अमेरिका की आर्थिक हालत भी बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन दोहा में जो वार्ता हुई, वह अभी कोई नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है। तालिबान की वचनबद्धता में कोई प्रमाणिकता नहीं, जो अमेरिकी अनुदेश को पालन करने की लिए उसे विवश करे।
तालिबान की पृष्ठभूमि भी ऐसी नहीं रही है, जो इसकी बातों को सहजता से स्वीकार की जा सके। पाकिस्तान की कूटनीति भी पिछले कुछ वर्षो में यही रही है कि तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान के राजनीतिक ढांचे को चलाया जाए। चीन की रणनीति भी पाकिस्तान के सबसे करीब है। रूस जो पाकिस्तान और तालिबान का विरोधी है, उसकी भी सोच बदल चुकी है। इस बदलाव का सबसे बड़ा आघात अफगानिस्तान की जनता और भारत को लगेगा। भारत की सोच अफगानिस्तान उन्मुख राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करना है, जिसमें तालिबान का वजूद ज्यादा शक्तिशाली नहीं हो। भारत अमेरिका के साथ मिलकर काम कर रहा था। मगर अमेरिका की वापसी के बाद भारत का कोई भी सहयोगी देश वहां नहीं बचा। पाकिस्तान का चाबहार बंदरगाह भी खतरे के घेरे में होगा अगर तालिबान का उपद्रव शुरू हुआ तो। तालिबान की गूंज कश्मीर में भी सुनाई देगी, जो पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलाया जाएगा। तालिबान और अमेरिकी वार्ता में अफगानिस्तान की सरकार को नहीं शामिल किया गया है।
तालिबान अफगानिस्तान की सरकार को वैध नहीं मानता। अमेरिकी वार्ता के ठीक पहले तालिबान ने 100 से अधिक अफगान सैनिकों की हत्या कर दी। यह भी इतना ही सच है की तालिबान का मतलब अफगानिस्तान नहीं है। अफगानिस्तान जातियों और क्षेत्रों में बंटा हुआ है, जिसका सबसे बड़ा तबका पश्तून है। पश्तून के द्वारा ही तालिबान की रचना हुई है। लेकिन दूसरा सबसे बड़ा तबका ताजिकों का है, जो तालिबान के घोर विरोधी हैं। यह तबका ज्यादा पढ़ा-लिखा है। अमेरिकी वर्चस्व के बाद ताजिकों को सत्ता में स्थान दिया गया था। पश्तून इससे भी काफी खफा थे। ब्रिटिश काल में पश्तून और पाकिस्तान के सम्बन्ध बहुत तीखे थे। जब अंग्रेजों ने डुरंड रेखा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच खींची थी, उससे पश्तून दो भागों में बंट गया था। उस दौरान अफगानिस्तान के विभिन्न जातियों में धर्म प्रधान नहीं था, उनके लिए जाति और क्षेत्र मुख्य था। इसलिए 1947 में अफगानिस्तान ने पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल किए जाने पर विरोध दर्ज किया था। लेकिन रूसी आक्रमण ने पाकिस्तान के सामरिक विस्तार को धारदार बनाया। जहां तक भारत की बात है तो इसकी मुश्किलें कई कारणों से बढ़ेगी। भारत की नीति पाकिस्तान के हस्तक्षेप को हर तरह से रोकने की रही है। क्योंकि पाकिस्तान निरंतर भारत विरोधी गतिविधियों में संलग्न रहा है। भारतीय प्रयास को पाकिस्तान के आतंकवादी समूहों द्वारा नुकसान पहुंचाया जाता रहा है।
1990 में भारत रूस और ईरान के साथ मिलकर अफिनस्तान में काम कर रहा था, जिसमें ताजिक और अन्य जातियों को विश्वास में लिया गया था, जो तालिबान के विरोधी थे। आज अफगानिस्तान को लेकर न ईरान और न ही रूस भारत के साथ हैं। इसका सीधा फायदा पाकिस्तान को मिलेगा। दूसरी तरफ चीन पाकिस्तान के जरिये अपनी ओबीओआर योजना को व्यापक बनाने की कोशिश करेगा। चीन किसी भी तरह से पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों की वजह से उस पर कोई लगाम नहीं डालेगा। तालिबान की दूसरी पारी पहले जैसी सहज नहीं होगी। आर्थिक व्यवस्था बेतरतीब है। अमेरिका और सऊदी अरब की आर्थिक सहयता के बिना ट्रैक पर गाड़ी को लाना मुश्किल होगा। तालिबान ताजिक समुदाय को भी नजरअंदाज करेगा तो गृहयुद्ध की आशंका बढ़ेगी। तालिबान के आने के बाद युद्ध और कलह तेजी से बढ़ेगा। महिलाओं और अल्पसंख्यक वर्ग की मुश्किलें भी बढ़ेंगी। 2019 में अफगानिस्तान में चुनाव भी होने वाला है। क्या तालिबान चुनाव के जरिये सत्ता पर काबिज होगा या अन्य तरीके अपनाएगा, यह देखने वाली बात होगी। अमेरिका मन बना चुका है अपनी वापसी का।
भारत के लिए चुनौती गंभीर है। केवल नुकसान अफगानिस्तान में ही नहीं होगा, इसका खामियाजा मध्य एशिया पर भी होगा, जहां पर भारत का हित है। आतंकी गतिविधियां भी कश्मीर में बढ़ेगी। ईरान के जरिये अफ्रीका तक पहुंचने का रास्ता भी भारत के लिए कांटों भरा होगा। चूंकि 1987 में रूस के साथ होने की भूल अफगानिस्तान में हम कर चुके हैं, जिससे पश्तून जाति पूरी तरह से भारत विरोधी हो गई। तालिबान उन्हीं की जमात है। ऐसी हालत में भारत की समस्या कुछ ज्यादा ही गंभीर है। अमेरिका किस तरीके से भारत के हित को बचा पाएगा या भारत को अपने हित की सुरक्षा खुद करनी होगी, यह आने वाला समय बताएगा।
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