बतंगड़ बेतुक : अन्ना तुम अन्ना ही निकले

Last Updated 10 Feb 2019 12:36:43 AM IST

क्या अन्ना, तुम भी अन्ना ही निकले! बुढ़ौती में फिर पनौती पालने निकल पड़े थे, जो लड़ाई पिट-पिटाकर कूड़ेदान में निपट चुकी थी उसे फिर ठानने निकल पड़े थे।


बतंगड़ बेतुक : अन्ना तुम अन्ना ही निकले

अनुभवों के दौर में लोग हारते हैं, जीतते हैं मगर कुछ-न-कुछ जरूर सीखते हैं। वे उधर नहीं जाते जिधर से हार के आये हैं, अपनी लुटिया डुबोकर आइ हैं। मगर तुम तो तुम हो।
तुम जीत-जीतकर हारते रहे और तुम्हारे सखा-संघाती हार-हारकर जीतते रहे। किसे भ्रष्टाचार मिटाना था, किसे लोकपाल-लोकायुक्त लाना था, उन्हें तो तुम्हारी गोद में बैठकर सत्ता के गलियारे में अपना आसन बिछाना था। अच्छा हुआ, तुमने अपना तंबू जल्दी उठा लिया अन्यथा चील-कौवे फिर मंडराने लगते, तुम्हारे नाम को नोंच-नोंचकर अपनी सत्ताई भूख मिटाने लगते। वैसे भी अन्ना, तुम अनशन धरना किए भी रहते तब भी किसी को न कुछ सुनना था, न कुछ करना-धरना था। इस समय देश व्यस्त है संविधान बचाने में और संविधान बचा-बचाकर लोकतंत्र बचाने में। तुमने बंगाल की शेरनी के धरने के बारे में जरूर सुना होगा। धरना जिसने संविधान की चूल्हें हिला दी थीं, दरअसल संविधान को बचाने के लिए था, हिली हुई चूल्हों को फिर से जमाने के लिए था। संविधान की समूची अस्मिता एक पुलिस अधिकारी की पूछताछ-गिरफ्तारी पर टिक गई थी। संविधान मिटाने के लिए इस अधिकारी के दरवाजे पर पहुंची असंवैधानिक सीबीआई अगर इस अधिकारी से पूछताछ कर लेती या गिरफ्तार कर लेती तो देश का संविधान ढह जाता और लोकतंत्र, लोकतंत्र नहीं रह जाता।

सो, संविधान की रक्षा को सन्नद्ध शेरनी ‘निर्ममता और बर्बरता’ से दहाड़ उठी, आकाश कांप उठा, धरती कांप उठी। अपने समर्थन के टोकरे लेकर पार्टियां दौड़ पड़ीं, नेता दौड़ पड़े, संविधान जिस-जिस के पीछे पड़ा था वे सब संविधान बचाने दौड़ पड़े। अब अन्ना तुम चाहो तो आंख, कान, मुंह सब बंद करके आराम से अपनी कुटिया में धूनी रमाये रहो या फिर उस महासंग्राम पर नजर टिकाए रहो, जो उत्तर से दक्षिण तक संविधान बचाने के लिए चल रहा है, और जिसमें भाग लेने के लिए हर बंधन-गठबंधन मचल रहा है। संसद में कार्यवाही को कोरी सरकारी किरकिरी करार देकर। इसे गलाफाड़ हल्ला मचाकर संविधान को बचाया जा रहा है तो विधानसभा में राज्यपाल पर कागजी बमों की बौछार कर संविधान बचाया जा रहा है। नेता सरकारी है तो विपक्ष को दुराचारी बताकर संविधान की रक्षा कर रहा है, और अगर नेता विपक्षी है तो सरकार को निकम्मी-नाकारा, बताकर संविधान की रक्षा कर रहा है। दंगल टीवी पर चल रहा है तो कटखनी जुबान वाले तलवारी प्रवक्तागण एक-दूसरे की ऐसी-तैसी कर संविधान बचा रहे हैं तो विकट सक्षम, सर्वज्ञ एंकरी उछलबच्चे इन्हें कोंच-कोंचकर संविधान बचा रहे हैं। देश में भीड़ है और भीड़ उतावली है, संविधान रक्षा को बावली है। जिस नेता के हिस्से में जितनी भी भीड़ आती है उसने उसकी आत्मा झकझोर कर जगा दी है, संविधान रक्षा के महत्त्वपूर्ण काम पर लगा दी है।
सभी भीड़ों में भारी जनवाद व्याप्त है, संविधान बचाने का गहरा उन्माद व्याप्त है। ये भीड़ें अपने नेता के हांके का इंतजार करती हैं, हांका लगते ही कहीं भी अड़ सकती हैं, संविधान रक्षा के लिए आपस में भिड़ सकती हैं तो संविधान रक्षा के लिए ही दो भीड़ें एकजुट होकर किसी तीसरी से निपट सकती हैं। भीड़ को उकसाना है, जुटाना है और क्योंकि संविधान रक्षा का भार भी भीड़ के कंधों पर है इसलिए भीड़ को भड़काना है, भिड़ाना है। तो अन्ना, देशभर में संविधान बचाने के महाकुंभी अनुष्ठान चल रहे हैं। सरकार जहां जिसकी हो, चुन-चुनकर विपक्षियों को गरियाकर, निपटाकर संविधान को बचाने का प्रयास कर रही है तो सारे विपक्षी एकजुट हो सरकार को निपटाने के प्रयास कर संविधान को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। सरकार के मनवाने को मानकर ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाएं कथित अपराधियों को चुनिंदा तरीके से निपटाकर संविधान बचाने की कोशिश कर रही हैं, और जिन कथित अपराधियों को ये संस्थाएं निपटाना चाहती हैं वे इन संस्थाओं को निपटाकर संविधान बचाने की कोशिश कर रहे हैं। नेतागण अधिकारियों को पालतू पिल्ला बनाकर संविधान की रक्षा कर रहे हैं तो अधिकारीगण अपनी सारी विवेकीय चेतना को ताक पर रख अपने-अपने आकाओं की चरणचप्पी कर संविधान की रक्षा कर रहे हैं। अब न कहीं कोई अपराधी है न कोई भ्रष्टाचारी। न कहीं कोई जातिवादी है न कहीं कोई उन्मद संप्रदायवादी। न कहीं कोई विधि विरोधी है न कोई राष्ट्रविरोधी।
ये सब संविधान रक्षा के महासंग्राम के महान सेनानी हैं, चुनाव जीतकर संविधान रक्षा के सुअवसर पाने को प्रतिबद्ध, कटिबद्ध। संवैधानिक व्यवस्थाएं इनके आड़े आई तो इन व्यवस्थाओं को तहस-नहस करके ये संविधान बचाएंगे, मगर बचाएंगे जरूर। सुन-समझ रहे हो न अन्ना, अब कभी अपनी कुटिया से बाहर मत निकलना, निकलना तो कभी अनशन-वनशन के चक्कर मत पड़ना, किसी को कुछ बताने-सुझाने की जिद पर मत अड़ना। देश को न कभी तुम्हारी जरूरत थी, न है, न होगी इसलिए किसी भ्रम में मत पड़ना। देश संविधान और लोकतंत्र बचाने का महासंग्राम लड़ रहा है, इसमें खलल मत बनना। तुम्हारा क्या रहना, क्या न रहना, इसलिए जब तक हो आराम से गुजर-बसर करना। देश प्रसन्न है, तुम भी प्रसन्न रहना।

विभांशु दिव्याल


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