सरोकार : ठिठुरन नहीं, कमी से मरते हैं लोग
कहीं भूख और कुपोषण से होने वाली मौतें तो कहीं गरीबी और कर्ज के बोझ से त्रस्त किसानों के खुदकुशी करने के जारी सिलसिले के बीच ही हर साल सर्दी की ठिठुरन, बारिश-बाढ़ और गरम लू के थपेड़ों से भी लोग मरते हैं।
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उस भारत में जो दावा करता है कि जल्द ही दुनिया की एक महाशक्ति बन जाएगा। दुनिया में संभवत: भारत ही ऐसा देश है, जहां हर मौसम की अति होने पर लोगों के मरने की खबरें आने लगती हैं। लेकिन लोग मौसम की अति से नहीं, मरते हैं अपनी गरीबी से, साधनहीनता से और व्यवस्था तंत्र की नाकामी या लापरवाही से। गैर-सरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर होलिस्टिक डवलपमेंट’ (सीएचडी) की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में सर्दी के सितम से जनवरी के पहले पखवाड़े में ही 96 बेघर लोगों की मौत हो गई। दिल्ली देश की राजधानी है। यहां ऐसी हालत है तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के दूसरे हिस्सों में क्या हालत होगी।
हिमालय की पहाड़ियों पर बर्फ गिरती है, और मैदानी इलाकों में शीत लहर चलती है तो देश के विभिन्न इलाकों में सर्दी की ठिठुरन से होने वाली मौतों के आंकड़े आने लगते हैं। वैसे सर्दी हमारे नियमित मौसम चक्र का ही हिस्सा है। कडाके की सर्दी इसका हल्का-सा विचलन भर है। ऐसे विचलन से हर कुछ साल के बाद हमारा सामना होता रहता है- कभी सर्दी में, कभी गरमी तो कभी बारिश में। मौसम कोई भी हो, जब भी उसकी अति दरवाजे पर दस्तक देती है तो हमारी सारी व्यवस्थाओं की पोल का पिटारा खुलने लगता है। फिलहाल सर्दी की बात की जाए तो हमेशा की तरह इस बार भी सबसे ज्यादा पोल खुली है पूर्वानुमान लगाने वाले मौसम विभाग की। बारिश का मौसम खत्म होते ही बताया गया था कि इस बार सर्दी कम पड़ेगी। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की चर्चाओं के बीच इस भविष्यवाणी पर किसी को भी हैरानी नहीं हुई। लेकिन जैसे ही सर्दी ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए तो फिर मौसम विभाग की ओर से बताया गया कि यह कडाके ठंड चंद दिनों की ही मेहमान है, जल्द ही मौजूदा उत्तर पश्चिमी हवाओं का रु ख बदलेगा और तापमान सामान्य के करीब पहुंच जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बेघर लोगों के लिए रैन बसेरों की व्यवस्था अभी भी कई जगह अधूरी है, या बिल्कुल ही नहीं है, जबकि सुप्रीम कोर्ट कई बार इस मामले में राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए पुख्ता बंदोबस्त करने के निर्देश दे चुका है।
ऐसे लोगों को मौसम की मार से बचाने के लिए अदालतें हर साल सरकारों और स्थानीय निकायों को लताड़ती रहती हैं, लेकिन मोटी चमड़ी पर ऐसी लताड़ों का कोई असर नहीं होता। शीत लहर, बाढ़ और भीषण गरमी जैसी प्राकृतिक आपदाएं कोई नई परिघटना नहीं हैं। ये तो पहले से आती रही हैं, और आती रहेंगी। इन्हें रोका नहीं जा सकता। रोका जा सकता है तो इनसे होने वाली तबाही को, जो सिर्फ राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र की ईमानदार इच्छाशक्ति से ही संभव है। ताजा शीत लहर और उससे होने वाली मौतें हमें बता रही हैं कि जब मौसम के हल्के से विचलन का सामना करने की हमारी तैयारी नहीं है, और हमारी व्यवस्थाएं पंगु बनी हुई हैं, तो जब ग्लोबल वार्मिंग जैसी चुनौती हमारे सामने होगी तो उसका मुकाबला हम कैसे करेंगे?
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