बतंगड़ बेतुक : एक छपकी घर के ताल में

Last Updated 03 Feb 2019 04:41:45 AM IST

ताल तट पर पंख तौलती एक हंसिका ने अपने गृह ताल में एक छपकी क्या मारी कि ताल में समंदर उमड़ पड़ा।


बतंगड़ बेतुक : एक छपकी घर के ताल में

भूमि पर दाना चुगती-चुगाती एक कपोती ने अपने आकाश में उड़ान क्या भरी कि आकाश फट पड़ा। एक वनचारिणी हिरनी ने अपने चिर-परिचित जंगल में एक लंबी कुलांच क्या मारी कि जंगल धधक उठा। घुट्टी में राजनीति पी-पीकर बड़ी हुई पुश्तैनी राजनीतिक परिवार की एक सुदर्शना ने सक्रिय राजनीति में अपना पांव क्या रखा कि भूचाल आ गया। मीडिया की मंडियां बजबजा उठीं, चारों तरफ खबरें खदबदा उठीं।
बिना बोले जिनके पेट फूल जाते हैं वे मीडिया-माइकों की तलाश में निकल पड़े और जो अपने मुंह बंद रखना चाहते थे, उनके मुंह खुलवाने के लिए मीडिया के माइक पिल पड़े। नेताओं ने मुंह भर-भर बयान उगलने शुरू कर दिये, मीडिया ने चिखाऊ-चिल्लाऊ प्रवक्ता नामधारी पहलवानों के दंगल शुरू कर दिये। किसी ने हिकारत से कहा, भैया फेल हो गया है सो बहन पास कराने आयी है, किसी ने सुविचारित विचार प्रस्तुत किया कि यह परिवारवाद का विस्तार है, किसी ने कहा जब भैया कुछ नहीं कर सका तो बहन क्या भाड़ फोड़ लेगी।

अब कोई उनसे पूछे जो बड़ी बेचारगी से परिवारवाद को परम परिवाद बनाकर बार-बार अपनी संवैधानिक अपरिपता का परिचय देते रहते हैं कि कानून की किस किताब में लिखा है कि कोई अपने पारंपरिक पारिवारिक पेशे में प्रवेश नहीं पा सकता? बच्चे जब वंश व्यवसाय को विस्तार देते हैं, उसे आगे बढ़ाते हैं, परवान चढ़ाते हैं तो खुश होना चाहिए कि जलन के मारे जलकुक्कड़ हो जाना चाहिए? बेरोजगारी के इस बेशर्म जमाने में जिस पेशे में भारत माता के लाखों अकुशल, अकर्मण्य और अनर्ह सपूत निर्बाध रोजगार पा रहे हों, जिस पेशे में न जाने कैसे-कैसे नाकारा-निकम्मे, चोर-उचक्के आकर देखते-ही-देखते अरब-खरबपति हो जाते हों, रंग-रूतबा कायम कर लेते हों, रंक से राजा हो जाते हों उस पेशे में किसी राजा के परिवार से ही कोई सधा कदम रखे तो उस पर रंडापा करना प्रचंड पाखंड नहीं है तो और क्या है? उदाहरण के लिए चारे के चक्कर में चकराये बिहार के लाल के लालों में से बड़े लाल को लीजिए, सिवाय मंत्री बनने के कोई अन्य रोजगार पाने की अर्हता है उनमें? ऐसे पवित्र व्यवसाय में किसी कुलीन राजकुमारी के प्रवेश पर हाय-तौबा मचाना कितना उचित है, सोचिए तो!
मगर कैसे-कैसे कुसंस्कारी लोग हैं यहां। भाई-बहन के परस्पर अतिसहयोगकारी रिश्ते पर भी छींटाकशी कर रहे हैं। शायद इन्हें भारतीय संस्कृति का क, ख, ग भी याद नहीं। भैया, अगर भाई को बहन का संग नहीं मिलेगा तो क्या संघ का मिलेगा? वे कहते हैं कि भाई शून्य है, शून्य भाई कुछ नहीं कर पाया तो शून्य बहन क्या कर लेगी? जिस भाई ने अपने बल तीन-तीन राज्य छीन लिये हों, जिसने बड़े-बड़े सीनों की सांस फुला दी हो, कल तक के अपराजेयों को पराजेय बनाकर उनकी नींद उड़ा दी हो, अगर उसका इतना कर गुजरना करना नहीं है तो करना क्या होता है, जरा पूछिए इनसे! अब तो बहन भी साथ आ रही है, साथ में जोशोजुनून भी ला रही है, अपनों में आशा और उम्मीद भी जगा रही है और भाई के मजबूत होते हाथ को और भी मजबूत बना रही है।
अब जैसा कि मौजूदा चलन है, जिनके दिमाग में जो अंट-शंट गंधाता-घिनाता भरा है वह उन्हें मुंह से निकालना है और मीडिया के उछलबच्चों को उसे जमकर उछालना है। जब एक असौम्य, अरूपा, अशालीन साध्वी ने सुदर्शना, सुष्मिता, सौम्य और शालीन बहन को बरसाती मेंढक कहा तो लगा कोई मेंढकी हंसिका से डर गयी है, अपने कुरूप को उसके रूप पर आरोपित कर रही है। एक अन्य को बहन में और कोई कमी नजर नहीं आयी तो उसने अपनी सुदृष्टि बहन के गिरते सौंदर्य पर जा टिकायी। बेचारा राजनेता था, राजनीति में सौंदर्य के प्रभाव को पहचानता था, उसकी पार्टी स्वप सुंदरी को क्यों लेकर आयी थी, इसे जानता था। मानता था कि सुंदरता नहीं तो लुभाव नहीं, ग्लैमर नहीं तो वोटरों पर प्रभाव नहीं। बेचारा यह नहीं जानता था कि स्वप सुंदरी का ग्लैमर अब भी पार्टी के रूप-रिक्त कटोरे को सौंदर्य से समृद्ध करता है। उनका ग्लैमर अब भी काम करता है, वोटरों को आकषिर्त करता है। जिन्हें भारत की जनता पर भरोसा है उन्हें यह भी भरोसा है कि बहन देश की ग्लैमरमयी बड़ी नेता बनेगी। देश की समझदार जनता ग्लैमर और कठोर यथार्थ का फर्क पूरी समझदारी से समझती है। कठोर यथार्थ उसकी जिंदगी से कठोरता से चिपके रहना है। न इसको हटना है न किसी को हटाना है। ग्लैमर इस यथार्थ की तपती गर्मी में पवन का शीतल झोंका है, चहुंदिश बेहूदे परिदृश्य में नयनाभिराम मौका है। इसलिए समझदार जनता यथार्थ का तर्पण करती है और ग्लैमर को विजय का माल्यार्पण करती है। बहन भी इसी श्रेणी में आती है, अब भी खूब लुभाती है।
तुम आओ बहन, तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। जब दीदी, बहनजी का इतना जलवेदार दबदबा हो सकता है तो बहन का क्यों नहीं? बस, उनकी तरह अपने चेहरे को बे-मुस्कान, तन्नाया, भन्नाया मत रखना। तुम स्मितमुखी हो, स्मितमुखी ही रहना। अनाप-शनाप बोलों को मत सुनना। सुनना तो केवल उन ढोल-नगाड़ों को सुनना जो तुम्हारे सम्मान में बज रहे हैं, देखना तो केवल उन बंदनवारों को देखना जो तुम्हारे स्वागत में सज रहे हैं।

विभांशु दिव्याल


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