वैश्विकी : वेनेजुएला के पीछे अमेरिका

Last Updated 03 Feb 2019 04:37:04 AM IST

महाशक्ति अमेरिका का निकटवर्ती लैटिन अमेरिकी क्षेत्र फिर से तख्तापलट और राजनीतिक हत्या की धमकी की त्रासदी का शिकार बन रहा है।


वैश्विकी : वेनेजुएला के पीछे अमेरिका

शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए की गतिविधियों को लेकर इस क्षेत्र के अमेरिका विरोधी देश या गुट-निरपेक्ष खेमे के सदस्य देश सुनियोजित तख्तापलट की आशंका से भयभीत रहते थे। 11 सित. 1973 को लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए चिली के शासक सल्वाडोर अलांदे की सैनिक तख्तापलट अभियान के तहत हत्या और क्यूबा में क्रांति के नायक फिदेल कास्त्रो की हत्या की बार-बार कोशिशों की खबरें दुनिया में चर्चा का विषय रहीं। अलांदे दुनिया के पहले निर्वाचित मार्क्‍सवादी राष्ट्राध्यक्ष थे। उन्होंने चिली में कई आर्थिक सुधार किए, लेकिन अमेरिका की तत्कालीन सरकार को यह पसंद नहीं आया था।
शीत युद्ध को पूंजीवाद बनाम मार्क्‍सवाद के बीच वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष के रूप में प्रचारित किया गया था। जब शीत युद्ध खत्म हुआ तब होना यह चाहिए था कि इस संघर्ष का अंत हो जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शीत युद्ध वैचारिक संघर्ष से कहीं अधिक वर्चस्व की लड़ाई थी। यही कारण है कि आज अमेरिका और चीन, अमेरिका और रूस तथा अमेरिका और लैटिन अमेरिका के कई देश एक दूसरे के आमने-सामने हैं। वेनेजुएला का घटनाक्रम भी इसका साक्षी है। उसका संकट घरेलू राजनीति में नेतृत्व की अक्षमता, आर्थिक कुप्रबंधन और कूटनीतिक विफलता की उपज हो सकता है, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे अमेरिकी वर्चस्व की लड़ाई भी बड़ी वजह है।

दुनिया के सबसे बड़े तेल भंडार वाला लैटिन अमेरिकी देश इन दिनों गंभीर राजनीतिक संकट, कमजोर अर्थव्यवस्था और सेना के सियासी इस्तेमाल से जूझ रहा है। राजनीतिक सत्ता संघर्ष में एक ओर राष्ट्रपति निकोलस मादुरो हैं, तो दूसरी ओर विपक्ष के नेता जुआन गोइदो हैं। कहने को तो राष्ट्रपति मादुरो की सत्ता वैध है, क्योंकि पिछले साल मई में हुए चुनाव में उन्हें निर्वाचित किया गया था, लेकिन विपक्ष ने इस चुनाव का बहिष्कार किया था, और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने चुनाव में धांधली की शिकायत की थी। राष्ट्रपति मादुरो के आर्थिक कुप्रबंधन के चलते देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती चली गई। हालात यह है कि देश आठ हजार फीसद की महंगाई से जूझ रहा है। रोजमर्रा की चीजों के साथ दवाइयों के दाम आसमान छू रहे हैं। इस कारण देश के नागरिक हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरकर मादुरो की नीतियों का विरोध कर रहे हैं।
जाहिर है कि विपक्षी नेता जुआन गोइदो  ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए अपने को स्वयंभू अंतरिम राष्ट्रपति घोषित कर दिया है, लेकिन घरेलू सत्ता संघर्ष में अमेरिकी हस्तक्षेप ने वेनेजुएला के मसले पर दुनिया को दो खेमों में बांट दिया है। अमेरिका, ब्राजील, कोलंबिया, चिली, पेरू, इक्वाडोर, अज्रेटीना और पराग्वे जुआन गोइदो का समर्थन करते हुए उन्हें अंतरिम राष्ट्रपति के तौर पर मान्यता दे दी है। दूसरी ओर, रूस, चीन, क्यूबा, मैक्सिको और तुर्की राष्ट्रपति मादुरो का समर्थन कर रहे हैं। मादुरो ने अमेरिका पर तख्तापलट कराने का आरोप लगाते हुए उसके साथ राजनयिक संबंध तोड़ लिए हैं। दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने की अमेरिका की पुरानी नीति रही है। वह वेनेजुएला में अपनी कठपुतली सरकार बनवाना चाहता है। सभी जानते हैं कि अमेरिका तेल भंडार से संपन्न देशों में अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करके अपना आर्थिक हित साधना चाहता है।
वेनेजुएला का यह राजनीतिक संकट भारत के लिए भी महत्त्व रखता है क्योंकि नई दिल्ली अपनी जरूरतों के लिए यहां से कच्चे तेल का आयात करता है। किसी देश की आंतरिक स्थिति में दखल नहीं देना भारत की पुरानी नीति है। इसीलिए वह इस मामले में तटस्थ रहते हुए आपसी बातचीत के जरिए समस्या का समाधान निकालने के पक्ष में है। यूरोपीय संघ ने राष्ट्रपति मादुरो को चेतावनी देते हुए आठ दिनों में नया चुनाव कराने का फरमान जारी किया है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो संघ विपक्षी नेता गोइदो को राष्ट्रपति के रूप में मान्यता से सकता है। दरअसल, लैटिन अमेरिकी देशों को आपस में बैठकर इस राजनीतिक संकट का समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए ताकि यह क्षेत्र महाशक्तियों का अखाड़ा न बनने पाए या यहां उनका हस्तक्षेप न हो।

डॉ. दिलीप चौबे


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