मीडिया : कायर वीर
एक भगवा वेषधारी हिंदुत्ववादी कार्यकर्ता महात्मा गांधी का स्कीनप्रिंटेड चित्र लिए खड़ा है। दूसरी ओर उसी हिंदुत्ववादी संगठन की भगवा वेषधारी नेता हाथ में टॉय पिस्टल लेकर गांधी जी के चित्र को निशाना बनाकर ठांय ठांय करती दिखती है।
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आसपास कई भगवा वस्त्रधारी खड़े हैं। फिर एक और शूरवीर आता है, और उसी पिस्टल एक दो तीन बार ठांय ठांय करता है। कोई डेढ़ मिनट के इस वीडियो में भगवा वेषधारी कुछ शूरवीरों की वीरता का प्रदर्शन किया गया है। गांधी के चित्र के नीचे लाल खून का बड़ा-सा थक्का जमा दिखता है। पीछे कुछ अस्पष्ट नारे सुनाई पड़ते हैं।
गांधी के शहीदी दिवस यानी तीस जनवरी के दिन भगवा वेषधारी ये शूरवीर ‘अपना’ शौर्य दिवस मना रहे हैं। जिस घृणा ने गांधी को पहले मारा है, उसी को वे दोबारा सेलिब्रेट कर रहे हैं ताकि लोगों तक संदेश पहुंच जाए कि हम तीस जनवरी को दो मिनट का मौन रखने की जगह नाथूराम गोडसे का शौर्य दिवस मनाते हैं। मीडिया इसकी खबर देता है, लेकिन इसे कोई खास भाव नहीं देता। एकाध एंकर ही पूछता है कि ये क्या हो रहा है? एक नया हिंदुत्ववादी कहता है कि महात्मा गांधी पूज्य हैं। पर गांधी को ठांय ठांय करने वालों को धिक्कारता नहीं। एंकर पूछता है कि क्या इस घटिया कृत्य पर ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई होगी? प्रश्न का उत्तर लटका रह जाता है।
बहरहाल, यों तो बापू की डेढ़ सौवीं मनाई जा रही है, लेकिन इस बार गांधी कुछ अधिक अकेले दिखते हैं। कोई डेढ़ मिनट का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किया जाता है। मुख्यधारा का मीडिया उसे दिखाता है, लेकिन कोई इस घृण्य हरकत का सीधा विरोध नहीं करता। देश के सामने और बहुत-सी चीजें हैं। उन्नीस का चुनाव है। मंदिर का निर्माण है। बाबा लोग मंदिर की तिथि घोषित कर रहे हैं। संगम में डुबकियां हैं, और उन पर कटाक्ष हैं, लेकिन किसी के पास गांधी को फिर से ठांय ठांय को धिक्कारने के लिए अपेक्षित समय नहीं है। कौन टोके? कौन बोले? कितना बोले? मीडिया में ऐसे हिंसक और घृणास्पद सीन भरे रहते हैं। किस किस को याद कीजिए, किस किस को रोइए? मीडिया सोचता है कि ऐसे मुद्दों पर बहुत चरचा कराते हैं, तो ऐसे मुद्दों को बनाने वाले प्रचार पाते हैं। हीरो हो जाते हैं। बेहतर यही है कि इनको अधिक लिफ्ट न दी जाए। लेकिन यही करना था तो खबर भी क्यों दी? खबर बनाकर के ही तो ऐसे समूह जीते हैं, जिनको हमारा मीडिया ‘फ्रिंज समूह’ यानी ‘उन्मद समूह’ कहता है। ऐसे घृणाप्रिय ‘फ्रिंज समूह’ अकेले नहीं होते। उनके पीछे उनसे सहमत बहुत से लोग होते हैं। यही ऐसे सीन बनाने वालों को बल देते हैं। यह तो नकली पिस्टल से ठांय ठांय वाला ‘शौर्य’ था। कुछ पहले कई जगह असली शौर्य भी दिखा है। बुलंदशहर के पुलिस एक अफसर को ‘उन्मद भीड़’ ने घेर कर मारा। उसी पिस्टल से उसे ढेर किया गया। उसकी वीडियो भी बनाई। महीनों तक आरोपित आजाद रहे। फिर पकड़े गए। इसके बाद उन्मद समूह हितैषी बोलने लगे कि आरोपितों को हम पूरी कानूनी सलाह देंगे। मारे गए के हित के लिए कोई आगे आता नहीं दिखा। ‘अनालोचित’ हिंसा अपना खौफ इसी तरह बढ़ाती है।
ठांय ठांय का नाटक कर गांधी को फिर से मारना हत्या करने की क्रिया को आनंददायी बनाना है। हत्या में आंनद लेना एक नया तत्व है, और अहिंसा के प्रतीक की फिर से हत्या करने का अभिनय करना एक निंतात नये किस्म की हिंसा है। इसके कर्ता को शूर कहा जा रहा है। वीर कहा जा रहा है। लेकिन यह कायर की वीरता है। वह मरे को मारकर जश्न मनाती है। सच्ची वीरता को कीमत देनी पड़ती है जबकि कायर किस्म के वीरत्व को वीरता की एक वीडियो भर चाहिए। मीडिया इसकी खबर तो दे सकता लेकिन इसे धिक्कृत नहीं कर पाता। कारण यह है कि वह खुद धीरे-धीरे हिंसक भाषा का आदी हो चला है। उसकी खबरों में, उसकी चरचाओं में एक महीन किस्म की हिंसा और हार-जीत छिपी रहती है। एंकर स्वयं हल्लाबोल करते नजर आते हैं।
अपने मीडिया की अपनी भाषा एक असहिष्णु भाषा है। अगर कोई बात एंकर को पंसद नहीं तो उसका गला घोटा जा सकता है। जब एंकर अपने को ‘राष्ट्र’ या ‘देश’ बना लेते हैं तो उनका व्यवहार भी राष्ट्र या देश जैसा हो जाता है। वे अपने विपरीत कुछ नहीं सुनते। वे भले ‘वैष्णव जन तो तैणै ही कहिए’ गाएं, उनकी भाषा में हिंसा बढ़ी है। आज एक एंकर दूसरे को ‘सह’ नहीं सकता। एक चैनल दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर सकता। ऐसे में अपना मीडिया किसी की हिंसा को धिक्कारे तो किस मुंह से?
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