सामयिकी : आसान नहीं है रास्ता
लोक सभा चुनाव की घड़ियां करीब आ रही है। देश के सियासी गलियारे में उथल-पुथल भी तेज होती जा रही है। पक्ष हो या विपक्ष, सभी राजनीतिक दल अपने-अपने समीकरण साधने में लग गए हैं।
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यूपी में सब वैर भुलाकर सपा-बसपा एक हो गई हैं तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में एक अलग ही मोर्चा आकार लेने में लगा है। इन्हीं सबके बीच दिल्ली कांग्रेस में एक बार फिर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वापसी हुई है। गौरतलब है कि इस महीने की शुरु आत में दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने स्वास्थ्यगत कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। अब उनकी जगह शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गयी है।
गौरतलब है कि लगातार पंद्रह साल दिल्ली की गद्दी पर काबिज रहने वाली कांग्रेस को गत विधानसभा चुनाव में एक भी सीट पर जीत नहीं मिल सकी। लोक सभा चुनाव में भी उसे खाली हाथ रहना पड़ा था। 2017 में हुए दिल्ली नगर निगम चुनावों में भी कांग्रेस, भाजपा और आप के बाद तीसरे पायदान पर रही। जाहिर है कि दिल्ली में कांग्रेस की हालत एकदम बेजान हो चुकी है। ऐसे में यदि कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने लोक सभा चुनाव से पूर्व अस्सी वर्षीय शीला दीक्षित पर भरोसा जताया है, तो यह यों ही नहीं है। इसके पीछे दो बड़े कारण नजर आते हैं।
पहला कारण है कि दिल्ली में इस समय कांग्रेस के पास ऐसा और कोई चेहरा नहीं है, जिस पर वह लोक सभा चुनाव में संगठन को खड़ा करने के लिहाज से भरोसा कर सके। शीला दीक्षित के हटने के बाद अजय माकन को युवा नेतृत्व के भारी शोर के साथ दिल्ली की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। अजय माकन व्यक्तिगत तौर पर तो सक्रिय नजर आए, लेकिन उनकी सक्रियता का संगठन में कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखा। माकन के नेतृत्व में न तो दिल्ली में कांग्रेस को सांगठनिक मजबूती ही मिल सकी और न ही पार्टी को कोई राजनीति सफलता हासिल करने में ही कामयाबी मिली। जाहिर है, युवा नेतृत्व की इस विफलता के बाद अब पार्टी के पास वरिष्ठ और अनुभवी शीला दीक्षित की तरफ वापस लौटने से बेहतर कोई विकल्प नहीं था।
दूसरे कारण की बात करें तो वह है राज्य में शीला दीक्षित की सफलता का इतिहास। गौरतलब है कि इससे पूर्व 1998 में जब शीला दीक्षित ने दिल्ली कांग्रेस की जिम्मेदारी संभाली थी, उस समय भी पार्टी आज की तरह बेहद खराब दौर से गुजर रही थी। 1996 और 1998 में लोक सभा चुनावों सहित 1993 के दिल्ली विधानसभा तथा 1997 के नगर निगम चुनावों की लगातार पराजय से कांग्रेस हताशा में डूबी थी। ऐसे समय में दिल्ली में कांग्रेस को जीत दिलाकर शीला दीक्षित मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुई। इसके बाद 2003 और 2008 के विधानसभा चुनावों में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस का विजयरथ अबाध गति से चलता रहा। दिल्ली में ढांचागत विकास के मामले में शीला दीक्षित का कार्यकाल बेहतर माना जाता है। मेट्रो का शुभारम्भ इनकी सरकार के कार्यकाल में हुआ था, तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। आज बात-बेबात केंद्र सरकार से उलझते रहने वाले अरविन्द केजरीवाल के लिए यह एक नजीर की तरह है कि केंद्र में भाजपा की सरकार होने पर भी शीला दीक्षित का उससे कभी कोई विवाद या मतभेद नहीं हुआ और न ही उन्होंने अधिकार न होने का रोना ही रोया।
बहरहाल, अपने अंतिम कार्यकाल के आखिरी वर्षो में स्त्रियों की सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था को लेकर शीला सरकार आलोचनाओं के घेरे में रहीं। दिसम्बर 2012 में घटित निर्भया काण्ड ने चुनाव से ठीक पूर्व शीला दीक्षित के विरु द्ध व्यापक जनाक्रोश पैदा किया। चूंकि केंद्र में भी कांग्रेस की ही सरकार थी, इसलिए शीला दीक्षित अपने बचाव में यह तर्क भी नहीं दे सकती थीं कि दिल्ली पुलिस का नियंत्रण उनके पास नहीं है। इसके अलावा, केंद्र की संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार से उपजे जनाक्रोश का खमियाजा भी कुछ हद तक शीला दीक्षित को भुगतना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि 2013 के चुनाव में उनका विजयरथ रु क गया और कांग्रेस राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी बनी। इसके बाद आप के साथ कांग्रेस की गठबंधन की सरकार बनना और 49 दिन बाद गिर जाना आदि जो कुछ हुआ वह सर्वविदित इतिहास है। लेकिन आज जब एक बार फिर कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने शीला दीक्षित पर भरोसा दिखाते हुए उन्हें दिल्ली की जिम्मेदारी सौंपी है, तो उनके लिए आगे की राह बेहद चुनौतीपूर्ण रहने वाली है।
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