कोलकाता रैली : खिलाफ हवा से गुजरते हुए

Last Updated 23 Jan 2019 02:36:19 AM IST

कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में ममता बनर्जी के आह्वान पर मोदी के खिलाफ समूचे राष्ट्रीय विपक्ष की विशाल सभा से फिर एक बार 2019 के चुनाव के मद्देनजर जनमानस में चल रही व्यापक उथल-पुथल का साफ संकेत मिला।


कोलकाता रैली : खिलाफ हवा से गुजरते हुए

वोटों के शुद्ध गणित के आधार पर ही कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति का मोदी अध्याय अब लगभग अपने  समापन पर आ गया है। मोदी जी की सीबीआई की रस्सी के सांप ने वास्तव में राजनीतिक हलकों में कोई नया भ्रम या डर पैदा नहीं किया, बल्कि पूरे विपक्ष को इकट्ठा कर दिया। 2019 के चुनाव का जो समीकरण अब साफ दिखाई देता है वह है  मोदी+सीबीआई+ईडी+आईटी वनाम अन्य सभी सियासी दल (इनमें एनडीए के कुछ दल भी शामिल हैं)। अब यह कहने में कोई हिचक नहीं कि 2019 में मोदी का लौटना तार्किक असंभवता के स्तर तक, मसलन एक वृत्ताकार चौकोर को पाने के स्तर तक चला गया है।
चंद रोज पहले ही रामलीला मैदान में भाजपा के दस हजार कार्यकर्ताओं के बीच खुद मोदी ने यह कह कर कि ‘मोदी की आस में मत रहो कि वह आकर सब ठीक कर देगा’। यही स्वीकारा था कि मोदी अब अकेले विपक्ष के तूफान से भाजपा के जहाज को बचाने में समर्थ नहीं हैं। उन्होंने राहुल गांधी पर अनेक तोहमतें लगाई और फिर यह सवाल दागा कि क्या आप ऐसा प्रधान सेवक चाहेंगे? कल तक राहुल की भौंडी नकल उतारने वाले अब जैसे खुद राहुल को पीएम पद के लिये प्रस्तावित कर रहे थे! वे जब कई मृतात्माओं का आह्वान करते हुए कह रहे थे कि यदि पटेल प्रधानमंत्री होते..यदि 2004 में अटल बिहारी फिर आ जाते..तो भारत कुछ और होता, तब वे प्रकारांतर से ईश्वर से सिर्फ  यह प्रार्थना करते लग रहे थे कि काश, 2019 में मैं फिर से जीत जाता ! ‘टेलिग्राफ’ अखबार ने सुर्खी लगाई-‘मोदी ने मोदी को पीएम बनाने की शपथ ली’। पराजित मन का यह आर्तनाद सचमुच बहुत करु ण था! अभी मोदी उन्हें खींच रही भंवर से उबरने के लिए जिस प्रकार हाथ-पैर मार रहे हैं, उसमें डूबने से बचने के बजाय वे और तेजी से डूबने की दिशा में ही बढ़ रहे हैं। उनके पास भंवर के खत्म होने तक प्रयत्नहीन, हल्के रह कर टूटी नाव से ही चिपक कर ऊपर-ऊपर चक्कर काटते रहने का हुनर ही नहीं है। वे अभी भी सीबीआई, सीवीसी, ईडी,आईटी के डंडों से सबको देख लेने के करतबों में लगे हुए हैं।

सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को सुप्रीम कोर्ट ने अपने पद पर बहाल करके उनके खिलाफ सभी फर्जी आरोपों को खारिज कर दिया था। लेकिन साथ ही सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रक्रिया और न्याय के बीच संतुलन का खेल भी खेला और आलोक वर्मा के भविष्य की डोर सेलेक्शन कमेटी को सौंप दी। अपने गहराते संकट का अभास कर मोदी के लिये उचित था कि सुप्रीम कोर्ट की राय से सही सबक लेते हुए थोड़ा शांत हो जाते। लेकिन जस्टिस सीकरी के सहयोग से उन्होंने आलोक वर्मा को हटाने का जो काम किया उस पर सीवीसी की रिपोर्ट की जांच करने वाले जस्टिस एके पटनायक तक कह रहे हैं कि आलोक वर्मा के साथ न्याय नहीं हुआ, सेलेक्शन कमेटी ने हड़बड़ी में,अर्थात् मोदी के दबाव में निर्णय लिया। इसी बात को पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने भी कहा है कि आलोक वर्मा को प्राकृतिक न्याय के अधिकार से वंचित किया गया है। राफेल मामले पर मोदी जी के मुंह से एक शब्द नहीं निकलता है। राहुल ने इस विषय में सरकार की परीक्षा के लिये सिर्फ  दो सवाल पेश किये हैं-पहला,अनिल अंबानी को किसने ठेका दिलाया? दूसरा, क्या रक्षा मंत्रालय ने मोदी के किये सौदे पर आपत्ति की थी?  किसी में हिम्मत नहीं कि वे इन सवालों का सीधा जवाब दें। ऊपर से निर्मला सीतारमण की यह अनोखी उक्ति-बोफोर्स में कमीशनखोरी कांग्रेस को ले डूबी थी और राफेल मोदी की डूबती नौका को बचायेगा!
चुनावी रणनीति के लिहाज से निर्धनों के लिये आनन-फानन में लाया गया आरक्षण विधेयक भी एक और आत्महंता कदम साबित होगा। निर्धनों सवर्णो को 10 प्रतिशत आरक्षण का झुनझुना लगता है; जैसे चुनावी मौसम के तनावों से बचने के लिये भाजपा के लोगों के खेलने के लिये तैयार किया गया है। भारत के 95 प्रतिशत परिवारों की सालाना आमदनी 8 लाख रु पये से कम है। इसके अलावा, घर के क्षेत्रफल के मामले में भी 90 प्रतिशत परिवारों के पास आरक्षण विधेयक में तय सीमा से छोटे घर हैं। तब सवाल रह जाता है कि निर्धन कौन नहीं? कोटे का मतलब क्या है जब सिर्फ  5 प्रतिशत परिवारों को ही इसके बाहर रखा गया है? कुल मिला कर इस विधेयक के बाद भारत ‘निर्धन नागरिकों’ का देश कहलाने लगेगा। कहां ये चले थे, इस देश को समृद्ध और विगुरु बनाने, और जाते-जाते इसे ‘निर्धनों का देश घोषित’ कर गये! जहां तक इसके चुनावी प्रभाव का सवाल है, इसने सभी अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ों के बीच मोदी और आरएसएस की छवि को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। जो लोग भी इस आरक्षण के शिगूफे पर हांक रहे हैं कि इसका 2019 के चुनाव पर भारी असर पड़ेगा, वे पेशेवर गपोड़ी हैं। वे सचमुच जनता को महामूर्ख समझते हैं।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हाल के चुनावों में भाजपा के मतों में क्रमश: 12,16 और 16 प्रतिशत की गिरावट हुई। यूपी के सारे उपचुनाव बताते हैं कि वहां भी उसके मतों में 12 प्रतिशत से अधिक की गिरावट होगी। अर्थात् भाजपा को किसी हाल में 30 प्रतिशत से ज्यादा मत नहीं मिलेंगे। सपा-बसपा के कुल मिला कर 40 प्रतिशत वोट पक्के हैं। मतलब यूपी में भाजपा को एक-एक सीट का लाला पड़ सकता है। मोदी जी के प्रस्थान के लिये इतना ही काफी है। विपक्ष की कोलकाता रैली ने इसी प्रक्रिया के अखिल भारतीय स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। बहरहाल, पूंजीवादी जनतंत्र एक वर्ग का अन्य वर्गों पर जितना भी अबाध और स्वेच्छाचारी शासन क्यों न हो, यह जीवन का कोई रूढ़िगत रूप कतई नहीं है। यह गोमाता की सेवा और मंदिर-मस्जिद के लिये मर-मिटने वाले जुनूनी वीरों तथा पुराण कथाओं में धूनी रमा कर आधुनिक विज्ञान को धत्ता बताने वालों का शासन नहीं होता है। मार्क्‍स के शब्दों में यह अपने मूल अर्थ में ‘पूंजीवादी समाज में क्रांति का सामाजिक रूप मात्र होता है।..(इसमें) स्वत: प्रवहमान तत्वों का निरंतर परिवर्तन और अंतर्विनिमय होता हैं,अंतिम बात यह है कि इसमें भौतिक उत्पादन जिसे नई दुनिया को अपना बनाना होता है, की प्रचंड, युवावस्था जैसी गति ऐसी है कि उसे पुराने प्रेत-जगत का उन्मूलन करने का न तो समय है और न अवसर।’
(लेखक के निजी विचार हैं)

अरुण माहेश्वरी


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