वित्तीय भार : हर्ज नहीं कर्ज से

Last Updated 22 Jan 2019 03:06:35 AM IST

कुछ खबरें भ्रामक होती हैं। कुछ खबरें फेक होती हैं और कुछ खबरें समझने में आसान नहीं होतीं।


वित्तीय भार : हर्ज नहीं कर्ज से

आर्थिक विषयों से सम्बंधित खबरें उस श्रेणी की होती हैं, जिन्हें समझना आम जनमानस के लिए आसान नहीं होता।  इन तीनों तरह की खबरों का उपयोग राजनैतिक रूप से किया जाता है। इसी तरह की एक खबर आयी कि नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में ऋण देयताएं 50 प्रतिशत बढ़ गई हैं। बिना मूलभूत बात को समझे इस खबर का प्रभाव ऐसा है मानो कोई बहुत नेगेटिव बात हो गई हो। सच्चाई कुछ और है। इस बात को सरलता से समझा जाना चाहिए कि जब कोई भी व्यक्ति जब किसी प्रकार का भी लोन लेता है तो उसे डिपाजिट करने के लिए या उसकी एफडीआर बनाने के लिए नहीं लेता। ऋण किसी कारण से लिया जाता है-किसी निवेश हेतु या किसी आकस्मिक खर्चे से निपटने के लिए। यहां यह समझना भी जरूरी है कि कर्ज चाहे जिस कारण से लिया जाए मगर वह तभी लिया जाता है, जब उसको चुकाने की पर्याप्त क्षमता हो। कौन कितना ऋण ले सकता है, यह उसकी मजबूती पर निर्भर करता है। कर्ज की रकम को दो तरह से देखा जाना जरूरी है। एक उसका मकसद और दूसरा, उसको चुकाने की हैसियत।

इसी परिप्रेक्ष्य में हमें उस खबर को भी देखना चाहिए जिसके अनुसार मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी ऋण 55 लाख करोड़ से बढ़ कर 81 लाख करोड़ रुपये हो गया है। यह वृद्धि लगभग 50 प्रतिशत है।  जिस रिपोर्ट में  इस वृद्धि को दिखाया गया है, उसी में यह भी कहा गया है कि देयताओं के बढ़ने का कारण राजकोषीय घाटे को मार्किट से लोन ले कर कण्ट्रोल करने का प्रयास मात्र  है।  राजकोषीय घाटा नवम्बर तक अपने लक्ष्य का लगभग 115 प्रतिशत था। इसका टारगेट 6.24 लाख करोड़ रुपये था, जो कि नवम्बर तक 7.17 लाख करोड़  है। इसका काफी बड़ा कारण रुपये की कमजोरी एवं क्रूड का बढ़ता दाम भी है एवं जीएसटी के कलेक्शन में अपेक्षा अनुसार स्थिरता की कमी।मगर हमें यह ध्यान रखना होगा कि क्रूड के दामों में कमी नवम्बर से आनी शुरू हुई है और उसका असर आगे के आंकड़ों में दृष्टिगोचर होगा। इसके अलावा, हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि वि-अर्थव्यवस्था ट्रेड वॉर के मध्य में है। स्थिति असामान्य है।
ऋण में वृद्धि हर उस व्यवसाय में होती है, जो विकासोन्मुख होता है। विकास हेतु जोखिम लिया जाना भी आवश्यक होता है और जोखिम प्रबंधन एक महत्त्वपूर्ण विषय हो जाता है।  मूलभूत सुविधाओं में निवेश करके उससे होने वाले लाभ को प्राप्त करना सरकार का एक महत्त्वपूर्ण  लक्ष्य है। यहां समझना होगा कि निवेश वर्तमान में एवं उसका लाभ भविष्य में प्राप्त होता है। इसी दूरी को पाटने के लिए ऋण की आवश्यकता होती है। ऋण देयताओं में वृद्धि विकास का द्योतक है, दिवालियेपन का नहीं। बैंक भी मूलभूत सेक्टर है, इसके लिये पूंजी का इंतज़ाम सरकार के उन लक्ष्यों में से एक है, जिसके कारण सरकार का उधार बढ़ा है। उधार की मात्रा जरूर बढ़ी है मगर इसमें चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि सरकार को पूरा अधिकार है कि वह अपने घाटे को कण्ट्रोल में रखने के लिए मार्किट से उधार ले, जब तक कि उसकी भुगतान  क्षमता का ह्रास न हो। कर्ज-भुगतान के जितने भी मानदंड हैं,वह देश में इस समय काफी आरामदायक स्थिति में हैं।
इस समय लोक सभा के आम चुनाव नजदीक है और अंतरिम बजट प्रस्तुत होना है। वित्तमंत्री के सामने कई चुनौतियां हैं। सबसे प्रमुख चुनौती कृषि उत्पाद क्षेत्र में कीमतों की कमी का मामला है। किसानों को अपने उत्पादों के उचित दाम नहीं मिल पा रहे हैं। इस सेक्टर को काफी सहायता की आवश्यकता है। इस कार्य में बैंकों का सहयोग काफी जरूरी है। इधर, बैंकों ने अपने परिचालन एवं अपने लाभ को बढ़ाने के लिए सरकार से कैश रिज़र्व अनुपात को खत्म अथवा कम करने की मांग की है। कॉरपोरेट सेक्टर भी रेट कट की मांग कर रहा है। कुछ का मानना है कि 50 आधारभूत बिंदु तक रेट कम किया जाए ताकि क्रेडिट प्रवाह बढ़ाया जा सके।
ऐसी स्थिति में जिस ऋण की वृद्धि को लेकर चिंता जताई जा रही है, उसका और बढ़ना तय है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है। अमेरिका में  डोनाल्ड ट्रम्प जब अपना चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने अपने देश के सरकारी ऋण को आठ वर्षो में शून्य करने का वादा किया था। मगर वहां सरकारी ऋण देयता कम होने की बजाय बढ़ी है। इसके बावजूद अमेरिका आज भी मजबूत स्थिति में है।  उसकी मुद्रा की ताकत बढ़ी है। अमेरिका में रेट वृद्धि का चक्र उसकी अर्थव्यवस्था की तेज़ी को इंगित कर रहा है। कई इकनोमिक थ्योरी न घाटे को गलत मानती हैं और न बढ़े हुए ऋण को; क्योंकि उनके अनुसार खर्च किया जाना समाज की गुणवत्ता के लिए आवश्यक है। इसके अनुसार जो भी राजकोषीय घाटा है वह प्राइवेट सेक्टर में संग्रहीत रहता है। और वह एक तरह से जोखिम प्रबंधन भी है। इस तरह से एक नई सोच जनम ले रही है और वह सही भी है। वह सोच है कि जब तक पैसा समाज के विकास में खर्च किया जाए; कर्ज लेने में हर्ज नहीं है। इसलिए कि सरकार के पास करेंसी छापने का हक हमेशा सुरक्षित रहता है।
भारत में राजकोषीय घाटा  एवं  ऋण देयताएं किसी युद्ध के खर्चे अथवा अन्य अनुपयोगी कार्यों के लिए नहीं, बल्कि बैंकों को को पूंजी, गरीब किसानों की ऋण माफ़ी, स्वास्थ्य स्कीम, मूलभूत सुविधाओं के विकास, स्वच्छता अभियान, रोजगार एवं लघु उद्योग के विकास पर खर्च हो रही हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सरकार किसी ऐसी बड़ी स्कीम की घोषणा करे जिसमें एक से दो लाख करोड़ रुपये और भी खर्च हों। इस बढ़ी हुई ऋण देयता का पैसा यदि गरीब किसानों के कल्याण में एवं विकास-कार्यों में खर्च हो तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। जब भी हम किसी राजमार्ग पर टोल टैक्स देते हैं तो हमें बुरा महसूस नहीं होता क्योंकि अच्छी सड़कों के चलते हमारा काफी समय और ईधन बचता है। व्यापार में भी लाभ होता है। ऐसे में क्या हम सोच पाते हैं कि वह टोल टैक्स केवल मात्र ऋण की अदायगी एवं रख-रखाव का खर्च है; जिसे लेकर उसको बनाया गया। ऐसा ऋण भविष्य में चुक जाता है और राजमार्ग देश की तरक्की में योगदान करता रहता है। इसी तरह हमें ऋण देयताओं के परिमाण की बजाय उस मद की ओर ध्यान देना चाहिए, जहां वह खर्च हुआ। इस संदर्भ में वर्तमान सरकार की मंशा एवं इस बढ़े हुए ऋण का असर नेगेटिव न होकर पॉजिटिव ही मानना होगा।

अनिल उपाध्याय


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