परेड ग्राउंड : खिलाड़ी तय, खेल बाकी

Last Updated 21 Jan 2019 12:21:21 AM IST

ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। कोलकाता के ऐतिहासिक परेड ग्रांउड में यदि वह 23 दलों के नेताओं को एक मंच पर लाने में सफल हुई तो इसे उनकी तात्कालिक उपलब्धि अवश्य मानी जाएगी।


परेड ग्राउंड : खिलाड़ी तय, खेल बाकी

ममता को यह श्रेय तो जाएगा कि लंबे समय से नरेन्द्र मोदी और भाजपा विरोधी विपक्षी एकता की कोशिशों को उन्होंने ऐसा मंच प्रदान किया जिसका संदेश देश भर में गया है। उतने नेता एक साथ इकट्ठे हों और उनको सुनने के लिए सामने कई लाख जनता तो यह राष्ट्रव्यापी आकषर्ण और महत्त्व का कार्यकम बनता है। इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया को उसे लाइव दिखाना ही था। जो नेता मंच पर आए उनमें से ज्यादातर का अपने-अपने प्रदेशों में जनाधार है और वे सब कम या ज्यादा मात्रा में चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इसलिए उस एकत्रीकरण को भारतीय राजनीति के लिए महत्त्वहीन कहकर खारिज करने वाले दुराग्रहपूर्ण एकपक्षीय आकलन कर रहे हैं। इतने नेता एक मंच से केंद्र सरकार के विरुद्ध आग उगलें तो इसका कोई संदेश जाएगा ही।

यह बात सही है कि इसका आकलन करते समय हम केवल जो नेता वहां गए उन्हीं तक सीमित नहीं रह सकते, जो नहीं गए वह भी बड़े कारक हैं और उनका विचार किए बिना हम इसके संभावित राजनीतिक परिणामों का आकलन नहीं कर सकते। उसमें दो नाम सबसे बड़े हैं, राहुल गांधी और मायावती। छह महीना पहले रैली की तिथि निश्चित हुई। इसलिए यह तो नहीं माना जा सकता कि उनके पास दूसरी व्यस्ताएं थीं। इसका सीधा अर्थ यही निकाला जा रहा है कि ममता के समानांतर प्रधानमंत्री के संभावित दावेदार नहीं आए। प्रश्न यह भी उठेगा कि वामपंथी दल मोदी विरोधी विपक्ष के अभियान के भागीदार हैं या नहीं? ममता सरकार को लोकतंत्र का गला घोंटने वाली नेता केवल भाजपा या संघ परिवार के घटक ही नहीं कह रहे, वामपंथी दलों की भी यही भाषा है। तो एक मुख्यमंत्री, जिसके राज्य में विपक्षी दलों के लिए स्वतंत्र रूप से राजनीतिक गतिविधियां चलाने की स्थिति तक नहीं हो उसे बदलाव के अभियान का प्रमुख नेता मान लेना सबके गले नहीं उतर सकता। परेड ग्राउंड के मंच से वह अपने भाषण में कह रही थीं कि मैं सांप्रदायिकता फैलाने वाले कार्यक्रम की अनुमति नहीं दूंगी। एक पार्टी, जो केन्द्र की सरकार चला रही है, जिसकी अकेले सबसे ज्यादा राज्यों में सरकारें हैं, उसको आप सांप्रदायिक कहकर राजनीतिक अभियान चलाने से रोकें, इसका समर्थन केवल दुराग्रह और घृणा से भरे हुए लोग और नेता ही कर सकते हैं। मंच पर उपस्थित नेताओं में से भी सभी ममता के इस रवैये से सहमत नहीं होंगे। लेकिन मोदी विरोध की राजनीति करनी है, इसलिए स्वीकार्य हो तो समर्थन करो और अस्वीकार्य हो तो चुप रहो।
इतने बड़े राजनीतिक आयोजन की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वहां से देश के लिए कोई वैकल्पिक विचार सामने नहीं आया। ऐसा लगा नहीं कि उतने बड़े आयोजन के लिए बोलने की तैयारी करके नेतागण पहुंचे थे। वही लोकतंत्र का दमन, वही संस्थाओं की मौत, राफेल, सांप्रदायिकता, ईवीएम, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय..। जब आप मोदी और अमित शाह को लोकतंत्र का हत्यारा कहते हैं तो पश्चिम बंगाल में कुछ लोग तो होंगे जिनके मन में प्रश्न उठेगा कि क्या इन नेताओं को ममता का आचरण नहीं दिखाई देता? अरविन्द केजरीवाल मोदी और शाह को हिटलर बता रहे थे तो उनके साथ कम कर चुके उन पूर्व साथियों की क्या प्रतिक्रिया हो रही होगी जिनका उपयोग करके उन्होंने बेरहमी से बाहर जाने को मजबूर किया? फारूक अब्दुल्ला जब भारतीयता, लोकतांत्रिकता की बात कर रहे थे, ईवीएम को चोर मशीन कह रहे थे तो जिनको जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक इतिहास की ज्ञान है, वह अपना सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। उसी ईवीएम में केवल सात प्रतिशत मतदान में बहुमत से निर्वाचित नेता मशीन को चोर कहे तो इसे वर्तमान राजनीति की विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे? हम भारतीयों की याददाश्त कई बार कमजोर दिखती है। अटलबिहारी वाजपेयी की उसी मंच से गुणगान करने वाले भाजपा के असंतुष्ट भूल गए कि ममता ने क्या-क्या आरोप लगाकर उनकी सरकार से बाहर गई थीं। भाजपा और खुद यशवंत सिन्हा के खिलाफ उन्होंने क्या नहीं कहा। वाजपेयी सरकार पर 1999 के करगिल युद्ध के दौरान सैनिकों के शवों के लिए खरीदे गए ताबूत और कफन में घोटाले के आरोप लगाए गए, रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस का लंबा बहिष्कार हुआ और वाजपेयी को मजबूर होकर उनका त्यागपत्र लेना पड़ा। विरोधियों का जो रवैया आज मोदी सरकार के प्रति है, लगभग वही वाजपेयी व उनकी सरकार के प्रति भी था।
इन परिप्रेक्ष्यों में विचार करें तो परेड ग्राउंड में देश के बड़े नेताओं का जमावड़ा अनेक प्रश्न खड़ा करता है। वास्तव में भारतीय राजनीति की त्रासदी है कि यहां विरोध के लिए तो विरोध होता है, सत्ता के लिए विरोध होता है, लेकिन वैकल्पिक शासन व राजनीति की रूपरेखा रखने की सामथ्र्य विपक्ष नहीं दिखा पाता। सत्ता बदलाव के संदर्भ में हमारे सामने राष्ट्रीय स्तर पर या तो 1977 में वैकल्पिक राजनीति और शासन का कोई खाका आया था या फिर उसके बाद भाजपा ने ही देश के सामने अपना एजेंडा रखा। हम उनसे असहमत, सहमत हो सकते हैं। किंतु उसके अलावा, शासन बदलाव का वैकल्पिक एजेंडा तो हमारे सामने आया भी नहीं। जो नेता मंच पर आए उनमें से कोई ऐसा था भी नहीं, जिनसे हम ऐसी उम्मीद करें। यह दुर्भाग्य है कि मतदाता के नाते हमारी दृष्टि पार्टयिों और नेताओं के विरोध और समर्थन तक सीमित हो गई है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि आगामी आम चुनाव के लिए परेड ग्राउंड सभा का कोई महत्त्व नहीं है। इसका सबसे बड़ा संदेश ममता बनर्जी ने बिना घोषित किए बंगाल के मतदाताओं को दिया कि विपक्षी नेताओं के बीच उनका बड़ा कद है। आम चुनाव में इसका लाभ उनको मिल सकता है। दूसरे, चुनाव पूर्व बड़ा गठबधन तो नहीं होगा लेकिन इस जमावड़े का परिणाम चुनाव बाद की परिस्थितियों में दिख सकता है। चुनाव बाद इनके साथ आने में कोई बाधा नहीं है। यदि राजग को बहुमत नहीं आया तो वे एक साथ आकर संयुक्त मोर्चा जैसी सरकार बना सकते हैं। यदि राजग को बहुमत आया तो भी ये संगठित विपक्ष के रूप में सरकार की नाक में दम करते रहेंगे।

अवधेश कुमार


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