परमाणु हथियार : समझौते से पीछे हटते मुल्क
हाल के दशकों में विश्व में बहुत खतरनाक व विनाशकारी हथियारों पर खर्च तेजी से बढ़ा है। संयुक्त राज्य अमेरिका इस दौड़ में कहीं आगे चाहे हो पर रूस व चीन उसे प्रतिस्पर्धा अवश्य दे रहे हैं।
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इस स्थिति में विनाशकारी हथियारों की होड़ व उसके वास्तविक उपयोग की संभावनाओं को कम करने वाले समझौतों की संभावना पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। यह गहरी चिंता का विषय है कि ऐसे समझौतों से पीछे हटा जा रहा है या उन्हें त्यागा जा रहा है।
संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस में 1987 में आईएनएफ संधि हुई थी। यह भूमि-आधारित ऐसे क्रूज व बैलिस्टिक मिसाइलों पर रोक लगाती है, जिनका दायरा 300 से 3400 मील है। इसे परमाणु युद्ध की संभावनाओं को कम करने की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है। पर कुछ समय से संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस एक-दूसरे पर इस समझौते के उल्लंघन के आरोप लगाने लगे। अब तो यह समझौता समाप्त ही हो चुका है। यूएस व कनाडा के अध्ययनों के संस्थान के विशेषज्ञ सर्गी रोगोव ने कहा है- आईएनएफ को छोड़ने से हथियार नियंत्रण का पूरा ढांचा चरमरा कर ढह सकता है। एक अन्य विशेषज्ञ लिव रिस्टेन के अनुसार, इस तरह तो बिना रोक-टोक की हथियारों की दौड़ के लिए दरवाजे खुल जाएंगे। इससे पहले वर्ष 2002 में जार्ज बुश के राष्ट्रपति काल में संयुक्त राज्य अमेरिका ने बैलिस्टिक मिसाइल विरोधी समझौते से अपने को अलग कर लिया था। परमाणु हथियार नियंत्रण की एक अन्य महत्त्वपूर्ण संधि है-स्टार्ट (स्ट्रैटिजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी)। इस समझौते की अवधि वर्ष 2021 तक है। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने घोषणा की है कि उनके देश की ओर से इस ट्रीटी का नवीनीकरण वर्ष 2021 के बाद नहीं किया जाएगा।
इस समझौते के अंतर्गत माना गया था कि हमले के लिए तैयार रखे गए परमाणु हथियारों को यह दो देश 1550 से आगे नहीं बढ़ने देंगे। इस समझौते से पीछे हटने की एक व्याख्या यह है कि इससे भी अधिक परमाणु हथियार हमले के लिए तैयार स्थिति में रखे जाएंगे। यह एक बहुत चिंताजनक स्थिति है। इससे पहले ओबामा के राष्ट्रपति काल में संयुक्त राज्य अमेरिका में परमाणु हथियारों को अपग्रेड करने व उनका और आधुनिकीकरण करने का 1.6 ट्रिलियन डालर का कार्यक्रम स्वीकृत हो चुका है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने 20 दिसम्बर 2018 को कहा है कि जिस तरह से परमाणु हथियार समझौते टूट रहे हैं, उस स्थिति में परमाणु युद्ध में धरती के तबाह होने की संभावना भी हमारे सामने है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण समझौता है काम्प्रीहैंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी। यह समझौता वर्ष 1996 में हुआ। इसके उल्लंघन के कुछ तोड़ पहले भी निकाले गए थे। अब यह समझौता भी अतिरिक्त दबाव में है। कुछ नये देशों में भी परमाणु हथियारों का प्रसार हो सकता है। इनमें ईरान, सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया व जापान जैसे देशों की चर्चा समय-समय पर होती रही है। इस कारण परमाणु अप्रसार संधि भी दबाव में आएगी। यदि परमाणु हथियारों के नियंत्रण के पहले से किए गए समझौते दबाव में आ रहे हैं तो भविष्य में रोबोट हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए समझौते करने की संभावना भी कम होती है।
परमाणु हथियारों के नियंत्रण के कुछ समझौते पहले संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच ही होते थे। अब संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस के साथ चीन को भी नये समझौतों में शामिल करना जरूरी है। सभी महाविनाशक हथियारों के असरदार नियंत्रण के लिए अब विश्व-शांति के आंदोलन को मजबूत करना बहुत जरूरी हो गया है। दूसरी ओर हथियार समझौतों के संदर्भ में एक अच्छी खबर भी है। जहां महाविनाशक हथियारों के संदर्भ में दुनिया पीछे जा रही है, वहां अनेक जन-संगठनों के प्रयासों से कुछ विशेष तरह के छोटे हथियारों के व्यापार में विश्व स्तर पर कमी लाने में कुछ उल्लेखनीय सफलताएं भी प्राप्त हुई हैं। पर महाविनाशक हथियारों पर रोक लगाना तो और भी जरूरी है और इसमें विश्व पिछड़ रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के 5 स्थाई सदस्यों को बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विश्व शांति के प्रति विशेष जिम्मेदारी का परिचय देंगे। पर कड़वी सच्चाई तो यह है कि यह पांच देश अमेरिका, रूस, चीन, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस विश्व के सबसे बड़े हथियार निर्यातक हैं। हाल में जारी आंकड़ों के अनुसार इन पांचों देशों ने मिलकर 88 प्रतिशत हथियार निर्यात किए। अब जरूरत इस बात की है कि महाविनाशक हथियारों के साथ जो बड़े स्वार्थ जुड़ गए हैं, उनके असर से मुक्त होकर इन हथियारों को नियंत्रित करने के लिए जरूरी समझौते किए जाएं।
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