तीन तलाक : संयम से काम लें मुस्लिम

Last Updated 01 Jan 2019 12:29:51 AM IST

यद्यपि तीन तलाक बिल लोक सभा में पास हो गया है परन्तु मुस्लिम समाज में इस विषय को लेकर विवाद अभी भी नहीं थमा है।


तीन तलाक : संयम से काम लें मुस्लिम

इसी के चलते इस बिल को लेकर मुसलमान दो वगरे में विभाजित हो  गए हैं। पहला वर्ग उन मुस्लिम बुद्विजीवियों तथा सुशिक्षित और जागरूक महिलाओं का है, जो तीन तलाक के मुद्दे पर खुलकर अपनी बात रख रहा है, जबकि दूसरा वर्ग उन धर्मभीरू मुसलमानों का है, जो तीन तलाक संबंधी बिल को शरीयत में सरकार का अनुचित हस्तक्षेप करार दे रहा है। अलबत्ता, यह और बात है कि मुस्लिम मसलकों (उपसंप्रदायों) के बीच एक ही बैठक में अर्थात एक साथ तीन तलाक देने के मामले पर मतभेद हैं। 
एक तरफ हनफी मसलक के अनुयायी हैं, जो एक साथ तीन तलाक देने की प्रथा सही मानते हैं, और कहते हैं कि यह शरीयत का ही अंग है। यहां ध्यान दिलाना आवश्यक है कि अहलेहदीस और शिया मसलकों में एक साथ तीन तलाक देने का प्रावधान नहीं है, बल्कि इन मसलकों के अनुयायी कुरान पाक के हवाले से यह बात कहते हैं कि तीन तलाक एक एक महीने के अन्तराल से तीन तुहर (मासिक धर्मो के बाद) में दी जाए और यह कि खुदा और रसूल (स0) को तलाक पसंद नहीं है। इसलिए तलाक सोच-समझ कर तभी दिया जाए जब पति और पत्नी का एक साथ रहना लगभग असंभव हो जाए। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत में एक साथ तीन तलाक को सही मानने वाले मसलक के अनुयायी संख्या में अधिक हैं। इसलिए अधिकांश मुस्लिम महिलाओं के सिर पर एक साथ तीन तलाक की तलवार जीवन भर तनी रहती है। इसी कारण जागरूक महिलाओं ने तीन तलाक दिए जाने को मुद्दा बना दिया है।

यदि तीन तलाक संबंधी बिल राज्य सभा में मंजूर हो गया तो पत्नी की ओर से शिकायत दर्ज कराने पर दण्डाधिकारी को पति और पत्नी के बीच समझौता कराने या पति को तीन वर्ष की सजा सुनाने या जमानत मंजूर करने का अधिकार होगा। हालांकि एक साथ तीन तलाक के मुद्दे पर सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों राजनीति कर रहे हैं परन्तु भारतीय मुसलमानों को किसी भी पार्टी का किसी सूरत मोहरा नहीं बनना चाहिए। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी तलाक बिदअत के चलन को खत्म कराने के लिए ढंग से प्रयास नहीं कर रहा है, बल्कि बिल का विरोध कर रहा है। यह कहते हुए कि यह हस्तक्षेप शरीयत में दखल देने के सरीखा है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और धर्मभीरू मुसलमानों, दोनों का आरोप है कि यह बिल मुस्लिम पतियों से जेलों को भरने की साजिश और शरीयत पर कुठाराघात है। परन्तु उनके इन आरोपों में दम कम है। पहली बात तो यह है कि शरीयत में एक साथ तीन तलाक देना हर एक मुसलमान के लिए उसी तरह अनिर्वाय नहीं है, जिस तरह नमाज़ या रोज़ा। फिर यह भी बात है कि कि कुछ मसलकों जैसे अहले हदीस और शियों में एक साथ तीन तलाक़ देने का चलन नहीं है, बल्कि यह मसलक एक साथ तीन तलाक देने को इस्लाम और कुरान के विरुद्ध मानती है। यही कारण है कि पाकिस्तान, सऊदी अरब और ईरान जैसे अधिकांश देशों में एक साथ तीन तलाक देने पर पाबंदी है।
ऐसा लगता है कि भारत में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों की नजर में बस दुनिया में पक्के और सच्चे मुसलमान वही हैंंक्योंकि वह एक साथ तीन तलाक दे सकते हैं। यदि कुछ देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि एक साथ तीन तलाक विरोधी बिल शरीयत में दखल है, तो यह भी कहना होगा कि यह बिल किसी मुस्लिम महिला को इस बात के लिए मजबूर नहीं करता कि पति के जरिए एक साथ तीन तलाक दिए जाने पर वह अदालत में मुकदमा दर्ज कराए। यह पीड़ित महिला पर है कि वह अदालत का दरवाजा खटखटाती है, या नहीं। उसके लिए ऐसा करना कोई अनिवार्यता कतई नहीं है। यदि पति और पत्नी एक साथ तीन तलाक को शरीयत का अटूट अंग मान कर चुपचाप तलाक होना मंजूर कर लेते हैं और पत्नी शरीयत पर चलते हुए कोई मुकदमा दर्ज नहीं कराती है तो थाना या अदालत उस पर मुकदमा दर्ज कराने के लिए कभी नहीं कहेंगे।
जाहिर है  कि किए जा रहे प्रावधान पूरी तरह से प्रभावित व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करेंगे कि वह कानून की मदद लेता है, या नहीं। इसलिए एक साथ तीन तलाक को शरीयत मानने वाले मुस्लिम बहनों और भाइयों को अपनी बेटियों, बहनों, माओं और पत्नियों को समझाना चाहिए कि एक साथ तीन तलाक दिए जाने पर वह शरीयत का सम्मान करते हुए अदालत का दरवाजा न खटखटाएं और तलाक को अपनी किस्मत मानकर सब्र करें। हालांकि अपने को तरक्कीपसंद मानने वाले बहुतों को यह बात गले नहीं उतरेगी। उन्हें महसूस होगा कि पीड़ित महिला को हर हाल में ऐसे कड़े कानून का सहारा लेकर अपने साथ होने वाली ‘नाइंसाफी’ के खिलाफ आवाज जरूर उठानी चाहिए। कुछ मुसलमान यह सवाल भी करते हैं कि पति के जेल जाने के बाद पत्नी को खर्च कौन देगा तो इसका जवाब यह है कि तलाक के बाद तो पत्नी पति का घर छोड़ देती है, और पति उसका खर्च नहीं उठाता। इसलिए पति के जेल जाने पर तलाक पाने वाली औरत पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। हालांकि अनेक लोगों का यह जोरदार तर्क है कि पति द्वारा खर्च न उठाने की सूरत में पीड़िता का जीवन मुश्किल हो जाएगा। लेकिन यह बात पुरजोर कही जा सकती है कि बिल के कानून बन जाने के बाद एक पति अपनी पत्नी को एक साथ तीन तलाक देने पर सौ बार सोचेगा, परन्तु इस संबंध में कुछ मुस्लिम महिलाएं हिन्दू पत्नियों के बारे में यह सवाल जरूर करती हैंकि उन्हें हिन्दू पतियों के जरिये तलाक दिए बिना छोड़ देने के अपराध पर बिल क्यों नहीं लाया गया। सरकार को बस मुस्लिम महिलाओं की ही चिंता क्यों है?
बहरहाल, मुसलमानों को तीन तलाक बिल के बारे में सियासी दलों का मोहरा नहीं बनना चाहिए बल्कि उन्हें मुस्लिम मदरे को समझाना चाहिए कि वह एक तीन तलाक न दें और खुद को जेल जाने से बचाएं। यद्यपि एक साथ तीन तलाक देने की घटनाएं बहुत ही कम हैं, परन्तु अब ऐसी कोई घटना भविष्य में न हो, इसके लिए मुस्लिम समाज को जागरूक किया जाए। पर्सनल लॉ बोर्ड और उलमा यह एलान करें कि जुबानी तलाक को स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसलिए मुसलमान पति अपनी पत्नी को लिखित में दो गवाहों के दस्तखत के साथ तलाक दे। बहरहाल, मुसलमानों को तीन तलाक बिल के बारे में संयम से काम लेना चाहिए।

असद रजा


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