भारत-श्रीलंका संबंध : सही राह की ओर
जिस प्रकार भारत अपने वैदेशिक संबंधों का संचालन कर रहा है, उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्तमान भारतीय विदेश नीति (प्रागमैटिक एप्रोच) व्यावहारिक दृष्टिकोण पर जोर दे रहा है।
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संबंध चाहे अपने पड़ोसी देशों नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका के साथ हो या सुदूर के मुल्क। वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण अनुमानत: उसी पर आधारित है और यदि हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो विदेश नीति के संदर्भ में राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाकर सफल विदेश नीति का संचालन किया जाता रहा है। यदि हम भारत- श्रीलंका के संबंधों की समीक्षा करें तो हाल ही के वर्षो में चीन की श्रीलंका में बढ़ती सक्रियता ने भारतीय विदेश नीति का रुझान श्रीलंका के संदर्भ में प्रागमैटिक एप्रोच की तरफ बढ़ना दिखता है।
विदित हो कि भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंधों को बनाए रखने पर हमेशा से प्रतिबद्ध रहा है और जब बात श्रीलंका के साथ संबंधों की हो तो इसको बेहतर बनाने के लिए तो न केवल सामरिक, आर्थिक, राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक कूटनीति पर भी बल प्रदान कर रहा है। यदि दोनों देशों के मध्य रिश्तों की समीक्षा करें तो पाते हैं कि समय-समय पर कुछ राजनीतिक और कूटनीतिक कारणों से दोनों देशों के मध्य रिश्तों में खटास भी आई है; चाहे वह भारतीय मछुआरों का मुद्दा हो या तमिल का। इसी संदर्भ में, वर्तमान में भारतीय सरकार ‘सबका साथ सबका विकास’ न केवल देश के भीतर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसी सोच के साथ अपने वैदेशिक संबंधों के संचालन पर प्रतिबद्ध है। दोनों देशों के बीच रिश्तों की प्रगाढ़ता न केवल व्यापार, निवेश, रक्षा क्षेत्र और शिक्षा-संस्कृति के क्षेत्र में है बल्कि उससे आगे बढ़कर रहा है।
इसका उदहारण अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा भारतीय आवास परियोजना के तहत श्रीलंका में भवनों का आवंटन किया जाना है। विदित हो कि तमिल मुद्दा एक प्रमुख मानवीय चुनौती के रूप में सामने आया है, जिसमें लगभग 3,00,000 तमिल लोगें को आंतारिक रूप से विस्थापित करके कैंपों में रखा गया था। भारतीय सरकार द्वारा संतुलित कार्यक्रम के तहत तमिल लोगों को सामान्य जीवन प्रदान करने और उनको शीघ्र मदद करने का समर्थन दिया गया। परिणामस्वरूप विकासात्मक सहायता परियोजनाओं के क्रियान्वयन से हुई महत्त्वपूर्ण प्रगति से संबंध प्रगाढ़ हुए हैं। दोनों देशों के बीच राजनीतिक समझौते हमेशा से लोकतंत्र, अनेकता और मानवाधिकारों के सम्मान के अनुकूल रहा है। दोनों देशों के मध्य सामरिक मुद्दे, आतंकवाद, विकास परियोजनाएं और सबसे महत्त्वपूर्ण तमिल मसला प्रमुखता से रहा है। भारत और चीन श्रीलंका में अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए प्रयासरत हैं। यही नहीं बुद्धजीवियों द्वारा श्रीलंका में राजनीतिक अस्थिरता का कारण महाशक्तियों से जोड़कर देखा जा रहा है। जहां चीन अपने हितों को साधते हुए हिन्द महासागर तक अपनी प्रभावशाली पहुंच बनाने के लिए प्रयासरत है वहीं भारत का चीन के विस्तारवादी नीति से चिंतित होना स्वाभाविक है। बहरहाल, श्रीलंका के बनते राजनीतिक समीकरण पर दोनों महाशक्तियां अपने पैनी नजर रखे हैं। ये सर्वविदित है महिंद्रा राजपक्षे की सरकार से भारत को मुश्किलें हुई हैं, जैसे राजपक्षे सरकार द्वारा भारत के लिए सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह चीन को कई वर्षो की लीज पर दे दिया जाना।
राजपक्षे सरकार का तमिल विरोधी होना भारत के लिए अपने देशवासियों, जो श्रीलंका में रह रहे हैं सदैव प्रमुख मुद्दा रहा है। संबंधों में उतार चढ़ाव के साथ-साथ भारत का श्रीलंका के साथ प्रगाढ़ता बनी रहे, इसके लिए मोदी सरकार द्वारा कई प्रयास भी किए जा रहे हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि श्रीलंका के साथ सांस्कृतिक संबंध बहुत ही विशेष रहा है। इसी संदर्भ में भारतीय उच्चायोग ने 21 जून 2015 को आयकॉनिक समुद्री स्थल गाले फेस ग्रीन में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया। दोनों देशों के राजनेताओं की यात्रा वहां के नागरिकों के लिए नई आशा और उम्मीद को बढ़ाता है। यही नहीं श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे की बीते दिनों भारत यात्रा भी भारत के साथ संतुलित संबंध को दर्शाता है। अन्य छोटे देश चीन की विस्तारवादी नीति को रोकने के लिए भारत को शक्तिशाली देश के रूप में देख रहे हैं। परिणामस्वरूप भारत के साथ अपने वैदेशिक संबंधों को भरोसेमंद रिश्ते के रूप में चाहते हैं। दूसरी तरफ श्रीलंका में बनते इस राजनीतिक समीकरण में भारत सदैव चाहेगा कि वहां जो भी सरकार बने उसकी पक्षधर रहे जिससे भारत अपने संबंधों को प्रगाढ़ बनाये रखने में सफल रहे।
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