नसीरूद्दीन शाह प्रकरण : इतनी भी चिंता की बात नहीं

Last Updated 24 Dec 2018 05:29:04 AM IST

फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के बयान पर मचा बावेला स्वाभाविक है। यह सोशल मीडिया के ज्वार का दौर है। पूरा फेसबुक-ट्विटर शाह से भरा हुआ है।


नसीरूद्दीन शाह प्रकरण : इतनी भी चिंता की बात नहीं

नसीरुद्दीन ने भी अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का ही उपयोग किया और उसे वायरल कराने की कोशिश की। यूट्यूब पर इसे सुनने वालों की संख्या उनके सारे वीडियो को पार कर गया है।
नसीरुद्दीन शाह भले गुमनाम न हों, लेकिन काफी समय से चर्चा में नहीं थे। अब की स्थिति देख लीजिए। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने नसीरु द्दीन शाह की अपने भाषण में इसकी चर्चा करते हुए मोहम्मद अली जिन्ना के विचारों से तुलना कर दी। वे कह रहे हैं कि जिन्ना साहब ने इसलिए पाकिस्तान की मांग की और लड़ाई लड़ के अलग देश बनाया क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई के बाद मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनकर जीना होगा, जो उन्हें स्वीकार नहीं है और आज मोदी के शासनकाल में वही हो रहा है। नसीरु द्दीन को तय करना है कि क्या वे इमरान खान की इस व्याख्या से सहमत हैं? उन्होंने अभी तक इसका प्रतिवाद नहीं किया है। इसका क्या अर्थ लगाया जाए? कश्मीर केंद्रित आतंकवादियों और उनको प्रश्रय देने वालों के बीच उनके वीडियो सुनाने की खबरे हैं। इसे कुछ लोग मानवाधिकार संगठनों को भी भेज रहे हैं और इस्लामिक सम्मेलन संगठन या ओआईसी में भी इसे लाने की कोशिशें हो रही हैं। पता नहीं इस बयान का कहां-कहां किस रूप में भारत के खिलाफ उपयोग होगा? यही पहलू चिंतित करता है कि जो देश के सेलिब्रिटी हैं, उनको बयान देते समय कितना सतर्क रहना चाहिए? किंतु भारत में ऐसे तथाकथित बड़े लोगों और सेलिब्रिटी की संख्या बढ़ गई है, जिनके लिए पता नहीं देश की इज्जत और छवि से बड़ा क्या है?

यह स्वीकारना होगा कि नसीरुद्दीन ने जो कहा, उससे भारी संख्या में भारतीयों की भावनाओं को धक्का लगा है। वे ऐसा नहीं बोलते तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भारत की निंदा करने का अवसर नहीं मिलता, न भारत विरोधियों को उसे जगह-जगह उपयोग करने का हथियार हाथ लगता। नसीरुद्दीन कह रहे हैं कि मुझे समझ में नहीं आता कि मैंने ऐसा क्या कह दिया, जिससे इतना बावेला मचा है? वे कह रहे हैं कि जिस मुल्क से मैं प्यार करता हूं, जो मेरा मुल्क है उसके हालात पर चिंता प्रकट करना मेरा अधिकार है। निस्संदेह, आपको इसका अधिकार है। किंतु सर्वसाधारण से आपकी जिम्मेवारी ज्यादा है। जब आप कहते हैं कि मुझे फिक्र होती है अपने बच्चों के बारे में कि यदि वे बाहर निकले और उनसे पूछ लिया कि तुम हिन्दू हो कि मुसलमान तो वे क्या जवाब देंगे तो इसका संदेश यह निकलता है कि भारत में सड़क चलते लोगों से धर्म पूछकर उनके साथ हिंसा होती है। वे कह रहे हैं कि हालात सुधरने का तो मुझे कोई आसार नहीं दिखता। भारत में ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं है। जाहिर है, उन्होंने किसी और इरादे से सोच-समझकर ऐसा सांप्रदायिक बयान दिया है, जिसकी निंदा करनी ही होगी। उन्होंने अपने बयान के लिए बुलंदशहर की हिंसा को आधार बनाया है। बुलंदशहर की हिंसा उत्तर प्रदेश प्रशासन की विफलता थी। हालांकि हिन्दू मुसलमानों के बीच के एक बड़े सांप्रदायिक हिंसा की साजिश भी विफल हुई।
नसीरु द्दीन ने उनकी आलोचना नहीं की जिनने गायों को काटकर उनके सिर और चमड़े आदि ठीक सड़क के किनारे ईख की खेतों में रखे थे। एक ओर कटे गायों के अवशेष, दूसरी ओर नवजवान की मौत के बाद वहां क्या स्थिति पैदा हुई होगी, इसको समझे बगैर कोई बात करने का अर्थ ही है कि आप किसी दुराग्रह से भरे हैं। यह ठीक है कि हिन्दू भी अब आक्रोशित प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगे हैं। किंतु इसका कारण लंबे समय तक जगह-जगह अल्पसंख्यकों द्वारा मजहबी अतिवादिता का व्यवहार और शासन द्वारा उनका संरक्षण और प्रोत्साहन रहा है। इस मूल पहलू की अनदेखी कर कोई भी एकपक्षीय प्रतिक्रिया दुराग्रहपूर्ण होगी। जैसा नसीरुद्दीन ने कहा है वह स्थिति भारत में न थी न हो सकती है। हमारे यहां कानून का शासन है और इसको जो भी तोड़ने की कोशिश करेगा तो उसे प्रावधानों के अनुसार परिणाम भुंगतना पड़ेगा। कुछ दुखद घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर और सांप्रदायिक रंग देकर पेश किया गया लेकिन जब जांच हुई तो उसके कारण अलग निकले।
इमरान खान अपने गिरेबान में झांके। इसी वर्ष अप्रैल में मानवाधिकार की रिपोर्ट में पाकिस्तान के बारे में जो कहा गया, उससे उनका सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि विचार, विवेक और धर्म की आजादी को लगातर दबाया गया, नफरत और कट्टरता को बढ़ाया गया व सहनशीलता और भी कम हुई। सरकार अल्पसंख्यकों पर जुल्म के मसले से निपटने में अप्रभावी रही। आयोग ने कहा कि ईसाई, अहमदिया, हजारा, हिन्दू और सिख जैसे धार्मिंक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई और वे सभी हमले की चपेट में आ रहे हैं। पाकिस्तान की स्वतंत्रता के वक्त अल्पसंख्यकों की आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा थी, जबकि 1998 की जनगणना के मुताबिक यह संख्या घटकर अब तीन प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा है। चरमपंथी पाकिस्तान के लिए विशिष्ट इस्लामिक पहचान बनाने पर अमादा हैं और ऐसा लगता है कि उन्हें पूरी छूट दी गई है। सिंध में हिन्दू असहज हालात में रहने को मजबूर हैं। लड़कियों को अगवा कर लिया जाता है, उनमें से अधिकतर नाबालिग होती हैं। उनको जबरन इस्लाम में धर्मारित किया जाता है।
भारत में तो हम ऐसी स्थिति की दु:स्वप्नों में भी कल्पना नहीं कर सकते। हमारे देश में तो जिन मुसलमानों की आबादी 1951 की जनगणना में 8 प्रतिशत से कम थी वह 15 प्रतिशत के आसपास है। नसीर या उनके जैसे तथाकथित प्रगतिशील सेक्युलर लोग पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के पक्ष में कभी आवाज नहीं उठाते। नसीरुद्दीन को इस देश ने सब कुछ दिया। उनकी फिल्म देखते समय हमने नहीं सोचा कि वह मुसलमान हैं। उन्हें पद्मभूषण तक से नवाजा गया। इसके बावजूद यदि उन्हें अपने बच्चों को लेकर इस देश में फिक्र है तो यही कहना होगा कि आप इस महान देश के प्रति कृतघ्न हैं। क्या नसीरुद्दीन को अफसोस नहीं हुआ कि उनके बयान का किस तरह पाकिस्तान भारत को बदनाम करने में उपयोग कर रहा है, जेहादी आतंकवादी उपयोग कर रहे हैं?

अवधेश कुमार


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