दृष्टिकोण : ये क्या जगह है दोस्तो!
यकीनन यह दौर कुछ और ही है। इस हफ्ते की सुर्खियों पर जरा गौर कीजिए। सीबीआई के बाद आरबीआई खबरों में है।
दृष्टिकोण : ये क्या जगह है दोस्तो! |
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर संस्थागत स्वायत्तता की दुहाई दे रहे हैं, तो सरकार चेता रही है कि आरबीआई कानून के अनुच्छेद 7 पर अमल करके वह उसे अपना आदेश मानने पर बाध्य कर सकती है, जिस पर आज तक कभी अमल नहीं किया गया। फिर अहमदाबाद विश्वविद्यालय को एक छात्र संगठन ने चेताया कि महात्मा गांधी के जीवनीकार रामचंद्र गुहा जैसे ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘अर्बन नक्सल’ को न बुलाया जाए। गुहा ने खुद ही जाने से मना कर दिया। दूसरी तरफ, सरदार सरोवर में सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति का अनावरण प्रधानमंत्री मोदी करते हैं, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की ओर से खबर आती है कि अयोध्या के सरयू तट पर राम की उससे भी ऊंची मूर्ति स्थापित की जाएगी। स्थापित संस्थाओं के ढहने और दुनिया में सबसे ऊंची मूर्तियां स्थापित करने के मायने आखिर क्या हैं? मूर्तियां गढ़ना या मूर्तियां तोड़ना कोई नया शगल नहीं है, लेकिन असली सवाल ये हैं कि उसके जरिए क्या संदेश दिया जा रहा है? और कैसा जनमत तैयार करने की कोशिश की जा रही है?
सबसे चिंताजनक संस्थाओं का ढहना है क्योंकि उन्हीं की बुनियाद पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है। ये संस्थाएं भी कोई एक दिन में नहीं बनी हैं, और कई थपेड़े झेल चुकी हैं, या उथल-पुथल के दौर से गुजर चुकी हैं। यहां तक कि अपने लंबे अध्ययन-अध्यापन के बल पर बौद्धिक भी संस्था का रूप ले लेते हैं, इसलिए उन पर चोट भी एक मायने में संस्थाओं को ढहाने जैसा ही कहा जा सकता है। याद कीजिए, एकाध साल पहले जब रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के बारे में ऐसी ही बातें कही गई थीं, और कई किताबों को पाठय़क्रम से हटाने या बदलने की बात चली थी, तो एनडीए की पहली सरकार में मंत्री रह चुके अरुण शौरी ने कहा था, ‘किसी बड़े बुद्धिजीवी से असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन उसकी स्थापनाओं को काटने के लिए उससे अधिक गंभीर शोध और स्थापनाएं आगे लानी पड़ेंगी। सिर्फ गाल बजाकर यह नहीं किया जा सकता।’ गुहा से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्हें ‘राष्ट्रद्रोही’ बताना तो निहायत ही बुद्धि-विरोधी शगल है, और बोदे, भदेस बहुसंख्यकवाद की हिंसक प्रवृत्ति का परिचायक है।
खैर! क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर, पिछले चुनावों में अप्रत्याशित बड़ी जीत हासिल करके सत्ता में आई सरकार के आखिरी दौर में आते-आते सारी संस्थाएं ढहने क्यों लगी हैं? बड़े पदों पर कदाचार और भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के हाल तो जगजाहिर हैं, उसके साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), खुफिया ब्यूरो (आईबी) वगैरह भी कीचड़ में लथपथ हैं, जिनकी खबरों से अब देश अनजान नहीं रह गया है। इन संस्थाओं की साख पर सवाल खड़ा होने के पहले न्यायपालिका पर भी गहरे सवाल खड़े हो चुके हैं। हालांकि अब भी न्यायपालिका से ही उम्मीद है कि वह संस्थाओं की गिरावट पर अंकुश लगाए।
बहरहाल, अब जिस संस्था की स्वायत्तता पर सीधे सरकारकी ही टेढ़ी नजर है, वह आरबीआई हमारी अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। कथित तौर पर सरकार चाहती है कि आरबीआई अपने करीब 3 लाख करोड़ रुपये के संरक्षित कोष में कुछ ढील दे यानी उससे कुछ रकम आगे बढ़ाए ताकि बैंक उद्योगों को कर्ज मुहैया करा सकें और मंदी में घिरी अर्थव्यवस्था कम से कम 2019 के आम चुनावों के पहले कुछ सुखद एहसास दे सके। सरकारी दलील यह भी है कि छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज मुहैया होगा तो कारोबार-धंधों में कुछ चमक आएगी। लेकिन महंगाई पर अंकुश रखने के कारण रिजर्व बैंक के अधिकारी यह रियायत नहीं देना चाहते। उस ओर से दलील यह भी है कि जिस तरह बैंकों के डूबत खातों के कर्ज (जिन्हें सरकारी भाषा में गैर-निष्पादित संपत्तियां या एनपीए कहा जाता है, जो एक मायने में छलावा हैं) बढ़ते जा रहे हैं (मोटे अनुमान से करीब 13.5 लाख करोड़ रु.)। ऐसे में अगर और कर्ज देने की रियायत बरती गई तो उससे वैसा ही संकट पैदा हो सकता है, जैसा नब्बे के दौर में चंद्रशेखर सरकार के दौरान खड़ा हुआ था, और सोना गिरवी रखकर कर्ज लेना पड़ा था। यह भी कहा जा रहा है कि दिवालिया संहिता के तहत जब बैंकों ने नोटिस देने शुरू किए तो बड़े कर्जदारों में हड़कंप मच गया। खासकर पिछले दिनों मंजूरी पा चुकीं ठप पड़ीं निजी क्षेत्र की बिजली परियोजनाओं का मामला गंभीर होने लगा है। हाल में ऐसी ही एक परियोजना के लिए अडानी समूह ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से राहत हासिल की है। कहा यह भी जा रहा है कि ये कंपनियां दिवालिया संहिता की कार्रवाई से बचने के लिए बैंकों से और कर्ज की मांग कर रही हैं। हालात जो भी हों मगर भारतीय रिजर्व बैंक जब अंकुश लगाए रखने की बात कर रहा है, तो उसे यह मोहलत दी जानी चाहिए।
रिजर्व बैंक के उच्चाधिकारियों का कष्ट इतना ही नहीं है। पहली बार सरकार के नियुक्त किए स्वतंत्र डायरेक्टरों का दबाव भी बढ़ रहा है। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की वह टिप्पणी याद कीजिए कि ‘केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता से छेड़छाड़ की गई तो अर्थव्यवस्था जल उठेगी।’ यह भी अटकलें हवा में हैं कि दबाव इतना बढ़ गया है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं। यह भी अफवाह है कि उनके साथ दो डिप्टी गवर्नर भी इस्तीफा दे सकते हैं। हालांकि यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने अपने ऊपर यह दबाव बनने दिया क्योंकि वह अगर नोटबंदी के फैसले का विरोध कर देता तो शायद आज न अर्थव्यवस्था की इतनी बुरी हालत होती और न सरकार उस पर इस कदर हावी हो पाती। अब तो यह साबित हो चुका है कि नोटबंदी और हड़बड़ी में लागू किए गए जीएसटी, दोनों ने अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। लेकिन तब उर्जित पटेल नये-नये गवर्नर बनाए गए थे। विडंबना यह भी देखिए कि नोटबंदी का बचाव करने वाले गुरुमूर्ति को कथित तौर पर आरबीआई पर नया दबाव बनाने का किरदार बताया जाता है। सरकार ने उन्हें और तीन-चार दूसरों को आरबीआई में स्वतंत्र डायरेक्टर नियुक्त किया है।
जो भी हो, इस कदर संस्थाओं का चौपट होना बेहद गंभीर मामला है। सत्तारूढ़ खेमे से चेतावनियां दूसरी भी आ रही हैं, जो बेहद संगीन हैं, और देश की संवैधानिक व्यवस्था को तार-तार कर सकती हैं। संघ प्रमुख की ओर से यह बयान आया है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। लेकिन संवैधानिक मर्यादाओं और राजनैतिक दिक्कतों से सरकार के ऐसा न कर पाने का अंदेशा हुआ तो कहा गया कि अध्यादेश लाया जाए। अदालत में मामला लंबित होने से जब यह भी संभव नहीं लगा तो राज्य सभा में सरकार की ओर से मनोनीत एक सदस्य अब निजी विधेयक पेश करने की बात कर रहे हैं। फिर, यह भी अपर्याप्त लगा तो सरयू तट पर राम की मूर्ति स्थापित करने की बातें चल पड़ीं। मूर्ति स्थापित करने में कोई दिक्कत नहीं है, न ही निजी विधेयक लाने में। लेकिन असली सवाल यही है कि चुनाव के नजदीक आते ही यह सब क्यों किया जा रहा है? जाहिर है, यह ध्रुवीकरण तेज करने और लोगों का ध्यान सरकार के कामकाज से हटाने की ही फितरत हो सकती है, जिसे लोग नहीं समझ रहे होंगे, यह असंभव है। लेकिन असली चिंता संस्थाओं का विघटन है। संस्थाएं टूट गई तो उन्हें फिर खड़ा करना आसान नहीं हो पाएगा। योजना आयोग इसका अच्छा उदाहरण है।
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