बिहार : चेहरा नीतीश, भाजपा निश्चिंत

Last Updated 05 Nov 2018 12:15:55 AM IST

अपनी शर्तों पर राजनीति करने में माहिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गठबंधन के भीतर चल रहे राजनीतिक घमासान की पहली बाजी अपने हाथ कर ली है।


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

गठबंधन में बड़े भाई की स्वीकार्यता के साथ बिहार का चुनावी चेहरा बने नीतीश ने एक बार फिर भाजपा की निर्भरता को उजागर कर यह साबित कर दिया है कि फिलहाल राज्य में जो भी गठबंधन बनेगा उसका नेतृत्व जनता दल (यू) के हाथ ही रहेगा।
गत लोकसभा चुनाव में 38 सीटों पर चुनाव लड़ कर महज दो सीटों पर कब्जा जमाने वाली जनता दल (यू) के हाथ उस भाजपा ने कमान सौंपी है, जिसे वर्ष 2014 के लोक सभा चुनाव में खुद 30 सीटों पर लड़कर 22 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। 2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा की जीत के मायने चाहे जो हों, मगर भाजपा के रणनीतिकार आगामी लोक सभा चुनाव में जीत के लक्ष्य का भेदी अगर नीतीश को मानते हैं तो इसकी कई वजहें भी है। प्रदेश भाजपा द्वारा नेतृत्व का कोई सर्वमान्य चेहरा न गढ़ पाना पार्टी की  पहली ऐसी मजबूरी बनी, जहां नीतीश की निर्भरता सर्वथा भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी स्वीकार्य हुई।  दरअसल, एनडीए गठबंधन की राजनीति के लगभग डेढ़ दशक बाद भी प्रदेश भाजपा के नामचीन नेताओं का चेहरा जाति विशेष के चेहरे से मुक्त होता नजर नहीं आया। ऐसे में भाजपा नेतृत्व को  फिलहाल अपने  किसी भी चेहरे के पीछे भागने पर परम्परागत वोटों का बिखराव नजर आय। ऐसे में भाजपा के पास वोटों के बिखराव को रोकने का एकमात्र भरोसेमंद चेहरा नीतीश कुमार।

भाजपा नेतृत्व की दूसरी मजबूरी यह भी है कि नीतीश की पहचान एक ऐसे नेता के रूप में भी बनी है, जिनकी स्वीकार्यता विपक्ष की राजनीति कर रहे कुछ प्रमुख दलों के भीतर भी है। और इस जरूरत को भाजपा नेतृत्व के लिए समझना भी एक मजबूरी है। हालात ऐसे नहीं है कि वर्ष 2014 के हालात का सुख भाजपा उठा सके। ऐसे में देश की कुर्सी पर काबिज होने की राह में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए को कुछ सीटें कम भी मिले तो वह ‘जुगाड़’ टेक्नोलॉजी से पूरा किया जा सके। और यह गुण देश की नजरों में विकास पुरुष बने नीतीश कुमार में है। भाजपा नेतृत्व ने तो बखूबी नीतीश कुमार के इस गुण को राज्यसभा में बतौर उपसभापति के चुनाव के दौरान आजमा भी लिया है। भाजपा की सियासी फैसलों का नतीजा था कि जदयू के हरिवंश नारायण सिंह को उपसभापति चुनाव में उतारकर अपनी बाजी एनडीए के नाम कर दी। अपने इमेज के प्रति सजग रहने वाले नीतीश कुमार ने जिस तरह से  राजाराम मोहन राय के रास्तों पर चल कर एक नया और उत्साही चेहरा बिहार के भीतर विकसित किया है वहा इनके इर्द-गिर्द स्वीकार्यता बढ़ी है। मसला चाहे शराबबंदी का हो या फिर दहेज मुक्त शादी का। या फिर  बाल विवाह निषेध का ही। भाजपा नीतीश कुमार के इस नये चेहरे के पीछे चल कर गठबंधन की राजनीति को उसी तरह से दुरुस्त करना भी चाहती है, जिस तरह से अपने प्रारम्भिक काल में सत्ता में आते ही शिक्षा सुधार की ओर ध्यान देते साइकिल योजना, पोशाक योजना व छात्रवृत्ति योजना के जरिये एनडीए की राजनीति को मजबूत आधार देने का काम किया गया था। भाजपा के रणनीतिकारों की नजर गत लोक सभा चुनाव में अलग लड़ने वाले जदयू के प्रदर्शन भी टिकी है। तब एनडीए से अलग होने पर जदयू को लगभग 16 प्रतिशत वोट, भाजपा को 29.40 प्रतिशत मत मिले थे और लोजपा को 6.40 व रालोसपा को लगभग 3 प्रतिशत यानी एनडीए के खाते में लगभग 39 प्रतिशत वोट हासिल होते हैं। ऐसे में जदयू के 16 प्रतिशत मत प्रतिशत को जोड़ते हैं तो यह 55 प्रतिशत जा पहुंचता है। जाहिर है चुनावी दौड़ में हमेशा एक और एक ग्यारह नहीं होता मगर गठबंधन की मजबूती वोटों के बढ़ते प्रतिशत जरूर हासिल हो जाती है।
नीतीश को सामने रख कर भाजपा की नजर झारखंड व उत्तर प्रदेश चुनाव को थोड़ा आसान करना भी है। खास कर नीतीश की पकड़ झारखंड व उत्तर प्रदेश के सटे लोकसभा के साथ उन बार्डर क्षेत्रों से हैं, जहां की राजनीति में एक खास जाति का प्रभाव भी है। साथ ही झारखंड के ऐसे दलों से भी रिश्ता है जिनके संबंध फिलहाल भाजपा से ठीक नहीं है। ऐसे में भाजपा झारखंड व उत्तर प्रदेश के लोक सभा चुनाव में भी नीतीश के सामथ्र्य को भी आजमा कर एनडीए सीटों के क्राइसिस के दौरान प्रॅाब्लम शूटर के रूप में आजमाना चाहती है। एक अन्य मगर महत्त्वपूर्ण वजह इसी वर्ष पांच राज्यों में होने वाले चुनाव भी बन गए हैं। खास कर मध्यप्रदेश ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति बेहतर नहीं दिख रही है। इस कारण राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में सीटे कम भी आती हैं  तो उसकी भरपाई नीतीश के सहयोग से  अन्य राज्यों से की जा सके।

चंदन


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment