श्रीलंका संकट : भारत की चिंता का कारण

Last Updated 05 Nov 2018 12:19:03 AM IST

श्रीलंका का राजनीतिक संकट निश्चय ही चिंताजनक है। पिछले कुछ महीनों से राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना एवं प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था।


श्रीलंका का राजनीतिक संकट

सिरीसेना के राजनीतिक मोर्चे यूनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस (यूपीएफए) और विक्रमसिंघे की यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) और यूपीएफए के बीच मतभेद खुलकर सामने था। फरवरी में स्थानीय निकाय चुनावों को मीडिया ने सत्तासीन गठबंधन के लिए जनमत संग्रह कहा था। उसमें राजपक्षे की नई पार्टी ने जबरदस्त जीत हासिल की।
गठबंधन के दोनों सहयोगी इसके लिए एक-दूसरे को आरोपित करने लगे थे। सिरीसेना और विक्रमसिंघे के बीच सुरक्षा, आर्थिक नीतियों और सरकार के रोजमर्रा के प्रशासन को लेकर तो खींचतान चल ही रही थी। सिरीसेना ने यूएनपी पर उनकी और रक्षा मंत्रालय के पूर्व शीर्ष अधिकारी गोताभया राजपक्षे की हत्या की कथित साजिश को गंभीरता से नहीं लेने का आरोप लगाया। अचानक कृषि मंत्री और यूपीएफए के महासचिव महिंद्रा अमरवीरा ने कह दिया कि हमने गठबंधन सरकार से समर्थन वापस ले लिया है और फैसले से संसद को अगवत करा दिया गया है। किंतु सिरीसेना ने विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर जिस तरह पूर्व राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त किया उसकी संभावना किसी ने व्यक्त नहीं की थी। राजपक्षे और सिरीसेना के बीच जिस तरह छत्तीस के रिश्ते थे उसमें यह अकल्पनीय था। सिरीसेना राजपक्षे की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे। उनसे विद्रोह करके उन्होंने मोर्चा बनाया और राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें पराजित किया। प्रश्न है कि अब होगा क्या? 2015 में भारत के प्रयासों से विक्रमसिंघे एवं सिरीसेना के बीच गठबंधन हुआ।
विक्रमसिंघे की यूएनपी के समर्थन से सिरीसेना राष्ट्रपति चुनाव जीते। महेन्द्रा राजपक्षे लिट्टे को मटियामेट करके हीरो बनकर उभरे थे। यद्यपि भारत ने तमिल क्षेत्र के पुनर्निमाण एवं उजड़े हुए तमिलों के पुनर्वास में महत्त्वपूर्ण दायित्व हाथों में लिया जिसे आज तक पूरा किया जा रहा है। बावजूद राजपक्षे ने भारत विरोधी रवैया अपना लिया था। उन्होंने सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह चीन को कई वर्षो की लीज पर दे दिया। चीन को राजधानी कोलंबो के बंदरगाह को बनाने और चीनी पनडुब्बियों को श्रीलंका के बंदरगाह तक आने की अनुमति दे दी। चीन ने श्रीलंका को भारी कर्ज दिया और आज श्रीलंका चीन के कर्ज के जाल में फंसा हुआ है। इसमें भारत के पास एक ही विकल्प था कि किसी तरह ऐसी सरकार आए, जिसके साथ हमारा मित्रवत संबंध रहे। उसकी परिणति उस गठबंधन के रूप में हुई। श्रीलंका में फिर भारत विरोधी बयान और भाषण शुरू हो गए हैं। संकट आरंभ होने के कुछ ही दिनों पूर्व श्री लंका के बंदरगाह मंत्री महिंदा समरासिंघे ने बयान दिया कि वह भारत को पूर्वी कंटेनर टर्मिंनल नहीं सौपेंगे। उनका यह बयान वर्ष 2017 में हुए समझौते का उल्लंघन था। भारत इस पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जगह कूटनीतिक तरीके से बातचीत कर रहा था। भारत ने खतरे को भांपकर संकट रोकने की कोशिश भी की।
सिरीसेना और विक्रमसिंघे से न केवल हमारे राजनियक बल्कि राजनीतिक नेतृत्व भी संवाद कर रहा था। विक्रमसिंघे पिछले 18 अक्टूबर को नई दिल्ली आए थे वह कोई पूर्व निर्धारित दौरा नहीं था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी बातचीत हुई। विक्रमसिंघे की यात्रा के पहले सिरीसेना के हवाले से यह बयान सुर्खियां बनीं थी कि रॉ उनकी हत्या कराना चाहती है। बाद में उसका खंडन किया गया। अब उनका बयान है कि हत्या की साजिश को गंभीरता से न लेने के कारण ही विक्रमसिंघे को हटाना पड़ा है। इसका अर्थ क्या है? 30-31 अगस्त को नेपाल की राजधानी काठमांडू में बिमस्टेक की बैठक से परे सिरीसेना और मोदी की मुलाकात हुई थी। सितम्बर में राजपक्षे भी नई दिल्ली आए थे। उस समय खबर यह थी कि वह भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के बुलावे पर आए हैं। स्वामी ने बयान दिया था कि राजपक्षे राष्ट्रवादी हैं और चीन के संदर्भ में उनका विचार बदल गया है। नरेन्द्र मोदी ने मई 2017 में श्रीलंका यात्रा के दौरान राजपक्षे से भी मुलाकात की थी। यह सही कदम था। इसका मतलब हुआ कि भारत ने राजपक्षे से भी संपर्क बनाए रखा है।
विक्रमसिंघे ने अपनी बर्खास्तगी और संसद को 16 नवम्बर तक के लिए निलंबित करने को असंवैधानिक बताते हुए स्वीकार नहीं किया है। संसद के स्पीकर कारु  जयसूर्या खुलकर रानिल विक्रमसिंघे के पक्ष में आ गए हैं। उन्होंने कहा है कि अगर इसका संविधान के अंदर समाधान नहीं हुआ और सड़कों पर राजनीति उतरी तो खूनखराबा होगा। विक्रमसिंघे भी खूनखराबा की आशंका प्रकट कर रहे हैं। पेट्रोलियम मंत्री और पूर्व क्रिकेटर अर्जुन रणतुंगा की गाड़ी पर राजपक्षे के समर्थकों ने हमला कर दिया। इससे आने वाली तस्वीर का अनुमान लगाया जा सकता है। सदन में बहुमत के लिए 113 सांसद चाहिए। राजपक्षे और सिरीसेना की पार्टी को मिलाकर केवज 95 सीट हैं, जबकि विक्रमसिंघे की यूएनपी के पास 106 सीट है। इस तरह एक विकट राजनीतिक स्थिति है। वहां दो प्रधानमंत्री हैं। प्रश्न है कि अब भारत क्या करे? भारत ने वर्तमान राजनीतिक संकट पर सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि एक लोकतांत्रिक देश और करीबी पड़ोसी के तौर पर हम उससे लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान करने की उम्मीद करते हैं। उन्होंने कहा कि भारत दोस्ताना व्यवहार वाले श्रीलंका के लोगों को विकास कार्यों के लिए मदद देना जारी रखेगा। इस आश्वासन के बाद श्रीलंका के किसी बड़े नेता के लिए भारत के खिलाफ बयानबाजी कठिन हो गई है। किंतु भारत इससे आंखें नहीं चुरा सकता।
सिरीसेना ने 2015 से भारत समर्थक के रूप में अपनी शुरुआत की। चीन उससे नाराज भी हुआ। मोदी ने स्वयं दो बार श्रीलंका की यात्रा की। दोनों के विदेश मंत्रियों सहित कई मंत्रियों, अधिकारियों की यात्रा होतीं रहीं। परिणामस्वरूप सिरीसेना एकदम भारत विरोधी नहीं बन पाए किंतु वे विसनीय मित्र भी नहीं रहे थे। विक्रमसिंघे ने ऐसा कुछ नहीं किया। हमारे हित में यही है कि वहां अनुकूल सरकार रहे। जो भारत समर्थक पक्ष हैं, वे मदद चाहते हैं। अगर भारत उनके साथ खड़ा हुआ तो दूसरा पक्ष खुलकर विरोध में आ जाएगा। नहीं हुआ तो समर्थकों को निराशा होगी। बावजूद इसके सबसे विवेकशील रास्ता नजर बनाए रखने की ही है।

अवधेश कुमार


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