राजनीति : बिहार की सियासी संभावनाएं
पिंछले दिनों दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और जनतादल यूनाइटेड अध्यक्ष नीतीश कुमार की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस के साथ बिहार में 2019 के लोक सभा चुनाव का बिगुल बज चुका है।
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प्रेस कांफ्रेंस चुनाव केंद्रित थी। इसमें दोनों ने बराबर संख्या में सीटें लड़ने की घोषणा की। हालांकि ठीक-ठीक संख्या की घोषणा नहीं हुई लेकिन संभावना है कि संख्या सोलह-सोलह या सत्रह-सत्रह हो सकती है। पटना में बैठे उपेंद्र कुशवाहा की प्रतिक्रिया थी कि यह दस-दस या पंद्रह-पंद्रह भी हो सकती है। बिहार से लोक सभा की चालीस सीटें हैं।
जो हो इस प्रेस कांफ्रेंस के साथ विवाद भी शुरू हो गए हैं। प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद कुशवाहा और तेजस्वी यादव की मुलाकात होती है, और कुछ ही समय बाद कुशवाहा की प्रतिक्रिया भी आती है, जिससे पता चलता है कि वह नाराज हैं। रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान की प्रतिक्रिया भी ऐसी ही है, और यह स्वाभाविक है। 2014 के लोक सभा चुनाव के वक्त बिहार में जो एनडीए बना था, उसमें नीतीश नहीं थे। पासवान और कुशवाहा के एनडीए में शामिल होने से भाजपा को बिहार में लोक सभा की तीन चौथाई सीटें हासिल हुई थीं। शेष दलों, जिनमें राजद, कांग्रेस, जेडीयू और एनसीपी थे, को चालीस में से नौ सीटें ही मिल सकी थीं। नीतीश एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद जुलाई, 2016 में एनडीए में शामिल हुए। मुख्यमंत्री पद तो हासिल किया ही, बिहार एनडीए के अगुआ भी बन गए। स्वाभाविक है यह स्थिति पासवान और कुशवाहा को नागवार लगती है। पासवान तो दम साधे बैठे हैं, लेकिन कुशवाहा की सक्रियता और प्रतिक्रिया कभी-कभार दिखती है। लालू प्रसाद की पार्टी राजद भी उन्हें अपने साथ लाने को उत्सुक है। इसलिए कुल मिलाकर खबर बनती है कि अमित-नीतीश की प्रेस कांफ्रेंस ने बिहार एनडीए में नकारात्मक उथल-पुथल मचा दी है। चुनावी बिगुल बजते ही विवादों की शुरु आत भी हो गई है। प्रथम ग्रासे मच्छिका पात:। पहले ही कौर में मक्खी का गिरना। एनडीए के लिए शगुन ठीक नहीं है।
बिहार एनडीए का हालिया इतिहास दिलचस्प रहा है। 2014 के लोक सभा चुनावों में उसे जबरदस्त सफलता मिली थी। लोक सभा की सीटों को छोड़ हम ग्रासरूट पर विधानसभा क्षेत्रों तक प्रभाव को देखें तब 243 में 176 पर एनडीए को बढ़त थी। इसी बूते भाजपा प्रमुख अमित शाह ने एनडीए के लिए 2015 के विधानसभा चुनाव में अपने लिए 185 प्लस का लक्ष्य रखा था। तब नीतीश की पार्टी सिर्फ अठारह सीटों पर बढ़त हासिल कर सकी थी। लेकिन चुनाव के बाद हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश ने मुख्यमंत्री का पद त्याग किया। समाज के महादलित तबके से आने वाले जीतनराम मांझी को सीएम बनाया और राजनीति की नई संभावनाओं की तलाश में जुट गए। नीतीश ने अपने विरोधी लालू से राजनीतिक रिश्ता बनाया और 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद-जेडीयू और कांग्रेस की तिकड़ी बनी जिसे महागठबंधन कहा गया। महागठबंधन ने बिहार एनडीए को धूल चटा दी। इसे कुल 243 में से 178 सीटें मिलीं। यह उल्लेखनीय सफलता थी। लेकिन बीस महीने बाद ही नीतीश ने महागठबंधन को ध्वस्त करके भाजपा से हाथ मिला लिया और एनडीए फिर मजबूत हो गया।
तो प्रथम दृष्टया बिहार में एनडीए की मजबूती नीतीश के कारण है। नीतीश भी समझते हैं कि बैलेंसिंग फोर्स उनके पास है। वह महागठबंधन में जाते हैं, तो वह मजबूत और एनडीए में जाते हैं, तो यह मजबूत। इसमें कुछ हद तक भले ही सच्चाई हो पर यह पूरा सच नहीं है। सही है कि वोट के हिसाब से नीतीश तीसरी या चौथी ताकत हो सकते हैं, लेकिन उनके इधर या उधर होने से संतुलन बनता-बिगड़ता रहा है। 2015 के विधान सभा चुनाव में विभिन्न दलों को हासिल वोटों का अध्ययन हमें कुछ दिलचस्प नतीजे देता है। इस चुनाव में एनडीए को 34 प्रतिशत से कुछ अधिक मत मिले थे, महागठबंधन को 42 प्रतिशत से कुछ कम। कई कारणों से भाजपा की बिगड़ती स्थिति ने उसे झुकने के लिए मजबूर किया है । बिहार में अपनी स्थिति मजबूत कर उसने उत्तर भारत में अपनी स्थिति मजबूत करने का अहसास करना-कराना चाहा है। नये संभावित मित्रों के लिए उनका यह संदेश भी हो सकता है कि देखो, हम कितना उदार हैं, या हो सकते हैं।
लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह या नीतीश कुमार ने यदि यह मान लिया है कि खेल इतना आसान है, तो यह उनकी भारी भूल होगी। सवाल यह भी है कि जिस तरह नीतीश कुमार बैलेंसिंग फोर्स हैं, उस तरह दूसरे भी तो हो सकते हैं। यदि एनडीए बिखर जाता है, तब क्या नीतीश कुमार उसे वह सफलता दिला पाएंगे जिसकी आकांक्षा भाजपा आला कमान करता है? वह यदि यह सोचते हैं कि केवल वही सक्रिय हैं, तो वह गलत हैं। महागठबंधन भी अपने आपको लगातार दुरुस्त कर रहा है। वाम दलों से उसने अपना रिश्ता ठीक किया है, और संभावना है कि चुनावी तालमेल में वाम दल भी शामिल होंगे। पहले एनडीए में शामिल जीतनराम मांझी अब महागठबंधन के हिस्से हैं। यदि किसी कारण उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से खिसकते हैं, तो एनडीए का ले-दे कर बराबर हो जाएगा। नीतीश कुमार जितने वोटों का योग करेंगे, उतने वोट वहां से खिसक लेंगे। यही कारण है कि राजद नेता तेजस्वी यादव ने उपेंद्र फैक्टर पर जोर दिया है।
यह सही है कि फिलहाल पूरे उत्तर भारत में बिहार ही है, जहां एनडीए सबसे अधिक मजबूत है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव-मायावती के मेल के बाद भाजपा के लिए उम्मीदें कम हो जाती हैं। जहां तक उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्यों की बात है, तो वहां भी भाजपा मजबूत स्थिति में आज नहीं है। बिहार में उसकी हालत बिगड़ी तो केंद्र में भी उसका खेल बिगड़ना अवश्यंभावी है। इन चार राज्यों में एनडीए को फिलहाल 139 में 115 सीटें हासिल हैं। इनमें कोई बड़ी कमी होती है, तब के लिए इसकी भरपाई मुश्किल होगी।
बिहार में कुछ समय के लिए नीतीश कुमार खुश हो सकते हैं कि उन्होंने अपने आत्माभिमान की रक्षा कर ली। पिछले चुनाव में 22 सीटें जीतने वाली पार्टी आज केवल 2 सीटें जीतने वाली पार्टी के बराबर आकर खड़ी हुई है, तो इसका मतलब है कि भाजपा कमजोर हो चुकी है। कहा जाना है कि चुनावों में अधिक सीटें लड़ना महत्त्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि अधिक सीटें जीतना होता है। फिलहाल, बिहार प्रकरण से भाजपा की आतंरिक बेचैनी ही प्रकट होती दिखती है। इस बेचैनी को पढ़ने वाले पढ़ चुके हैं। भारत की जनता सब कुछ समझती है।
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