मीटू : सोशल मीडिया के निहितार्थ

Last Updated 31 Oct 2018 05:39:55 AM IST

दबी सी आवाज को एक सहारा चाहिए, डूबते को तिनके का सहारा काफी होता है। ऐसा ही एक सहारा आज की तारीख में सोशल मीडिया है।


मीटू : सोशल मीडिया के निहितार्थ

सोशल मीडिया ज्वालामुखी की तरह नजर आ रही है मीटू के रूप में। क्या बॉलीवुड, क्या मीडिया और क्या पॉलिटिक्स हर तरफ आज इसी के चर्चे हैं, एमजे अकबर से लेकर संस्कारी बाबू जी आलोक नाथ और अन्नू मलिक सहित कई बड़े नाम इसकी चपेट में आकर हैसियत गंवा चुके हैं। प्रख्यात लेखक चेतन भगत पर भी केस हुआ है।
मी टू की शुरु आत तनुश्री दत्ता द्वारा नाना पाटेकर पर आरोप लगाने से हुई थी। तनुश्री ने कहा था कि दस साल पहले हॉर्न ओके प्लीज के सेट पर पाटेकर ने उनका उत्पीड़न किया था, और इसका विरोध करने पर तनुश्री को अपना कॅरियर और देश छोड़ कर जाना पड़ा। हालांकि दस साल बाद इस मामले को उठाने पर लोगों की मिश्रित प्रतिक्रिया आई। कुछ इस बात के पक्ष में थे कि दस साल बाद ही सही गलत को सजा मिलनी चाहिए तो वहीं दूसरा पक्ष कह रहा है कि इतने समय बाद यह मामला उठाना सस्ती लोकप्रियता हासिल करना है। वस्तुस्थिति यह है कि मीटू को अच्छा समर्थन मिल रहा है। जो लोग हिचक या शर्म के कारण अपने साथ हुए बुरे बर्ताव को बताने से शर्माते थे, वो आज खुल कर बोल रहे हैं।

आज का समाज संबंधों और रिश्तों को लेकर परिपक्व हुआ है। महिला व पुरुष की मित्रता को सहजता से लिया जाता है। लेकिन समस्या तब उठ खड़ी होती है, जब रजामंदी के बिना या पल्रोभन के साथ रिश्ते बनाने की कोशिश होती है, और समाज के डर और शर्म से ऐसी बातें सामने आने से रह जाती हैं। मीटू एक ऐसी मुहीम है, जिसने ना सिर्फ  महिलाओं को साहस दिया है अपनी आवाज उठाने को बल्कि पुरु ष समाज को भी सोचने पर मजबूर किया है कि हर ना का मलतब ना ही होता है। मूलत: यह मुहिम है ऐसी घटनाओं को सामने लाने की, जिनमें जबरदस्ती किस करने की कोशिश की गई हो, दबोचने, सेक्स टॉक करने या गुप्तांग को छूने की कोशिश की गई हो यानी किसी भी किस्म की जबरदस्ती की गई हो। सोशल मीडिया ने इस अभियान को आगे बढ़ाने में महती भूमिका निभाई है। लेकिन इस अभियान के स्याह पक्ष भी सामने आने लगे हैं। किसी के साथ छेड़खानी हुई या उसे परेशान किया गया, इसे  साबित करना बहुत ही मुश्किल है। जहां एक तरफ मीटू जैसी घटना को सिद्ध करना मुश्किल है, वहीं मानहानि हुई है, यह सिद्ध करना आसान है क्योंकि ऐसी बातों के सारे सबूत सोशल मीडिया पर उपलब्ध हो जाएंगे। ऐसा नहीं है कि सिर्फ पुरु ष समाज ही मीटू अभियान में बतौर शिकारी दिख रहा है। महिलाएं भी मौके का फायदा उठाने की कोशिश कर रही हैं, मीटू के आरोपों में जहां महिला को सहानुभूति मिल जाती है, वहीं इससे जुड़े आरोप ऐसे नहीं हैं कि महिला के शील पर प्रश्न उठे। कुछ सुगबुगाहट ऐसी भी है कि लोग पैसे लेकर किसी पर भी आरोप लगाने को तैयार हैं। कानून भावनाओं  पर काम नहीं करता, उसे तथ्य-प्रमाण चाहिए होते हैं। मीटू अभियान के तहत जिस तरह के मसले सामने आ रहे हैं, उनमें प्रमाण पेश करना आसान नहीं है यानी कानूनन सजा न  हो पाए तो भी सामाजिक सजा या राजनीतिक सजा तो मिल ही सकती है लोगों को। उदाहरण के लिए एमजे अकबर का मंत्री पद गया। आलोक नाथ की सामाजिक प्रतिष्ठा चौपट हुई। अन्नू मलिक को एक म्यूजिक शो से बतौर जज हटाया गया। इस तरह से इन लोगों को कानून जब सजा देगा, तब देगा, या नहीं भी देगा, पर इन्हें इनके कार्यक्षेत्र और समाज में तो सजा मिल ही चुकी है।
लगातार धुआंधार फर्जी किस्म के मीटू कैंपेन चले तो कोई भी पुरु ष किसी महिला से उसकी सहमति के बाद भी किसी तरह की बात करने से झिझकेगा कि जाने इन सारी बातों का कब और क्या मतलब निकल आए या कहें कि समाज फिर से उस युग में चला जाएगा जहां स्त्री और पुरु ष का ना सिर्फ मिलना निषेध था, बल्कि कोशिश की जाती थी कि वो एक दूसरे के ख्यालों से भी दूर रहें। बाद के बवालों से दूर रहना है, तो किसी महिलाकर्मी को अपनी कंपनी में नौकरी ही ना दो। अपने संगठन में उसे जगह ही ना दो, इस तरह के परिणाम भी आ सकते हैं। मीटू कैंपेन सोशल मीडिया की सार्थकता का एक नमूना है पर यह सार्थकता बनी रहे, इसके लिए जरूरी है कि यह परिपक्व हाथ में आए। वरिष्ठ वकील और महिला अधिकार कार्यकर्ता मिल बैठकर विचार करें कि किस तरह कैंपेन को सार्थकता की ओर लेकर बढ़ा जाए। पीड़ित महिलाओं के हाथ में मीटू अभियान एक हथियार की तरह आया है। यह भोथरा नहीं होना चाहिए। सोशल मीडिया को कई अगंभीर कामों से भी जोड़कर  देखा जाता है। कैंपेन अगंभीरता के गड्ढे में पतित ना हो जाए, यह सुनिश्चित करना हरेक की जिम्मेदारी है।

रेशू वर्मा


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