विश्लेषण : बाइक रैली पर रोक जरूरी

Last Updated 30 Oct 2018 06:08:16 AM IST

हम अपने विरोध, उत्साह, खुशी को कैसे प्रदर्शित करें, यह एक सामाजिक उत्पादन हैं। ऐसा कोई भी सामाजिक उत्पादन नहीं है जो किसी खास विषय तक सिमट कर रह जाता हो।


विश्लेषण : बाइक रैली पर रोक जरूरी

देर सबेर उसका विस्तार विभिन्न विषयों के साथ दिखाई देता है। मसलन, बाइक रैली राजनीतिक कार्यक्रमों का ही हिस्सा नहीं है, बल्कि धार्मिंक कार्यक्रमों का भी हिस्सा हो गई है। यदि हम कहें कि पिछले बीसेक सालों में विरोध, उत्साह और उन्माद को व्यक्त करने के एक मिले-जुले जिस तरीके का सबसे ज्यादा प्रसार हुआ है, वह बाइक रैली है। एक तरह से कहें कि राजनीतिक, धार्मिंक संगठनों के बीच अपने कार्यक्रमों के लिए इस बात की होड़ होती है कि वह ज्यादा से ज्यादा मोटरसायकिलें जुटाएं। इसका ही नतीजा था कि 15 फरवरी, 2018 को हरियाणा के जींद में भारतीय जनता पार्टी ने एक लाख मोटरसायकिल जुटाने का कार्यक्रम बनाया। इसके पीछे मकसद बताया गया कि राज्य की राजनीति में नई हुंकार पैदा करने के लिए इतना बड़ा शक्ति का प्रदशर्न जरूरी है।

शक्ति प्रदशर्न और लोकतंत्र में विभिन्न तरह के राजनीतिक कार्यक्रमों को करने के बीच फर्क और उनके मकसद अगल-अलग दिखने लगे हैं। लोकतंत्र में कार्यक्रमों का अर्थ माना जाता है कि किसी संगठन के कार्यकर्ता अपने कार्यक्रमों के जरिए अपनी कतार को और लंबी करने के मकसद को पुरा करना चाहते हैं। लेकिन जब शक्ति प्रदशर्न का मकसद हो तो स्पष्ट है कि वे या तो लोगों के सामने या सत्ता के सामने अपनी ताकत भर को जाहिर करना चाहते हैं। उस ताकत में जोड़ने की भावना के बजाय दबाने की प्रतिक्रिया होती है। पिछले कुछेक वर्षो में जिस तरह से बाइक रैलियों की तादाद बढ़ी है, उनमें लोकतांत्रिक मुल्यों के विस्तार से उल्ट शक्ति प्रदशर्न का मकसद एक विचारधारा की तरह अपना विस्तार कर रहा है। हम इस पहलू पर विचार करें कि किसी भी तरह के प्रदशर्न और जुलूस में जो कुछ किया जाता है, उसकी गति लोगों के साथ जोड़ने के मकसद किस हद तक जुड़ी रही है। लोगों के बीच से पैदल निकलना और उन्हें अपनी आवाज में शामिल करने की एक निश्चित गति होती है। बाइक की रफ्तार सड़कों के किनारे खड़े लोगों को छू भी नहीं सकती। बाइक की रफ्तार और उसका शोर संवाद की भी कोई गुंजाइश नहीं बनाता है। दरअसल, आवाज और शोर में यही फर्क है। इस पहलू पर हम कभी विचार नहीं करते कि राजनीतिक और समाज सुधार के लिए लोगों को संगठित करने का जो कार्यक्रम किया जा रहा है,  उसका पर्यावरणीय उत्पाद किस तरह का है। वह वातावरण में भरोसे, लोगों को जोड़ने वाली लय, ताल और धुन और ऊर्जा का निर्माण कर रहा है,  या आक्रमकता का वातावरण तैयार कर रहा है।
बाइक यात्रा के दौरान उत्पादित होने वाला जहरीला धुआं किस तरह से समस्त वातावरण में घुलकर आम जिंदगी को मुश्किल बनाने में मददगार होता है यानी हर तरह के पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन करें तो यह समाज सुधार और राजनीतिक हालात में बदलाव के बजाय बुराइयों को बढ़ाने और राजनीतिक हालात में और कटुता पैदा करने वाली एक प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति लगता है।
ऊपर जिस रैली का हवाला दिया गया है, उससे जुड़े अध्ययन को ध्यान में रखें तो एक बाइक रैली प्रदुषण का एक पूरा ढांचा तैयार करते दिखाई देती है। पहला : एक किसान ने सोशल मीडिया पर वीडियो डालकर  रैली के लिए उसकी 3 एकड़ फसल कटवाने और तंग करने के आरोप लगाया; दूसरा : उस रैली के एक आयोजक ने बताया कि मोटरसाइकिलों के जत्थे के साथ एक एंबुलेंस भी चलेगी ताकि आपात स्थिति में उसका लाभ उठाया जा सके। तीसरा : जत्थे के साथ एक अन्य वाहन भी चलेगा जिसमें मोटरसाइकिल में पंचर लगाने का पूरी सुविधा होगी। यह तो पर्यावरण को खतरे में डालने वाले ढांचे के विभिन्न स्तरों की एक तस्वीर हमारे सामने पेश करता है। लेकिन उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात है कि बाइक रैलियां विभिन्न स्तरों पर बंटे लोगों के बीच फर्क को और गहरा करने में मददगार होती हैं। मसलन, उक्त रैली में लाख से ज्यादा मोटरसायकिल जुटाने के लिए योजना बनाई गई कि हर बूथ यानी मतदान केंद्र से 10 से 15 बाइकों का पंजीकरण किया जाएगा।  इसका अर्थ है कि उन्हें मतदान केंद्रों के एक ताकत समूह के रूप में स्थापित किया जा सकता है। जिनके पास बाइक  नहीं है, उन्हें रैली की योजना जोड़ती नहीं है, बल्कि एक झटके में मूकदशर्क में तब्दील कर देती है। बाइक रैली जैसी राजनीतिक प्रक्रिया फिर उसी तरह की  होड़ पैदा करती है, और उस होड़ में समाज का वह हिस्सा नीचे दबता चला जाता है, जो पहले से ही दबा-कुचला है।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में नई आर्थिक नीतियों ने हमारी समस्त राजनीतिक प्रक्रिया को बदल डाला है। इस प्रक्रिया ने सशक्तिकरण का एक भ्रम खड़ा करने में कामयाबी हासिल की है यानी वास्तविक स्तर पर सशक्तिकरण होना और सशक्तिकरण के भ्रम का शिकार होना, दो तरह की स्थितियों का निर्माण देखने को मिलता है। बाइक रैली के बहाने ही हम सशक्तिकरण के भ्रम का अध्ययन कर सकते हैं। मोटरसायकिल की सवारी, उसकी गति और उसका शोर एक सशक्तिकरण का भ्रम पैदा करते हैं। हम देख सकते हैं कि बाइक रैली के विषय क्या होते हैं। बाइक रैली राजनीतिक मकसदों से जुड़े धार्मिंक कार्यक्रम और मतदाताओं के बीच आक्रामक समूह तैयार करने के लिए अनुकूल दिखती है। उनकी वेशभूषा पर गौर करें कि वह सामान्य से भिन्न होती है, उसमें एक आक्रामकता मुखर होती है।
इस प्रश्न पर भी विचार करें कि मोटरसायकिल राजनीतिक-धार्मिंक कार्यक्रमों का हिस्सा बनने का यह समय किस तरह का है। पहली बात कि बाइक रैली भारत जैसे देशों में एक पुरुषवादी सांगठनिक पहल के रूप में सामने आती है। यदि अध्ययन किया जाए कि क्या विभिन्न स्तरों पर बंटे किसी समाज में जब वर्चस्व पर चोट लगती है, तो वर्चस्व रखने वाले वर्ग और उसकी हित-पोषक विचारधारा खुद को संगठित करने के नये-नये रूप अख्तियार करती है, और उसमें नई तकनीकी खोज से उनकी सबसे ज्यादा मदद हो जाती है। बाइक रैली एक आक्रामकता की संस्कृति में सहायक साबित हो रही है। इस पर तत्काल रोक लगानी चाहिए।

अनिल चमड़िया


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