मीडिया : लिंच कथाएं

Last Updated 25 Feb 2018 06:15:13 AM IST

पहले सीन में वह मैला-कुचैला युवा दूर खड़ा है. अगले सीन में वह कुछ लोगों के बीच खड़ा नजर आता है. सीन में तीन-चार चेहरे हैं, जिनके बीच वह ‘अपराधी’ की तरह खड़ा है.


मीडिया : लिंच कथाएं

यह एक ‘सैल्फी’ सीन है. एक ओर कई खाए-पीए मध्यवर्गीय लोग और उनके बीच एक गरीब, निरीह, भूखा केरल का आदिवासी. सोशल मीडिया से चैनलों में उतारा गया फुटेज बताता है कि वह भोजन चुरा रहा था कि पकड़ लिया गया और फिर उसे ‘घेर कर मार डाला’ गया यानी ‘लिंच’ कर दिया गया. इन सीनों को देख आपको कुछ ‘अरे अरे’ का भाव महसूस होता है कि कुछ चावलों के बदले क्या किसी की जान ली जाती है? आप उसे पुलिस को भी दे सकते थे? आप ‘संवेदना-शून्य’ नहीं हैं, तो ‘गिरते मानवीय मूल्यों’ और ‘बढ़ती घृणा’,‘खत्म होती सहनशीलता’ और ‘बढ़ते हुए क्रोध’ पर आपको अफसोस अवश्य होगा.
इसी सप्ताह की दूसरी ‘लिंच कथा’ असम में आठ सौ लोगों की भीड़ द्वारा थाने में घुस कर एक रेपिस्ट को ‘लिंच’ कर देने की है, जो खबर चैनलों ने प्रसारित की है. यह ‘लिंच कथा’, मानो, कहती है कि रेपिस्ट पर केस होता भी तो बरसों चलता. न्याय प्रक्रिया के विलंबों से आजिज आए लोगों ने ‘तुरंता न्याय’ कर दिया. ‘ढीली-ढाली और खर्चीली’ न्याय प्रणाली अगर न्याय नहीं देगी तो यही होगा. कहानी मानो यही कहती-सी लगती है. न्याय के विराट शून्य में हर ‘लिंच कथा’ अपने को सही ठहराने लगती है.

ये ‘नई लिंच’ कथाएं हैं, जो पिछले कई बरसों से मीडिया में आए दिन खबर बनती रहती हैं. ऐसी ‘लिंच कथाएं’ हमारा मीडिया हर रोज दिखाता है, जिनकी चालक शक्ति है सिर्फ ‘हिकारत’,‘घृणा’,‘क्रोध’ और ‘लिंचिंग’ यानी ‘हत्या’. उसका कोई दमदार प्रतिकार या प्रतिरोध नहीं नजर आता. न कोई कानून काम करता नजर आता है.
और व्यवस्था की यह कैसी विडंबना है कि एक ताकतवर माल्या, ललित मोदी, एक नीरव मोदी और एक चोकसी या एक कोठारी हजारों करोड़ रुपये लेकर या तो चंपत हो जाते हैं, या कभी-कभी पकड़े जाते हैं, लेकिन उनको कोई छू भी नहीं पाता जबकि हर गरीब कमजोर ‘अपराधी’ तुरंत लिंच कर दिया जाता है. ऐसी हर खबर न्यायप्रिय लोगों को एक प्रकार की ‘घृणा’ और ‘क्रोध’ से भरती रहती है, जो किसी उत्तेजित क्षण में किसी को भी ‘लिंच मॉब’ में तब्दील कर देती है.
करोड़ों दर्शक ऐसे ‘तुरंता न्याय’ को खबरों में आए दिन होते देखते हैं, और धीरे-धीरे ‘लिंच भाव’ को ही ‘सही’ मानने लगते हैं. लोग कहने लगते हैं: माना कि कानून हाथ में लिया, लेकिन क्या करते? कानून तो कुछ नहीं करता! तुरंता न्याय की अंधी मांग, भीड़ का लिंच मॉब में बदल जाना और फिर किसी निरीह कमजोर लेकिन ‘अप्रमाणित’अपराधी को सरेआम घेर कर मार दिया जाना, अब चलन-सा बन चला है. हम ऐसे सीन देखने के आदी हो चले हैं. एक आकलन से भारत में खबर चैनलों के पचास-साठ करोड़ दर्शक हैं. अगर इस संख्या के आधे भी ऐसे सीनों को देखते हों तो कल्पना करें तो यह हिंसक ‘लिंच भावना’ न जाने कितनों के ‘अवचेतन मन’ में समा जाती होगी? ‘भीड़ का फासिज्म’ ऐसे ही जन्म लेता है. ‘लिंच मॉब्स’ के नायक छोटे-छोटे हिटलर  बन जाते हैं. फिल्मों में तो वे हर एक्शन सीन में नजर आते  ही हैं.
‘मीडिया में जो दिखता है, लोग उसी की नकल करते हैं’ के नियम से अगर लिंच मॉब्स की घटनाएं बढ़ने लगी हैं, तो इसी ‘नकल नियम’  के कारण. भीड़ की हिंसा सबसे सुरक्षित हिंसा है. कानून जानने वाले बताते हैं कि लिंच करना सबसे ‘सुरक्षित अपराध’ है क्योंकि केस ‘भीड़’ (मॉब) पर होता है, और ‘भीड़’ का कोई एक चेहरा नहीं होता जिसे सजा दी जा सके. ‘लिंच मॉब’ एक ‘नई कल्चर’ है. ‘लिंच मॉब’ में एक पल में ‘कुछ बाहरी अनजान लोग’ होते हैं, और अगले पल में वे ‘जनता’ बना दिए जाते हैं, जिनके पीछे दल और अब तो सरकारें तक खड़ी हो जाती हैं.और अपने कई एंकर भी तो ‘तुरंता न्यायवादी’ हैं. उनकी ‘खबर प्रस्तुति’ की भाषा ही ‘लिंचवादी’ होती है. और सोशल मीडिया में भी तो ‘लिंच मॉब्स’ ही बैठी हैं. सो, ‘लिंच भावबोध’ मीडिया से प्रसारित का नया भावबोध है. 
ऐसे में अगर जरा-जरा सी बात पर लिंच मॉब्स किसी को मार डालती हैं, तो आश्चर्य क्या? और अब तो आश्चर्य भी नहीं होता क्योंकि हम सब देर-सबेर एक‘लिंच मॉब्स’ यानी ‘बदलेखोरभीड़’की मानसिकता में रहने लगे हैं. हर रोज खदकाई जाती बदलाखोरी की बातें, घृणा और क्रोध अब आकषर्क ‘शो’ बन चले हैं. ऐसे में अगर लोग अपनी ‘लिंच लीला’ की सेल्फी लेकर सोशल मीडिया में इतराएं तो क्या आश्चर्य?

सुधीश पचौरी


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