प्रसंगवश : मौलिकता की तलाश में

Last Updated 25 Feb 2018 06:09:05 AM IST

आजकल कुशलता, उत्कृष्टता और सृजनशीलता जैसे मुहावरों की धूम मची हुई है. उनकी बड़ी पूछ है. चारों ओर मौलिकता के ह्रास पर चिंता व्यक्त की जा रही है.


प्रसंगवश : मौलिकता की तलाश में

कहा जा रहा है कि हमें मौलिक होना चाहिए.  मूल का अर्थ होता है ‘स्रोत’ अर्थात वह जिससे कुछ उपजता या उत्पन्न होता है. पर ‘मौलिक’ कहते हुए हमारा ध्यान अक्सर ऐसे विचार या वस्तु की ओर  जाता है, जिनको नवीन, अद्वितीय और अनोखी की श्रेणी में रखा जाता है. नवीनता को भारतीय सौंदर्यबोध में रमणीयता के साथ भी जोड़ कर देखा गया है-क्षणो-क्षणो यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया:. सामान्य बातचीत में मौलिक या ‘ओरिजिनल’ उस व्यक्ति को कहते हैं, जो दूसरों से अलग होता है. कोई रोचक प्रस्तुति करता है, या जिसमें नई पहल या खोज की दुर्लभ क्षमता होती है.
जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि पाने के आम तौर पर दो रास्ते होते हैं : अनुरूपता और मौलिकता. अनुरूपता का रास्ता लोकप्रिय और प्रचलित ढर्रे को स्वीकारते हुए यथास्थिति (स्टेटस को) बनाए रखता है. दूसरी ओर, मौलिकता नई राह बनाने और धारा के विरु द्ध चल कर अंतत: वर्तमान परिस्थिति को सुधारने में सफल होती है. वैसे कुछ भी पूरी तरह से मौलिक हो संभव ही नहीं है. हमारे विचार अपने आसपास की दुनिया से ही आते हैं. चाहे अनचाहे हम दूसरों से विचार लेते हैं. कभी-कभी दूसरों के विचार हम अपने जैसे मान लेते हैं. जो भी हो मौलिकता की शुरुआत सृजन से शुरू तो होती है पर वहीं खत्म नहीं हो जाती. मौलिक लोग अपने नजरिए को यथार्थ में ढालने की कोशिश करते हैं. हालांकि अस्थिरता से बचने की कोशिश के कारण हर नये विचार को विरोध भी झेलना पड़ता है, और नासमझी से लड़ना भी पड़ता है.

मौलिक लोग गलतियों को छोड़ दूसरे विकल्पों पर ध्यान देते हैं, जो उपलब्ध हो सकते हैं. उनकी यात्रा की शुरुआत कौतूहल से होती है कि आखिरकार, कोई गलती या गड़बड़ी होती ही क्यों है? मौलिक व्यक्ति परिचित वस्तु को भी नये ढंग से देख पाता है. गौरतलब है कि अत्यधिक प्रतिभा-संपन्न बच्चे (प्रोडिजी) बड़े होकर शायद ही दुनिया बदलने की ओर अग्रसर हुए हों और इतिहास में ज्यादातर प्रसिद्ध और प्रभावी लोग बचपन में ज्यादा ‘गिफ्टेड’ भी नहीं रहे हैं. बचपन के ‘गिफ्टेड’ में से बहुत थोड़े ही प्रौढ़ हो कर क्रांतिकारी मौलिक साबित होते हैं. प्रतिभा-संपन्न लोगों के लिए माता-पिता और अध्यापकों का अनुमोदन बड़ा खास होता है. वे समायोजित तो रहते हैं पर मौलिक नहीं हो पाते. अभ्यास की बदौलत चुस्ती-फुर्ती आ जाती है पर नवीनता नहीं होती . ज्ञान और कौशल की  योग्यता तो आ जाती है पर उनमें कोई नई सूझ नहीं दिखती . कोल्हू के बैल की तरह वे लीक पर चलते हैं पर नये विचार नहीं देते. सच तो यह है कि ये प्रतिभाशाली लोग अपनी असाधारण बुद्धि का उपयोग ज्यादातर साधारण कामों के लिए करते हैं. वे अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और अध्यापक बन जाते हैं. आगे बढ़ने की कोशिश में वे खूब परिश्रम करते हैं, और एक ढर्रे पर दुनिया चलाने में मददगार होते हैं.
अक्सर हम अपने जीवन की परिस्थितियों के साथ खुद को फिट करते चलते हैं, और धारा के प्रवाह के साथ बहते रहते हैं. कोई नया विचार आता है, या हृदय में कोई भाव उठता है, तो उसे दबा देते हैं, या कहें उसका ‘सेंसर’ कर देते हैं. मन की बात कह पाना और फिर उस पर डटे रहना सबके बस का नहीं होता. हम सब के पास अपने घर, विद्यालय, संस्था और समुदाय को अच्छा बनाने के लिए सुझाव तो होते हैं पर उन्हें लेकर कार्य करने का संकल्प नहीं लेते. नया बनाने में पुराने को ढहाना पड़ता है, और ऐसा करने में हमें डर लगता है. हम सब मानते हैं कि मौलिक होने के अपने खतरे हैं, जिन्हें उठाना पड़ता है. पर मौलिक लोग शायद किसी और ही धातु, मज्जा वाले शरीर के बने होते हैं. भय, अस्वीकृति और आलोचना के डर से मुक्त होते हैं. नया करने वाले और विश्वास के साथ ऊंची छलांग लगाने वाले होते हैं. पर वे भी मनुष्य होते हैं, और शंका, भय और संदेह जैसी कमजोरियों से भी मन भरा रहता है.
मान्यतानुसार मौलिकता जन्मजात क्षमता होती है, जो चुनिंदा लोगों में ही पाई जाती है. अध्ययन बताते हैं कि मौलिकता को अनुभव और प्रशिक्षण से बढ़ाया जा सकता है. मौलिक और सृजनशील व्यक्तियों में गहरी समझदारी तो होती ही है, ज्ञान का क्षितिज भी विस्तृत होता है. हर किसी से दौड़ में आगे रहना ही सफलता नहीं लाता है, बल्कि उचित समय पर किसी काम को करना भी महत्त्वपूर्ण होता है.
 

गिरीश्वर मिश्र


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