आप सरकार : बिगड़ गये हालात
दिल्ली की सरकार एक बार फिर विवादों में है. मुख्य सचिव अंशु प्रकाश से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की मौजूदगी में आम आदमी पार्टी के आठ-दस विधायकों की हाथापाई, वाद-विवाद और मारपीट की वारदात से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सियासी और प्रशासनिक संकट चरम पर पहुंच गया है.
आप सरकार : बिगड़ गये हालात |
फिलहाल कामकाज ठप है, विभिन्न दलों के बीच राजनीतिक पैंतरेबाजी और जोर-आजमाइश का खेल बदस्तूर है. लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद से सियासी लड़ाई सार्वजनिक और बेपर्दा हो गई. इसके पीछे की वजह को जाने बिना इस संकट को हल नहीं किया जा सकता.
भारत में 29 राज्य हैं और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं, जिनका शासन चलाने की जिम्मेदारी संविधान ने भारत सरकार को दी है. जो 29 राज्य हैं, वे स्वतंत्र हैं और वहां चुनाव होते हैं. जो चुनकर आते हैं, वह हुक्मरान बन जाते हैं और वहां की सरकार चलाते हैं. जो केंद्र शासित प्रदेश हैं, इनके शासन संचालन की व्यवस्था भारत के राष्ट्रपति को दी गई है. चूंकि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर चलते हैं, लिहाजा स्पष्ट है कि सरकार केंद्र चलाएगा. इन सात केंद्र शासित राज्यों में पांच प्रदेश-दादरा व नगर हवेली, दमन व दीव, लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और चंडीगढ़-अलग वर्ग के हैं. यहां कोई चुनी हुई व्यवस्था नहीं है. यहां जो प्रशासक है, उसे अपने हिसाब से राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं और वह इनकी सलाह से सरकार चलाता है. इन्हें लेफ्टिनेंट गवर्नर (उप राज्यपाल) भी कहा जाता है.
साठ के दशक में इस मांग ने जोर पकड़ा कि जो सात केंद्र शासित प्रदेश हैं, इनके यहां के जनप्रतिनिधियों की ‘भागीदारी’ भी शासन चलाने में होनी चाहिए. तो प्रयोग या कहें तर्जुेबे के तौर पर यह किया गया कि पुडुचेरी में कुछ लोग चुने जाएं और प्रशासक यानी उप राज्यपाल को कहा जाए कि वह इनसे सलाह-मिरा कर के सरकार चलाएं. अगर आप जनता को शामिल करना चाहते हैं सरकार चलाने के लिए तो आपको एक संस्था बनानी होगी, सो एक संस्था बनाई गई, जिसे विधान सभा कहा गया. फिर वहां चुनाव हुआ और जो 30 सदस्य चुने गए उप राज्यपाल को कहा गया कि इन मेंबर्स से सलाह करके सरकार चलाएं. दूसरे शब्दों में, विधान सभा और विधान सभा से निकली हुई 5-6 मंत्रियों की एक कमेटी बनी जिसे कैबिनेट कहा गया और एक को उसका मुखिया यानी मुख्यमंत्री. उनसे कहा गया कि आप ‘एड’ और ‘एडवाइस’ किया कीजिए, प्रशासक को पांडिचेरी का शासन चलाने में. यह व्यवस्था पिछले 50-60 साल से पांडिचेरी में चल रही है. इसी के तर्ज पर 1993 में दिल्ली में एक नया सिस्टम बनाया गया क्योंकि यहां जोर मारा जा रहा था कि दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाओ. इस मांग के लिए सारे दल, भाजपा, कांग्रेस व अन्य दल एकजुट थे. क्योंकि पूर्ण राज्य का अर्थ होता है, ‘सत्ता और शक्तियां’ चुने हुए लोगों के हाथों में आ जाएगी. तो जितने विधायक और अन्य सियासी लोग थे, उन्हें यह सूट करता था कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दरजा मिलते ही इन लोगों की हनक यहां बन जाएगी. जो मलाईदार सारे महकमे, पुलिस आदि इनके अंदर आ जाए. तो इनका सिर्फ एक ही संकुचित उद्देश्य था कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दरजा मिले और हम मजबूत हो जाएंगे. हालांकि जनता को इस मुद्दे से कोई मतलब नहीं था. यही वजह है कि पूर्ण राज्य का मसला यहां कभी ‘जन आंदोलन’ नहीं बन सका.
इन सब बातों को देखते हुए एक कमिटी 1987 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आर.एस. सरकारिया के नेतृत्व में गठित हुई, जिसे सरकारिया बालाकृष्णन कमेटी कहते हैं. कमिटी ने देश भर में दो साल घूमकर कई गणमान्य लोगों से बात करके अपनी रिपोर्ट तैयार की. चूंकि दिल्ली को राज्य बना नहीं सकते और न ये हित में होगा, तो यह उपाय निकाला गया कि इसे कुछ शक्तियां दी जाएंगी. और ये शक्तियां संविधान बनाके देने की बात कही गई, अलग से कानून बनाकर शक्ति देने की बात नहीं कही गई; क्योंकि संविधान में परिवर्तन करना आसान नहीं होगा. इसके लिए दो तिहाई बहुमत चाहिए. इसलिए विचार हुआ कि दिल्ली को फुटबॉल नहीं बनने देंगे क्योंकि कोई भी दल दिल्ली में सत्ता में आएगी तो वह अपने हिसाब से बदलाव कर हालात को पेचीदा बना देगी. सो, दिल्ली के लिए एक व्यवस्था बनाई गई और उसमें चार-पांच चीजें डाली गई.
कहा गया कि रहेगी तो ये केंद्र शासित प्रदेश ही, मगर हम इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र रख देते हैं. दूसरा, यहां एक प्रशासक होगा, जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेंगे. राष्ट्रपति सीधे शासन नहीं करेंगे, प्रशासक के माध्यम से करेंगे. उस प्रशासक का नाम होगा उप राज्यपाल. यहां चुनाव भी होगा और महानगर परिषद की जगह विधान सभा होगा. मुख्य कार्यकारी पाषर्द की जगह मुख्यमंत्री होगा. दिल्ली प्रशसन की जगह दिल्ली सरकार रख दिया गया. फिर विधान सभा को स्पष्ट किया गया कि आपकी शक्तियां सीमित होंगी. आप कुछ विषयों पर ही कानून बना सकते हैं. दिल्ली सरकार को भी बता दिया गया कि कुछ विषय जिस पर आप कानून नहीं बना सकेंगे, वह है; पुलिस, जमीन और कानून-व्यवस्था. तो कमिटी ने कहा कि ये तीन शक्तियां हम आपको नहीं देंगे. दिक्कत की बात यह है कि दिल्ली में वर्तमान में जो केजरीवाल की सरकार है, वह अपने आपको भले चुनी हुई जनता की सरकार कहें. परंतु उन्हें नियम-कायदा बिल्कुल नहीं मालूम कि दिल्ली में सालों पुरानी व्यवस्था है कि यहां का मुख्यमंत्री शासन में सिर्फ ‘भागीदार’ है और असली शासक उप राज्यपाल है. और उससे सलाह करके ही सरकार चलाई जा सकती है. कोई भी काम बिना उप राज्यपाल को बताए या उनसे पूछे नहीं किया जा सकता है.
1993 से 2014 तक शासन करने वाले मुख्यमंत्रियों-मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा, सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित-ने यही किया. आप सरकार के साथ यह परेशानी थी कि इन्हें पूर्व की राजनीति या शासन करने का कोई अनुभव नहीं था. इन्हें यह भी मुगालता था और है कि जनता जिसको चुनती है, वही असली बादशाह होता है. इन्होंने सत्ता में आते ही वो तुगलकी फरमान देने शुरू किए, जिसकी संविधान में स्पष्ट तौर पर मनाही है. उदाहरण के लिए, जो पहला आदेश इन्होंने जारी किया-जमीन, पुलिस और कानून-व्यवस्था से जुड़ी हुई फाइलें जो सीधे उप राज्यपाल के पास जाती है, मुख्यमंत्री के पास से होकर जाए. यह विषय ही नहीं है इनका. और इस तरह टकराव बढ़ता ही गया, और हालात अब विषम हो चले हैं.
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