कश्मीर : जहां हमारा लहू गिरा है..

Last Updated 14 Feb 2018 04:38:15 AM IST

बस इतनी ही कोर-कसर बाकी बची थी. जम्मू-कश्मीर विधान सभा में गत सप्ताह ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे लगे. चीखने वाला फारूक और उमर की नेशनल कांफ्रेंस का विधायक था.


कश्मीर : जहां हमारा लहू गिरा है..

नाम है मोहम्मद अब्दुल लोन. सोनावारी के इस अधेड़ विधायक ने कहा ‘मैं मुसलमान पहले हूं.’ पाकिस्तान समर्थक नारे लगाने का उसने कारण बताया कि कुछ भाजपायी विधायक पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे. यह उसका जवाब था. कैसा अनोखा तर्क है. भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली. भौगोलिक संप्रभुता को संवारने का हलफ उठाया था. मगर अब अपनी राष्ट्रीयता संदिग्ध बना दी. मोहम्मद लोन की विधायकी खत्म हो जानी चाहिए. राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चले और जेल भेजा जाए. निर्वाचन आयोग नेशनल कांफ्रेंस से जवाब मांगे. आनकानी या हीला हवाली पर इस पार्टी का पंजीकरण निरस्त हो.
पाकिस्तानी कबाइली लुटेरों से घाटी की जमीन और लावण्यवती युवतियों की आबरू बचाने के लिए भारतीय सेना ने सात दशक पहले सैनिकों की शहादत दी थी. लहू बहाया था. कुछ भारतवासी हैं, जिनकी सोच से यह सीधी बात परे है कि पाकिस्तान की पैदाइश से ही कश्मीर का मसला शुरू हुआ था. राममनोहर लोहिया की हिमालयी नीति के खास दो क्षेत्र थे-बौद्ध तिब्बत व इस्लामी कश्मीर. उनके आकलन में इन दोनों को जवाहरलाल नेहरू की नीतियों और क्रियाकलाप ने भारत से अलग कर डाला था. तिब्बत की भ्रूण हत्या जैसी हुई. कश्मीर को मरीज बनने पर विवश कर दिया गया. 

एक घटना पर गौर कर लें. कश्मीरी मुसलमान कभी भी पाकिस्तान-समर्थक आंदोलन में नहीं रहे. जिन्ना ने महाराजा कश्मीर हरी सिंह (कर्ण सिंह के पिता) पर काफी डोरे डाले. वादा किया कि पाकिस्तान में उनका सूबा स्वायत्त राज्य रहेगा. महाराजा जब झांसे में नहीं आए तो जिन्ना ने अपनी फौज को धावे पर भेज दिया. समग्र हिन्दू जन और मुस्लिम कश्मीर ने पाकिस्तानियों का मुकाबला किया. सफल हुए तो ये ही राष्ट्रवादी, पाकिस्तान-विरोधी लोग अब क्यों बदल गए? इब्तिदा की थी भारत के मदरसों और जमियते इस्लामी के प्रचारकों ने जो भारत में कश्मीर के शामिल होने के साल भर में ही घाटी में पसर गए. मदरसे और मस्जिद बना डाले. अलगाववाद के बीज बो दिए.
जरा इन प्रचारकों की भूमिका पर नजर डालें. मुस्लिम बहुल पश्चिम प्रांतों की सरकारें जिन्नावादी मुस्लिम लीग को चुनाव में पराजित कर सत्ता में आई थीं. सिंध, पंजाब, ब्लूचिस्तान, सीमांत प्रदेश आदि मुस्लिम राज्य अविभाजित भारत में पाकिस्तान का विरोध करते रहे. कश्मीर भी इन्हीं पड़ोसी प्रदेशों की कतार में था, जहां जिन्ना का अस्तित्व ही नहीं था. केवल अवध प्रांत के मुसलमान जिन्ना के साथ थे. इसी वर्ग के प्रचारकों ने कश्मीर की सेक्युलर व अराजनीतिक जनता को योजनाबद्ध तरीके से भरमाया. और मजहब मार्क्‍सवादी मायनों में अफीम बन गया. कश्मीर समस्या के समाधान में कई उपाय सुझाए गए पर सभी निष्प्रभावी रहे. आखिरी ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी के दबाव में नेहरू ने कश्मीर के विलय के बावजूद वहां जनमत संग्रह का वादा कर डाला. बस यही गले की फांस बन गई. दोहरी सोच रही भारतीय प्रधानमंत्री और कांग्रेसी नेताओं की, जब कश्मीर पर इतने उदार बन गए  और सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के पश्चिमोत्तर प्रांत और ब्लूचिस्तान की पाकिस्तान विरोधी जनता के साथ धोखा किया. जिन्ना के रहमोकरम पर छोड़ दिया. इन भारतीय नेताओं को अहसास तक न हुआ कि पाकिस्तानी जुल्मोसितम के शिकार ब्लूचिस्तान और कश्मीर रहे. पाकिस्तानी वायु सेना ने बम बरसा कर ब्लूच जनता को त्रस्त कर दिया. जबरन इस संघषर्शील प्रांत को पाकिस्तान में शामिल करा दिया. कश्मीर के महाराजा और प्रजा ने स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल होना स्वीकारा. मगर भारतीय राजनीतिज्ञों ने विश्व मंच पर शोषित ब्लूच जनता की बात नहीं उठाई. उधर, कश्मीर में लोकतंत्र की मांग पाकिस्तानी फौजी तानाशाह दुनिया भर में उठाते रहे.
कश्मीर के विषय में एक आधारभूत विशिष्टता पर गौर करना होगा. भारत के लिए कश्मीर महज भू-भाग या राज्य नहीं, एक जीवंत मसला है. मजहब के नाम पर कश्मीर भारत से पृथक नहीं हो सकता. इस्लाम के नाम पर कश्मीर को भारत से अलग राष्ट्र माना जाए तो फिर सेक्युलर भारत में बीस करोड़ मुसलमानों के बसने का आधार क्या होगा? यही बात मैंने कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के समक्ष उठाई थी? उनका जवाब था कि कश्मीरी मुसलमानों का भारत के मुसलमानों से न कोई वास्ता है, और न कोई लेना-देना. क्या विडंबना है कि दुनिया में (इंडोनेशिया को छोड़कर) सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी भारत में है, और ये अल्पसंख्यक महफूज हैं. फिर भी मजहब का बहाना मिला कर कश्मीर अलग होना चाहता है. तय है कि जिस दिन मजहब के आधार पर कश्मीर भारत से जुदा होगा, उस दिन भारत के बहुसंख्यक भी अल्पसंख्यक को भारत से बाहर जाने की मांग उठाएंगे. कश्मीर में कुछ कट्टरवादियों खासकर पाकिस्तानी और तालिबानी एजेंटों को छोड़ दिया जाए तो एक बड़ा मुस्लिम वर्ग भारत की रक्षा में कुर्बानियां दे चुका है. मसलन, गुज्जर, बकरवाल और मुस्लिम पहाड़ी जन. जम्मू की सीमा पर सदियों से बसे ये मुस्लिम भारत-पाकिस्तानी युद्ध के समय भारतीय सेना के मददगार रहे. हिमालयी घाटी के भ्रमित मुस्लिम नेता सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का ढोंग रचते हैं, तो वे इन भारत-समर्थक इस्लामी गुटों को भी अपना पक्षधर मान लेते हैं.
कश्मीर को समझने में नई दिल्ली की भी अक्षमता रही. विश्व मंच पर ब्लूचिस्तान का मसला उठाकर पाकिस्तान के अमानुषिक कार्यों का भंडा नहीं फोड़ा. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत, पाकिस्तान के मामले के हस्तक्षेप नहीं करना चाहता. ब्लूचिस्तान में उसे कोई रु चि नहीं है. इससे शर्मनाक बयान नहीं हो सकता है. पाकिस्तान के शासकों द्वारा ब्लूचिस्तान में नरसंहार हो और मानवाधिकार के नाम पर भी भारत ब्लूचियों की हिमायत न हो. आज की परिस्थितियों में यथार्थ यही है कि जब भारत सरकार ही नीतिगत निर्णय लेने में पंगु हो तो फिर कश्मीर के भारतप्रेमियों को मदद कहां से मिलेगी? मोदी सरकार को जवाब देना होगा.

के. विक्रम राव


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