उप्र शिक्षा : सुचिंतित और ठोस कार्यक्रम उठाएं
डेरेन अलिमोंग्लू एंड ए रॉबिन्सन ने अपनी किताब Why Nation Fail: Origins of Power, Prosperity and Poverty में लिखा है कि कोई भी राज्य गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी को खत्म कर सकता है बशर्ते वह शिक्षा में निवेश करे.
उप्र शिक्षा : सुचिंतित और ठोस कार्यक्रम उठाएं |
शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा के कारण उत्तर प्रदेश सुर्खियों में है.
उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के आंकड़ों को देखें तो पाते हैं कि वहां का परिणाम उतार-चढ़ाव भरा रहा है. सन 1992 में कल्याण सिंह की सरकार में उत्तीर्ण प्रतिशत हाई स्कूल परीक्षा में सिर्फ 14 प्रतिशत था जो कि यूपी बोर्ड के 90 साल के इतिहास में न्यूनतम था और 2013 में 92.7 प्रतिशत जो अभी तक का उच्चतम प्रतिशत है. यह राजनीतिक इच्छाशक्ति का नतीजा है. राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही वृहद स्तर पर नकल को रोका जाता रहा है. योगी सरकार ने भी मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का इजहार किया है और सरकार ने शिक्षा माफिया को खत्म करने का प्रणलिया है.
उत्तर प्रदेश बोर्ड की परीक्षा इसका उदाहरण है, जहां बोर्ड ने कुछ दिशा-निर्देश लागू करके; जैसे परीक्षा दो स्तरों पर करवाना, परीक्षा केंद्र में आधार कार्ड द्वारा प्रवेश अनिवार्य करना, प्रिंटेड प्रवेश पत्र की अनिवार्यता, परीक्षा में नकल को रोकने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स (एसआईटी) और क्षेत्रीय संस्थाओं का सहयोग लेना. इसका परिणाम यह हुआ कि अभी तक लगभग 10 लाख 50 हजार परीक्षार्थी परीक्षा छोड़ चुके हैं. जैसा कि हमें मालूम है कि लगभग 61 लाख परीक्षार्थियों में से 15 प्रतिशत ने परीक्षा ही नहीं दी. सरकार सुशासन के प्रति अपनी इच्छा शक्ति को दिखा रही है, यह सराहनीय है. परंतु सिर्फ परीक्षा के समय सख्ती बरतने से उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को नहीं सुधारा जा सकता है. अगर योगी सरकार सच में उत्तर प्रदेश का कायाकल्प करना चाहती है तो उसे गिरती हुई शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करना होगा. आज उत्तर प्रदेश शैक्षणिक दुर्दशा के दुष्चक्र में फंसा हुआ है. 15 प्रतिशत परीक्षार्थियों का परीक्षा न देना एक जीता जागता उदाहरण है. इस आंकड़े से उत्तर प्रदेश की शैक्षणिक प्रणाली में व्यापक भ्रष्टाचार का पता चलता है. अपर्याप्त स्कूली ढांचा बड़े पैमाने पर शिक्षकों का स्कूलों से अनुपस्थित रहना, शिक्षकों के खाली पद, लाइब्रेरी और प्रयोगशालाओं की कमी से राज्य की शिक्षा व्यवस्था दिशाहीन हो गई है. 2009 में शिक्षा को मौलिक अधिकार की सूची में रखा गया है परंतु सर्वागीण विकास की दृष्टि से स्कूली ढांचागत सुविधाओं का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि शिक्षक-प्रशिक्षित शिक्षकों, खेल के मैदानों, प्रयोगशालाओं, बिजली, शौचालय आदि के मामले में उत्तर प्रदेश लकवाग्रस्त दिखाई देता है. उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद, भारत का सबसे बड़ा माध्यमिक बोर्ड है. 2018 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में लगभग 28 लाख विद्यार्थी परीक्षा दे रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में यह संख्या करीब 61 लाख है. उत्तर प्रदेश की अंदरूनी क्षेत्रीय विषमता को देखते हैं तो पाते हैं कि उत्तर पूरब का जो क्षेत्र है, वहां शैक्षणिक आंकड़ा 49 प्रतिशत है, जबकि उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में शैक्षणिक आंकड़ा 85 प्रतिशत है. सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उत्तर प्रदेश 2014-15 में कक्षा 6 से 8वीं तक प्रति विद्यार्थी 13,102 रुपये खर्च करती है वहीं भारत के स्तर पर 11,252 रुपये खर्च करती है. इसके बावजूद अध्ययन के परिणाम बहुत कम है. यह एक व्यापक भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करता है. जब हम ASER-pratham डाटा का आंकलन करते हैं तो पाते हैं कि अंकगणित कौशल स्तर में भी गिरावट आई है.
2007 अंकगणित कौशल प्रतिशत 30 था जो अब घटकर 24 प्रतिशत हो गई है. प्रदेश के 55 प्रतिशत विद्यार्थी ही नियमित तौर पर स्कूल जाते हैं. प्राथमिक विद्यालयों में 45 प्रतिशत कम शिक्षक हैं वहीं माध्यमिक विद्यालयों में 44 प्रतिशत कम शिक्षक हैं. लगभग 5 लाख शिक्षकों की कमी है. शिक्षा प्रणाली को लेकर भ्रमित दृष्टिकोण के चलते राज्य युवा आबादी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने की तैयारी में नहीं दिखती. सरकार को दूरगामी कदम उठाने की जरूरत है. साथ ही 10 लाख 50 हजार छात्रों को सप्लीमेंट्री परीक्षा देने का मौका देना चाहिए ताकि बच्चों को बहुमूल्य साल न गंवाना पड़े. गिरती हुई शिक्षा व्यवस्था प्रदेश की उन्नति में बाधा है और जब तक इससे निजात नहीं मिलेगी तब तक उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश का गौरव हासिल नहीं कर सकता.
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