मालदीव संकट : मुक्तिदाता न बने भारत
हिन्द महासागर के तटीय क्षेत्र में स्थित मालदीव अपने आंतरिक संकट से जूझ रहा है.
मालदीव संकट : मुक्तिदाता न बने भारत |
निरंकुश और अधिकारवादी राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करके देश में आपातकाल थोप दिया है. मुख्य न्यायाधीश अब्दुल्ला सईद और एक अन्य न्यायाधीश अली हमीद को गिरफ्तार कर लिया गया है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, और काफी पहले से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता के कारण देश की अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों बुरी तरह से प्रभावित हो रही हैं.
इस नाटकीय राजनीतिक घटना की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद हुई जिसमें आठ विपक्षी सांसदों की रिहाई के साथ पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के खिलाफ लगाए गए झूठे आरोप को रद्द किया जाना था. मोहम्मद नशीद 2008 से 2012 तक राष्ट्रपति रहे हैं. इसी दौरान उन पर क्रिमिनल कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक सैनिक शिविर में हिरासत में रखने का आरोप लगा था. इस मामले ने इतना जोर पकड़ा कि उन्हें अपने पद से इस्तीफा तक देना पड़ा था. इसी के बाद 2013 में चुनाव की घोषणा हुई और अब्दुल्ला यामीन देश के पांचवे राष्ट्रपति बने. स्वभाव से क्रूर और निरंकुश यामीन की सरकार ने नशीद के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने का फर्जी आरोप लगा कर गिरफ्तार कर लिया. पश्चिमी देशों के दबाव के बाद उन्हें इलाज के लिए विदेश जाने की अनुमति मिल गई. फिलहाल वह श्रीलंका में निर्वासित हैं, और मालदीव की राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर बनाए हुए हैं.
मालदीव सामरिक दृष्टि से भारत के लिए विशेष अहमियत रखता है, क्योंकि उसका समस्त जलमार्ग हिन्द महासागर से होकर गुजरता है. यही जलमार्ग नई दिल्ली को पूर्व एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया से जोड़ता है. इसलिए भारत इसे अपने राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव वाला क्षेत्र मानता है. मालदीव की राजनीतिक उथल-पुथल की घटना पर भारत ने जिस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उससे पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद और विपक्षी दलों के नेताओं के प्रति उसकी सहानुभूति जाहिर होती है. मोहम्मद नशीद ने दो कारणों से यह सहानुभूति अर्जित की है. एक, वर्तमान यामीन सरकार ने मालदीव एयरपोर्ट को विकसित और आधुनिक बनाने के काम में लगी एक भारतीय निजी कंपनी का काम रोक कर उसे स्वदेश भेज दिया और दूसरे, अब्दुल्ला यामीन का चीन के प्रति झुकाव. हिन्द महासागर क्षेत्र में चीन का बढ़ता प्रभाव भारत की सुरक्षा के लिए चिंता का कारण हो सकता है. जाहिर है कि वह मूकदर्शक बना नहीं रह सकता. इसलिए नई दिल्ली ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्वागत करते हुए यामीन सरकार से उसका पालन करने की अपील की थी. मालदीव में आपातकाल की घोषणा के बाद पूर्व राष्ट्रपति नशीद ने यामीन की सरकार को बर्खास्त करने के लिए भारत से सैन्य हस्तक्षेप करने की मांग की है. लेकिन सवाल यह है कि इस नई विश्व व्यवस्था में भारत के लिए क्या संभव है कि ‘मुक्तिदाता’ की भूमिका निभा पाए, जैसा कि 1951 में उसने नेपाल के शासक राजा त्रिभुवन के समय निभाई थी.
अफगानिस्तान में सोवियत संघ का सैनिक हस्तक्षेप और इराक व सीरिया में अमेरिकी सैनिक हस्तक्षेपों का अंजाम हम सबको पता है? पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय श्रीलंका में शांति सेना भेजने का दुष्परिणाम भारत भुगत चुका है. भारत अगर मालदीव में सैनिक हस्तक्षेप करता है, तो इसके परिणाम विपरीत ही निकलेंगे. वैीकरण से राजनीतिक चेतना की प्रक्रिया मजबूत हुई है, और किसी भी देश का नागरिक इसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसके देश के अंदरूनी मामलों में कोई विदेशी शक्ति सीधे तौर पर हस्तक्षेप करे. यह राष्ट्रीय चेतना निरंकुश और अधिकारवादी राष्ट्रपति यामीन के पक्ष में जा सकती है, जो उन्हें तानाशाही की ओर ले जाएगी. राष्ट्रपति यामीन इस तथ्य से परिचित हैं कि भारत की सहानुभूति मोहम्मद नशीद और विपक्षी नेताओं के साथ है, और नई दिल्ली उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकती है. आम तौर पर हर निरंकुश और तानाशाह शासक भीतर से डरपोक होता है. इसीलिए वह लोकतंत्र विरोधी कार्रवाई के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए अपने विशेष दूत चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब भेज रहे हैं. भारत स्थित मालदीव के राजदूत अहमद मोहम्मद की बातों को मानकर चलें तो ‘विशेष दूतों की प्रस्तावित यात्रा का पहला चरण भारत था पर भारतीय नेतृत्व के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण ऐसा नहीं हो पाया.’ लेकिन क्या उनकी बातों पर सहज विश्वास किया जा सकता है.
भारतीय नेतृत्व कहने का उनका आश्य स्पष्ट नहीं हो सका है. अगर प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर जा रहे हैं तो उनकी अनुपस्थिति में राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, गृहमंत्री और विदेश मंत्री में किसी से भी मालदीव के विशेष दूत मुलाकात कर सकते हैं. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने यह कहकर चीन का रुख साफ कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को मालदीव की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए. जाहिर है चीन का इशारा भारत की ओर ही था. चीन दक्षिण एशिया में अपनी विस्तारवादी नीतियों को जारी रखते हुए पाकिस्तान, नेपाल, मालदीव और श्रीलंका में अपना आधारभूत ढांचा खड़ा करना चाहता है. इन देशों को हथियारों की आपूर्ति करते हुए अरबों डॉलर का अनुदान देकर मदद कर रहा है. इसके चलते ये सभी देश धीरे-धीरे चीन के नियंत्रण में चले जा रहे हैं. मालदीव की वर्तमान सरकार चीन के हितों के अनुकूल काम कर रही है. भारतीय उपमहाद्वीप के सभी छोटे-छोटे देश अपनी सुरक्षा को लेकर हमेशा भयभीत रहते हुए भारतीय शक्ति संतुलन को साधने के लिए चीनी कार्ड खेलते हैं. इन देशों में चीन का भारी निवेश और आर्थिक मदद भारत को इस खेल से भारत को बाहर कर देता है. ऐसे में यह अहम सवाल उठता है कि भारत को क्या करना चाहिए?
यह सच है कि यामीन की तुलना में मोहम्मद नशीद ज्यादा भारत समर्थक हैं. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सभी देश अपनी राष्ट्रीय हितों के अनुकूल ही अपनी नीतियां बनाते हैं. आखिर भारतीय समर्थक श्रीलंका की सरकार ने अपने अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह हंबनतोता चीनी कंपनियों को सौंप दिया है. इसलिए इस बात की क्या गारंटी है कि यदि नशीद सत्ता में लौटते हैं तो क्या उनकी सरकार भारतीय हितों के अनुकूल काम करेगी? इन परिस्थितियों में भारत के लिए यही बेहतर होगा कि मालदीव के मसले पर फूंक-फूंक कर अपना कदम बढ़ाएं.
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