अररिया : जीत की जद्दोजहद

Last Updated 09 Feb 2018 05:48:06 AM IST

गुरदासपुर लोक सभा के बाद राजस्थान के अलवर और अजमेर उप चुनाव में मिली हार से सकते में आई भारतीय जनता पार्टी के लिए अररिया संसदीय सीट लिटमस टेस्ट साबित होने जा रही है.


अररिया : जीत की जद्दोजहद

इस अभियान की गंभीरता और सफलता का आग्रही बनी भाजपा की बेचैनी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के लगभग 10 दिनी बिहार प्रवास से समझा जा सकता है.

राजनीतिक गलियारों में इस बात की विशेष चर्चा है कि होली के आसपास अररिया उप चुनाव की घोषणा होने वाली है. ऐसे में 6 से 15 फरवरी तक गांव, किसान और गोवंश संवर्धन पर उत्तरी बिहार में हिन्दुत्व की लहर बहा कर संघ न केवल अररिया उप चुनाव की जीत चाहता है, बल्कि नये स्वयंसेवकों के जरिए आम चुनाव से पहले बिहार में मजबूत सांगठनिक आधार बनाना चाहता है. प्रशिक्षण के बहाने हिन्दू कार्ड का यह खेल भाजपा वैसे भी राजद प्रमुख लालू प्रसाद के ‘माई’ समीकरण के विरुद्ध आजमाना चाहती है. संघ की नजर उस गांव-जवार पर भी है, जिसकी गुजरात के विधान सभा चुनाव में लहर महसूस की गई. संघ प्रमुख संगठन को किसानों और पशुपालकों से जोड़ कर ग्रामीण इलाकों में भाजपा को मजबूत आधार भी देना चाहते हैं. अपने इस प्रयोग का परिणाम देखने का आग्रही संघ इसे सबसे पहले अररिया उप चुनाव में आजमाना चाहता है. इसलिए कि भाजपा के भीतर चल रही नमो लहर के साथ वर्ष 2014 के लोक सभा चुनाव में अपने गठबंधन दल के साथ भाजपा ने 31 लोक सभा सीटों पर जीत जरूर हासिल की लेकिन उसे सीमांचल में जबर्दस्त हार का सामना करना पड़ा था. कटिहार, पूर्णिया और अररिया सीट से हाथ धोना पड़ा. इस हार से भाजपा ने जो सबक लिया, उसे अररिया उपचुनाव में आजमाना चाहती है. दरअसल, 2014 लोक सभा के चुनाव में भाजपा कटिहार और पूर्णिया में हारी जरूर मगर उसका वोट बैंक बढ़ा. लेकिन अररिया में उसने 1.60 लाख के अंतर से सीट गंवाई और वोट भी गत चुनाव से कम मिले. इस हार ने भाजपा के रणनीतिकारों को नये सिरे से सोचने को बाध्य किया है.

अररिया में हार इसलिए भी विशेष मंथन की ओर भाजपा के रणनीतिकारों को ले जा रही है कि पिछले 20 सालों में उसे इतने ज्यादा अंतर यानी एक लाख साठ हजार के मतों से शिकस्त नहीं मिली थी. वह भी तब जब अररिया में जीत-हार का फैसला 20 सालों में 18 से 30 हजार मतों के बीच होता रहा है. अररिया लोक सभा क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या लगभग 17.5 लाख है. इनमें करीब 40 प्रतिशत यानी 6 लाख 35 हजार मुस्लिम मतदाता हैं. यादव मतदाताओं की संख्या लगभग 1.5 लाख है. महागठबंधन की राजनीति के ‘माई’  समीकरण के विरुद्ध भाजपा अति पिछड़ों, पिछड़ों, सवर्णो और दलितों के शेष बचे 8 लाख मतों के बीच अपनी जीत तलाशती रही है. जहां तक महागठबंधन के भीतर राजद का सवाल है, तो यहां से सहानुभूति लहर का सहारा लेकर पूर्व मंत्री एवं सांसद रहे तस्लीमुद्दीन के पुत्र सरफराज आलम को एक तरह से उतारे जाने के संकेत मिलने लगे हैं. ऐसे में संघ सरफराज की कट्टरता और छवि को उकेर कर किसी पुराने संघी को चुनावी समर में उतारने की तैयारी में है.
संघ द्वारा अति पिछड़ा वर्ग के नेताओं में पूर्व विधान पाषर्द एवं प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र गुप्ता, विधायक दिलीप जायसवाल, विजय मंडल, पूर्व सांसद प्रदीप सिंह को लेकर भी फीडबैक लिये जा रहे हैं. संघ की नजर में विद्यार्थी परिषद से जुड़े वर्तमान में अति पिछड़ी जाति से आने वाले दल के प्रदेश उपाध्यक्ष राजेन्द्र गुप्ता हैं, जिनकी पहचान बांग्लादेशी घुसपैठ के विरुद्ध लंबे समय तक आंदोलन चलाए जाने के कारण स्वच्छ छवि वाले हिन्दू की है. कई बार विधायक रहे कोषाध्यक्ष एवं विधायक दिलीप जायसवाल के अलावा विधायक विजय मंडल के नाम की भी चर्चा है. भाजपा के भीतर राय बन रही है कि किसी विधायक को चुनावी समर में उतार कर एक और उप चुनाव को आमंतण्रदेना सही है क्या?
दरअसल, भाजपा इस रणनीति को धार देकर देश का चुनावी मूड बदलना चाहती है. इसके लिए मुस्लिम बहुल अररिया सीट संघ की प्रयोगस्थली के लिए सबसे मुफीद माना जा रहा है. वह भी इसलिए कि यहां उसकी लहर चले तो न केवल सीमांचल में भाजपा की पुरानी स्थिति बरकरार हो बल्कि देश भर में पार्टी के प्रति विश्वास कायम हो. खासकर इस बात को ध्यान में रख कर पिछड़ों और दलितों में पैठ बनाने वाले नीतीश कुमार और रामविलास पासवान अहम भूमिका लिये गठबंधन के साथ खड़े हैं.

चंदन


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