तो कांग्रेस तय करेगी माकपा का भविष्य
भारत की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम में जबरदस्त बहस चल रही है. बहस का मुद्दा है कि भविष्य में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया जा सकता है, या नहीं.
![]() तो कांग्रेस तय करेगी माकपा का भविष्य |
खबरों के अनुसार पार्टी के वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी समझौते के पक्ष में हैं, और पूर्व महासचिव प्रकाश करात विरोध में. किस का पक्ष प्रबल है, इस पर विचार करने के लिए इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पेश किया गया है, जिस पर अंतिम निर्णय पार्टी कांग्रेस में होगा. तब तक दोनों नेता अपने-अपने पक्ष में वातावरण में लगे हुए हैं.
इस बहस पर विचार करने के पहले देखना जरूरी है कि दोनों प्रमुख नेताओं में कौन पार्टी का ज्यादा शुभचिंतक है. करात ने 2005 में पार्टी का नेतृत्व संभाला और 2015 तक महासचिव रहे. येचुरी 2015 में महासचिव बने और अभी तक इस पद पर हैं. दोनों नेताओं की यह अवधि बाहर साल ठहरती है. इस बीच हुए विधानसभा चुनावों में केरल में पार्टी एक बार चुनाव हारी और एक बार जीती. प. बंगाल में पार्टी दोनों बार चुनाव हारी. 2014 में लोक सभा में सीपीएम के 45 सदस्य थे. आज सिर्फ 9 हैं. स्पष्ट है कि ये दोनों ही सज्जन सीपीएम को उचित नेतृत्व नहीं दे पाए हैं. इसके बावजूद दोनों सीपीएम के भविष्य का निर्णय करने वाले फार्मूले पर बहस कर रहे हैं, तो यही कहा जा सकता है कि स्वयं पार्टी के अधिकांश सदस्यों को अंदाजा नहीं है कि पार्टी का भविष्य कैसे सध सकता है.
असली बात यह है कि इस समय कांग्रेस या कांग्रेस नहीं, सीपीएम के लिए सबसे जरूरी है कि बुनियादी प्रश्नों पर विचार करे. पार्टी का पतन क्यों हुआ? कहां-कहां भूल हुई? क्या वजह है कि पार्टी न तो सत्ता प्राप्त कर सकी और न ही विपक्ष में कोई बड़ी भूमिका निभा सकी? प. बंगाल जहां सीपीएम ने लगातार पैंतीस वर्ष तक शासन किया, में पार्टी दो-दो बार कैसे पराजित हो गई? आखिर क्यों आम धारणा बन रही है कि भारत में अब कोई वामपंथ नहीं रहा? पड़ोसी देश नेपाल में कम्युनिज्म का उभार और भारत में कम्युनिज्म का पराभव, यह विरोधाभास क्या कहता है? जब सीपीएम के सामने इतने बड़े-बड़े अस्तित्वपरक मुद्दे उपस्थित हों, मामला जीवन-मरण का हो, तब कांग्रेस से समझौता करें या नहीं, इस तुच्छ-से चुनावी प्रश्न पर बहस पार्टी की बौद्धिक दरिद्रता का ही द्योतक है, कुछ और नहीं.
मैं नहीं मानता कि सीपीएम में ऐसे बुद्धिजीवी नहीं हैं, जो देश की वर्तमान स्थिति में पार्टी की सक्रियता का निर्णायक महत्व न समझते हों. इस समय सीपीएम ही एकमात्र संसदीय पार्टी है, जिसके पास देश के वर्तमान संकट की कुछ सही समझ है, और जो भाजपा से कोई प्रच्छन्न समझौता नहीं कर सकती. उद्यम करे तो व्यापक जन उभार पैदा कर सकती है. सीपीएम के बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता फासिस्ट चुनौती को समझ रहे हैं, और जहां-जहां संभव है, हस्तक्षेप भी कर रहे हैं. लेकिन पार्टी स्वयं पंगु दिख रही है. उसकी गतिविधियां सिमटी हुई हैं. उसके संघर्ष का स्वर इतना धीमा है कि किसी को सुनाई नहीं पड़ रहा. जाहिर है कि सीपीएम के उम्दा-उम्दा बुद्धिजीवी इस वामपंथी सन्नाटे को सुन रहे होंगे. फिर भी चुप क्यों हैं? हस्तक्षेप करने का साहस क्यों नहीं कर रहे? माना कि कम्युनिस्ट पार्टयिों में बुद्धिजीवियों को दबा कर रखा जाता है. खुल कर बोलने नहीं दिया जाता, बल्कि वे खुद पार्टी के राजनीतिक नेतृत्व के आगे दबे-दबे-से रहते हैं. प्रश्न नहीं करते. शंकाएं नहीं रखते. पार्टी जो कहती है, उसे चुपचाप मान लेते हैं, बल्कि आत्मसमर्पण की मुद्रा में पहले से ही जान जाते हैं कि उन्हें किस मौके पर क्या और क्या नहीं बोलना चाहिए. लेकिन देश की भलाई इसी में है कि वामपंथ के प्रगतिशील बुद्धिजीवी पार्टी के मोह से निकलें. ऐसा उत्तप्त वातावरण बनाएं कि सीपीएम अपनी राख से निकल कर एक बार फिर जिंदा संगठन बन सके.
जहां तक कांग्रेस के साथ समझौता करने या न करने का सवाल है, तो यह कोई मामला ही नहीं है. वस्तुत: सीपीएम ने राष्ट्रीय राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का फैसला किया, यह रणनीति ही गलत है. इसी के कारण ज्योति बसु को देश का प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो यह नहीं होने दिया गया. लोग महसूस करते हैं कि विकल्पहीनता के उस क्षण में बसु प्रधानमंत्री बन जाते तो राष्ट्रीय राजनीति की धारा ही बदल सकती थी. बेशक, वे प. बंगाल के अच्छे मुख्यमंत्री नहीं साबित हुए पर दूसरे लोगों की तुलना में बेहतर प्रधानमंत्री साबित होते, इसमें कम से कम मुझे तो कोई संदेह नहीं है.
सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस के साथ आप समझौता या गठबंधन करते हैं, या नहीं. सवाल यह है कि किन शतरे पर करते हैं, और किस उद्देश्य से करते हैं. उदाहरण के लिए सीपीएम ने पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से चुनाव समझौता किया. लेकिन समझौते की शत्रे क्या थीं? क्या कोई प्रगतिशील चुनाव घोषणा पत्र सामने आया? क्या लोगों में आशा जगी कि सीपीएम और कांग्रेस अपनी पिछली भूलों से सीख कर एक नई और बेहतर सरकार दे सकेंगे? चूंकि यह एक निस्तेज और सड़ा-गला समझौता था, इसलिए दोनों को मुंह की खानी पड़ी. एक अच्छी पार्टी शैतान से भी समझौता कर सकती है, अगर इससे कोई प्रगतिशील लक्ष्य सिद्ध होता है. मिलने से डर उसे लगता है, जो कमजोर हो. जिसके विचार स्पष्ट और इरादे मजबूत हों, वह किसी भी दल के साथ समझौता कर अपनी शक्ति को बढ़ा ही सकता है, कमजोर नहीं कर सकता.
| Tweet![]() |