वैश्विकी : ठहराव से तो निकले नेपाल

Last Updated 28 Jan 2018 05:19:12 AM IST

पड़ोसी नेपाल की राजधानी काठमांडू का तापमान इन दिनों घरेलू और बाहरी, दो कारणों से गर्म हो उठा है.


ठहराव से तो निकले नेपाल

प्रांतीय और संसदीय चुनावों में वामपंथी पार्टियां यूएमएल-सीपीएन गठबंधन की अभूतपूर्व विजय के बाद ‘किंतु’, ‘परंतु’ के साथ नेपाली जनता इनके विलय का उत्सुकता से इंतजार कर रही है. दूसरे, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल के भावी प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के साथ हुई टेलीफोन वार्ता,  जिसका कूटनीतिक अर्थ निकाला जा रहा है, के कारण भी. प्रधानमंत्री मोदी ने यूएमएल-सीपीएन के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. ओली को अग्रिम बधाई देते हुए उन्हें भारत की यात्रा पर आने के लिए आमंत्रित भी किया. उन्होंने नेपाल की नई सरकार के साथ काम करने की सद्च्छिा भी जाहिर की. ऐसे तो यह एक सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार ही था, लेकिन पिछले दो-तीन वर्षो के दौरान दोनों देशों के रिश्ते इतने तल्ख हो चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के इस सामान्य शिष्टाचार को भी रणनीतिक पहलकदमी के तौर पर देखा जा रहा है.

आम तौर पर देखा गया है कि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख भारत के प्रति बहुत नरम नहीं रहता है. इसके लिए कम्युनिस्ट नेता भारत की नेपाल नीति को दोषी ठहराते हैं. उनके इस आरोप में आंशिक सचाई भी है क्योंकि नई दिल्ली में बैठे भारत के नीति-निर्धारकों ने नेपाल के राजतंत्र, राजनीतिक प्रबुद्ध वर्ग और कुलीन तंत्र को ही नेपाल की आत्मा मान लिया था. आम जनता के प्रति उनको कोई चिंता ही नहीं थी. इसके कारण नेपाल के जनमानस में भारत-विरोधी जो भावनाएं दबी-कुचली थीं, उन्हें कम्युनिस्ट पार्टियों ने और हवा दी.
अब नेपाल में ओली के नेतृत्व में सरकार बनने जा रही है. दो हजार पंद्रह में मधेशी आंदोलन के दौरान हुई आर्थिक नारेबंदी के लिए उन्होंने भारत को जिम्मेदार ठहराया था. तब वे नेपाल के प्रधानमंत्री थे. उनके भारत-विरोधी इस रुख का नेपाली समाज के एक हिस्से ने स्वागत भी किया था. अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने चुनाव सभाओं में लोगों को आश्वस्त भी किया था कि हमने चीन के साथ पारंपगत संधि कर ली है, जिसके कारण भारत पर हमारी आर्थिक निर्भरता नहीं रहेगी. उनका यह रुख भारत को परेशान कर सकता है. ओली के भारत-विरोधी रुख के कारण ऐसी आशंकाएं उठती हैं कि क्या नेपाल भी पाकिस्तान की राह पर चल पड़ेगा!  ऐसी स्थिति के लिए आंशिक तौर पर भारत की नेपाल नीति, नेपाल की अंदरूनी जरूरतें और चीन की महत्त्वाकांक्षा जिम्मेदार हैं. इस सवाल पर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है. भारत को नेपाल नीति के मसले पर आत्ममंथन करने की जरूरत है. इसलिए भी कि भारत अपने पड़ोस में एक दूसरा अस्थिर देश नहीं झेल सकता.
प्रधानमंत्री मोदी व्यक्तिगत सम्पकरे के आधार पर अपने समकक्षों के साथ आसानी से सहज रिश्ता बनाने में माहिर माने जाते हैं. उन्हें भारत के बारे में नेपाल के नेता और वहां की जनता के बीच दुष्प्रचार करके जो गलत धारणाएं बनाई गई हैं, उन्हें खंडित करना होगा. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज फरवरी के मध्य में नेपाल की यात्रा पर जा रही हैं. उम्मीद है कि उनकी प्रस्तावित यात्रा से भारत के प्रति नेपाल के दृष्टिकोण में बदलाव आएगा और दोनों देशों के बीच रिश्ते सहज हो सकेंगे.

डॉ. दिलीप चौबे


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