शिक्षा में निवेश की जरूरत

Last Updated 14 Jan 2018 03:29:16 AM IST

उन्नत और विकसित देश की श्रेणी में पहुंचने के लिए आतुर और एशिया के उभरते शक्ति-संतुलन में एक बड़े किरदार की भूमिका के लिए तैयार हो रहे भारतवर्ष में नये बजट का सबको बेसब्री से इन्तजार है.


शिक्षा में निवेश की जरूरत.

यह देख कर अच्छा लग रहा है कि सरकार सजग है, और व्यापार और वाणिज्य के सभी घटकों के साथ बातचीत कर रही है. परंतु विकास की प्रक्रिया का लक्ष्य तो मनुष्य ही है, और उसके लिए शिक्षा आवश्यक होती है. यह जरूर है कि अभी तक आर्थिक विमर्श में शिक्षा का जिक्र नहीं आया है. इसका एक कारण यह भी है शिक्षा कोई लाभकर उपक्रम तो है नहीं, उल्टे इसमें निवेश करना पड़ता है. परंतु देश के सपनों को आकार देने के लिए शिक्षा की जरूरत से नकारना भी मुश्किल है.

आज देश की शिक्षा व्यवस्था कई मुश्किलों से जूझ रही है. शिक्षित बेरोजगारों की समस्या बढ़ती जा रही है. नर्सरी से लेकर उच्च शिक्षा के स्तर तक विद्यालय और दूसरे शिक्षा संस्थानों में प्रवेश संघर्ष का सबब बनता जा रहा है. जो संस्थाएं हैं, उनके लिए अध्यापक और अन्य जरूरी संसाधन का अभाव बना हुआ है. पढाई की फीस को लेकर भी भारी विषमता व्याप्त हो रही है. शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर संदेह बढ़ता जा रहा है. सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र शिक्षा में दबदबा बना रहे हैं. इनसे बचने के लिए आर्थिक दृष्टि से समर्थ माता-पिता बच्चों को भारत से बाहर विदेश में पढ़ाना बेहतर मानकर काफी पैसा बाहर भेज रहे हैं. यह युक्ति समाधान न होकर दूसरे  तरह की समस्याओं को पैदा कर रही है.

स्मरणीय है कि शिक्षा को लेकर लगे 'सेस' के आधार पर शिक्षा के लिए अतिरिक्त वित्तीय संसाधन जुटाने की जो सरकारी कवायद शुरू हुई थी, उससे खासी धनराशि एकत्र की गई थी. उसका शिक्षा में समुचित विनियोग होना चाहिए था जो, मीडिया में चली खबरों के मुताबिक, अभी तक नहीं हो सका है. ऐसी स्थिति में एक गंभीर विषय स्वीकार करते हुए शिक्षा व्यवस्था को आज की जरूरतों के अनुसार सुदृढ़ करने पर विचार किया जाना जरूरी हो गया है.



नई सरकार ने लगभग चार साल पूर्व देश में एकता, स्वाभिमान, समता, बंधुता और समरसता के प्रकट भावों के साथ अपना काम शुरू किया था. भारत की संस्कृति और समाज के देसी स्वभाव पर विशेष  ध्यान देते हुए भूलते-बिसरते जा रहे राष्ट्रीय गौरव-बोध को भी जगाने का बीड़ा उठाया गया. इस माहौल में व्यापक भारतीय समाज को आशा बंधी थी. सरकार का 'सबका साथ और सबका विकास' का जन-मन के लिए मोहक और पूरे देश के लिए महत्वाकांक्षी नारा बुलंद करने वाली वर्तमान सरकार की नीतियों में शिक्षा को विशेष स्थान की दरकार थी. इस आशा को तब और पर लग गए जब नई शिक्षा-नीति बनाने पर तेजी से काम शुरू हो गया. फिर किन्हीं कारणों से यह काम ठहर गया. अब जब वर्तमान लोक सभा की अवधि धीरे-धीरे अंतिम चरण में पहुंच रही है, अभी तक न हमारी नई शिक्षा-नीति का पता है, और न ही शिक्षा के बजट-प्रावधानों में ही किसी तरह की वृद्धि के संकेत दिख रहे हैं.

आज विचारों की दृष्टि से हम निरंतर विपन्नतर होते जा रहे हैं. भारतीय राजनीति में गुरु -गंभीर घोषणाओं, आंकड़ों की बाजीगरी और सतही नवचारों का बाजार सदा से गर्म रहा है. वह आज भी कुछ एक अपवादों के साथ मौजूद है. आज हताश अध्यापक, दिग्भ्रमित छात्र और रोजगार के सिकुड़ते और सीमित होते अवसरों के साथ शिक्षा का परिदृश्य धूमिल हो रहा है. उसके लक्ष्य तथा उन्हें पाने के तरीकों को लेकर हम अस्पष्ट हैं. कहना न होगा कि हमारी अधिकांश सामाजिक समस्याओं का संबंध  शिक्षा से है. शिक्षा से अपेक्षा है कि वह  व्यक्ति में जो श्रेष्ठ है, उसे व्यक्त करे. अपनी संस्कृति का अर्जन भी है. वस्तुत: शिक्षा जीवन के लिए प्रशिक्षण-भूमि का काम करती है. वह सिर्फ  बौद्धिक ही नहीं अपितु शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक हर तरह के विकास को संभव करती है. इस तरह का सर्वांगीण विकास व्यक्ति को निजी जीवन और व्यवसाय में सफल बनाता है, और समुदाय का अंग बनाता है.

स्कूल के स्तर पर गंभीरता से अनुभव किया जा रहा है कि चेतना, भाषा और शिक्षा का आपस में गहरा संबंध है. सबको समान शिक्षा का अवसर मिले, मातृभाषा में शिक्षा दी जाए और खेलकूद, कलाओं और शारीरिक व्यायाम को उचित स्थान मिले. शारीरिक विकास ही नहीं बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक पक्षों की भी चिंता करनी होगी. आशा है शिक्षा नीति शीघ्र अंतिम रूप ले सकेगी. उसके लिए आवश्यक संसाधनों को भी सुनिश्चित किया जाएगा.

गिरीश्वर मिश्र


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