पर्यावरण : जुर्माने से भरपाई नहीं

Last Updated 09 Dec 2017 01:13:40 AM IST

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने आखिरकार श्री श्री रविशंकर द्वारा संचालित आर्ट ऑफ लिविंग के यमुना नदी के किनारे मार्च 2016 में कार्यक्रम को पर्यावरण के नजरिये से गलत माना है और उस नुकसान की भरपाई का आदेश दिया है.


पर्यावरण : जुर्माने से भरपाई नहीं

श्री श्री रविशंकर जब उस कार्यक्रम की तैयारी कर रहे थे तब एनजीटी ने पहले सख्ती दिखाई थी और यह उम्मीद बंधी थी कि वह पर्यावरण को होने वाले नुकसान को रोक सकेगा. लेकिन फिर उसके रुख में एक लचीलापन आया और उस कार्यक्रम को रोकने में वह सफल नहीं हो सका जबकि पर्यावरण का नुकसान होने की ठोस वजहें बताई गई थीं. भारतीय समाज के गठन और विस्तार के परंपरागत रास्ते में प्राकृतिक ढांचे और संतुलन को लेकर गंभीरता दिखाई देती है. लेकिन विकास की एक अलग से ऐसी अवधारणा  आयात की गई कि तमाम ऐसी चिंताओं और सुरक्षा के उपायों को समाज की रोज ब रोज की गतिविधियों से बाहर होते चले गए. विकास की भूख को अफीम के नशे के रूप में समाज में बांटा गया कि विकास के सामने पानी, हवा, मिट्टी, पेड़-पौधे, जंगल, जानवर और समस्त वातावरण में संतुलन का प्रश्न ही हाशिये पर धकेल दिया गया. लेकिन राष्ट्र का तो भूगोल होता है ,पर्यावरण का कोई राष्ट्र नहीं होता है.

पर्यावरण वैश्विक स्तर पर एक राजनीतिक और रणनीतिक प्रश्न हो गया है. पूंजीवादी देश प्रदूषण को पिछड़े और गरीब देशों के भीतर धकेलकर अपनी अमीरी और सुख सुविधाओं को पर्यावरण के स्तर पर भी बेहतर बनाने की कोशिश में लगातार रहते हैं. भारत में पर्यावरण के प्रश्नों को बारीकी से देखने की तमीज हाल में आई है. हम अभी सड़क और घरों में सफाई अभियान कूड़ा-कचरे को ठीक से रखने आदि जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत कर रहे हैं. जब महान नदियों को सुखा दिया. मजेदार बात है कि अपने धार्मिंक कूड़ों के लिए उन सूखी नदियों में बहते नाले को भी हम नहीं छोड़ रहे हैं. जाहिर-सी बात है कि एनजीटी से भी ये उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वह अपने फैसलों में कोई नीतिगत दबाव बनाने की अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करें. इसीलिए एनजीटी अपने आदेशों के जरिये पर्यावरण को शहरीकृत होने का एक भ्रम पैदा कर देता है क्योंकि उसके समक्ष ज्यादातर मसले शहरों और खासतौर से दिल्ली और मुबंई जैसे बड़े शहरों से जुड़े होते हैं. दिल्ली में वायु प्रदूषण के इर्द-गिर्द बड़े वाहनों को शहर में नहीं घुसने देने या सिमेंट, कंक्रीट के निर्माण पर रोक लगाने आदि जैसे फैसलों को लेकर एनजीटी चर्चा में रहता है. दरअसल पर्यावरण एक अलग विषय नहीं है, वह समाज में संपूर्णता का एक हिस्सा है. लेकिन एनजीटी की परिकल्पना में उसे केवल पर्यावरणीय पहलुओं पर अपना दृष्टिकोण और फैसला देना है. इसीलिए उसने दिल्ली में जंतर मंतर पर होने वाले राजनीतिक स्वतंत्रता के अधिकार के नुकसान होने की परवाह किए बगैरह ही ध्वनि प्रदूषण की दृष्टि से धरना-प्रदर्शन पर रोक लगा दिया.
एनजीटी भी केवल जुर्माना लगा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे मानवाधिकार आयोग किसी के मानवाधिकार के उल्लंघन के हालात में मुआवजा देने का निर्देश दे सकता है. एनजीटी ने श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम से होने वाले नुकसान के लिए जुर्माना देने का निर्देश दिया. यानी पर्यावरण के नुकसान को दुरु स्त करने के लिए उनसे पांच करोड़ रु पये जमा कराए गए. किसी के मानवाधिकार के उल्लंघन की मात्रा का आकलन रु पये-पैसे में नहीं किया जा सकता है. ठीक उसी तरह पर्यावरण के नुकसान का आकलन रु पये पैसे में संभव नहीं है. लेकिन पूंजीवाद का यह नियम है कि वह रु पये-पैसे के आधार पर नैसर्गिक अधिकारों व संसाधनों पर हमले की जरूरत करने के रास्ते तैयार कर लेता है. पर्यावरण को लगातार तमाम स्तरों पर नुकसान हो रहा है. लेकिन जब हालात एक सीमा से बाहर जाने के संकेत देता है तो सरकार और उसकी संस्थाएं सक्रिय दिखने लगती हैं. दिल्ली में वायु प्रदूषण पर लगातार कई वर्षो से चिंता की जा रही है. बसों में डीजल की जगह गैस आ गई और अब इसको भी नुकसानदेह बताया जा रहा है. यानी पर्यावरण को लेकर तात्कालिक कोई कदम उठाने के लिए ये संस्थाएं सक्रिय दिखती हैं.
पर्यावरण का मसला सरकार के फैसले और सरकारी संस्था एनजीटी के बीच के चलने वाली गतिविधियों का पर्याय नहीं है. अभी हद से हद यह होता है कि सरकार एक फैसला करती है तो उसके खिलाफ अधिकरण में जाया जा सकता है या कोई फैसला नहीं होने के हालात में जाया जा सकता है. लेकिन पर्यावरण के लिए कोई जन दबाव की स्थिति नहीं दिखती है; क्योंकि यह एक बुनियादी सवाल के रूप में हमारे लिए राजनीतिक प्रश्न नहीं बना हुआ है. जैसे दुनिया के कई देशों में पर्यावरण के मसलों को लेकर ही राजनीतिक पार्टयिां सक्रिय हैं और किसी सरकार के बनने और बिगड़ने की हालत में उनकी भूमिका होती है. आस्ट्रेलिया में भारत के एक कॉरपोरेट गौतम अडानी को कोयला की खादानों के लिए बड़े आंदोलन का सामना करना पड़ा और वहां की सरकार भी उसके सामने विवश हो गई. यहां बड़े बांधों के खिलाफ नर्मदा आंदोलन पर्यावरण की दृष्टि से भी सबसे बड़ा और लगातार चलने वाला है, लेकिन सरकारों ने लगातार उसकी उपेक्षा करते हुए अपने फैसलों को लागू किया. अदालतें भी कारगर भूमिका नहीं निभा सकीं.

एनजीटी का संगठनात्मक ढांचा सिविल और आपराधिक न्यायालयों से निकला है.उच्च न्यायालयों में मुकदमों के बोझ को कम करने के इरादे से पर्यावरण से जुड़े मुकदमें वहां आए हैं. यह पर्यावरण की सैद्धांतिकी से निकला प्राधिकरण नहीं है. पर्यावरणीय दृष्टि और दर्शन का  न्याय सिद्धांत अभी समृद्ध किया जाना बाकी है. पर्यावरण के न्यायिक सिद्धांतों को इस रूप में विकसित करना है कि पर्यावरण के नुकसान को ही रोका जा सकें. पर्यावरण को नुकसान की इजाजत और फिर जुर्माना लगाने का न्यायिक सिद्धांत एक धोखा है. इसमें केवल सरकार और संस्थाएं सक्रिय दिखती हैं, लेकिन पर्यावरण को नुकसान होता रहता है.

अनिल चमड़िया


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