स्वास्थ्य : इलाज की महंगाई का दंश

Last Updated 09 Dec 2017 01:05:16 AM IST

ऐसा कम ही होता है कि जब आम मरीजों के साथ अस्पतालों में की जाने वाली धोखाधड़ी की शिकायतों को गंभीरता से सुना जाए.


स्वास्थ्य : इलाज की महंगाई का दंश

यह तो और भी कम होता है कि आरोप साबित होने पर अस्पताल या डॉक्टर अपने किए की सजा पाएं. इधर हुई कुछ घटनाएं साबित कर रही हैं कि निजी अस्पतालों में इलाज में लापरवाही और बिलों के नाम पर बेहिसाब रकम वसूलने की प्रवृत्ति की बड़ी कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ी है.
हाल में एनसीआर के कई महंगे निजी अस्पतालों में एक के बाद एक कई घटनाएं हुई. पहला आरोप फोर्टसि अस्पताल पर लगा जहां महंगे बिल और डेंगू से मौत के मामले ने देश का ध्यान खींचा. मामला शांत भी नहीं हुआ था कि ऐसी ही एक घटना का आरोप मेदांता हॉस्पिटल पर लगा. आठ साल के बच्चे को डेंगू के इलाज के लिए भर्ती कराया गया था, लेकिन लाखों के खर्च के बाद भी जब वह ठीक नहीं हुआ और परिवार के पास आगे का बिल चुकाने के लिए पैसे नहीं बचे तो बच्चे को सरकारी राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया, जहां 22 नवम्बर को उसकी मौत हो गई. मैक्स अस्पताल में तो जन्मे दो में से एक जीवित बच्चे को भी मरा बताने की लापरवाही की गई. अस्पताल ने इन दोनों डॉक्टरों को बर्खास्त कर दिया तो दिल्ली सरकार ने अस्पताल का लाइसेंस रद्द कर दिया.
ऐसा नहीं है कि यह सब दिल्ली-एनसीआर में ही हो रहा है. देश भर से निजी अस्पतालों में इलाज की लापरवाही, बेइंतहा फीस और डॉक्टर-अस्पताल व जांच लैब्स के बीच साजिशन गठजोड़ की शिकायतें मिल रही हैं.

कुछ महीने पहले तमिलनाडु सरकार ने राज्य के पांच निजी अस्पतालों को गरीब मरीजों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करने के लिए दंडित किया था.  इन अस्पतालों ने वर्ष 2015 में मरीजों के दिल में खराब हो चुके स्टेंट लगा दिए थे. इसी तरह पाया गया कि मुख्यमंत्री की कॉम्प्रिहेंसिव हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम के तहत साल 2012 से अब तक चेन्नै के 60 अन्य निजी अस्पतालों ने चिकित्सा में लापरवाही बरती थी, जिन्हें राज्य सरकार ने 1 से 6 महीने के लिए सस्पेंड करने का फैसला लिया. इन अस्पतालों पर मेडिकल लापरवाही से लेकर चिकित्सा के मूल मानकों की अनदेखी करने का आरोप था. इधर, बेंगलुरु  में आयकर विभाग ने मेडिकल सेंटरों (लैब्स) और डॉक्टरों की मिलीभगत काऐसा ही भंडाफोड़ किया है. मामले में 100 करोड़ रु पये की अघोषित संपत्ति का पता चला है. विभाग ने कई आईवीएफ क्लीनिक्स और डायग्नोस्टिक सेंटरों पर छापा मारा था. बताया जा रहा है कि डॉक्टरों को मेडिकल टेस्ट्स के लिए लैब रेफर करने पर पैसे मिल रहे थे.
सबसे अहम बात यह है कि ज्यादातर अस्पताल और डॉक्टर मरीजों को उनके रोग के बारे में इतना भयभीत करते हैं कि बेचारा वही करने को मजबूर हो जाता है, जो वे चाहते हैं. इलाज के सरकारी ढांचे से निराश लोग जैसे-तैसे निजी अस्पतालों में चले जाएं तो दवाओं की कीमत ही उन्हें मार देती है. स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण के नाम पर पिछले कुछ दशकों में जिस तरह सरकारी अस्पतालों को हाशिये पर पहुंचाया गया है, उसी का एक पहलू यह है कि मरीजों को सरकारी अस्पतालों से दवाएं मिलनी बंद हो चुकी हैं. बेहद गरीब मरीजों को दवाएं और इलाज किसी तरह मिल भी जाए लेकिन सरकारी अस्पतालों में भर्ती आम मरीजों को लिखी जाने वाली दवाओं में फिलहाल सिर्फ  9 फीसदी दवाएं ही अस्पताल से दी जाती हैं. बाकी दवाएं उन्हें बाहर से मंगानी पड़ती हैं. डॉक्टर को दिखाकर घर चले जाने वाले मरीजों (आउटपेशेंट्स) के मामले में यह हिस्सा और भी छोटा सिर्फ  5 फीसदी है. करीब ढाई दशक पहले के समय से करें तो 1987 में सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने पर मरीजों को औसतन 31 फीसदी दवाएं अस्पताल से ही मिल जाती थीं. ओपीडी में दिखाने वाले मरीज भी तब अपनी 18 फीसदी दवाएं वहीं से लेकर जाते थे.

डॉक्टरों और फार्मा कंपनियों के बीच साठगांठ को तोड़ा जा सके तो भी हालात सुधर सकते हैं. बात सिर्फ डॉक्टरों की नहीं, पूरा मेडिकल-हेल्थ सेक्टर करप्शन में डूबा है. फार्मा कंपनियां, अस्पताल-नर्सिंग होम, ड्रग कंट्रोलर-इंस्पेक्टर सब इसमें शामिल हैं. मरीज डॉक्टर से लड़-झगड़ कर सस्ती जेनिरक दवा लिखवा भी ले तो वह किसी मेडिकल स्टोर पर नहीं मिलेगी. लैब टेस्ट का भी यही हाल है. ‘अनहोनी’ से डराए गए मरीज और उसके परिजन इस सबको सहने के लिए अभिशप्त हैं. इस पूरे सेक्टर को ‘ऑपरेशन क्लीन’ की जरूरत है.

अभिषेक कुमार


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