नोटबंदी : नाकाम कवायद

Last Updated 08 Nov 2017 01:07:48 AM IST

2011 में किए गए अमेरिका की पियू रिसर्च सर्वे के मुताबिक, 1955 में या उससे पूर्व जन्मे 95% अमेरिकियों का कहना था कि उन्हें अच्छे से याद है कि केनेडी की हत्या किए जाने के समय वे कहां थे, या क्या कर रहे थे.


नोटबंदी : नाकाम कवायद

वह दुखद घटना उन्हें आज भी भुलाए नहीं भूलती. 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या का दिन भी ऐसा ही है, जो भुलाए नहीं भूलता. उस दिन के साक्षी रहे हममें से अधिकांश लोगों को आज भी उस दुखद दिन का पल-पल याद है. आज भी मैं उस दिन की प्रत्येक घटना या बातों को नहीं भूला हूं. बीते वर्ष 8 नवम्बर भी ऐसा ही एक दिन है, जो हममें से अधिकांश लोगों के मन-मस्तिष्क में इसी प्रकार से अंकित हो चुका है.

मैं सिकन्दराबाद में अपने मित्रों के साथ घर पर था, और इस खबर को लेकर रोमांचित था कि प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करने वाले थे. मैं और मेरे मित्र टीवी के पास सिमट आए थे, और हमने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा सुनी : प्यारे भाइयों और बहनों, भ्रष्टाचार और काले धन की कमर तोड़ने के लिए हमने फैसला किया है कि अभी प्रचलित पांच सौ और एक हजार रुपये के करंसी नोटों की आज आधी रात यानि 8 नवम्बर, 2016 के बाद से कोई वैधानिक मान्यता शेष नहीं रहेगी.’ मेरे पास एक हजार और पांच सौ रुपये के जितने भी नोट थे, उस समय मेरी जेब में थे. कोई ज्यादा नहीं थे, लेकिन इस सच्चाई से ही मेरी कंपकंपी छूट गई कि अब वे मात्र कागज के टुकड़े भर रह जाएंगे. यह भी महसूस हुआ कि बैंक में मेरी हफ्तावार बचत का मोल मात्र चार हजार रुपये रह गया है. एकाएक मैं न केवल लुटा-पिटा बल्कि अपमानित भी महसूस करने लगा.

हमारे साथ उस रोज रात के खाने पर मौजूद लोगों में एक ऐसा भी था, जो काफी धनी-मानी था. लेकिन उसके चेहरे पर शिकन तक न थी. मैं उससे पूछ बैठा कि उसे इस फैसले से क्या कोई झटका नहीं लगा? उसका उत्तर था कि आप जैसा तो नहीं. फिर उसने जो कहा उसे मैं कभी नहीं भूल सकता. उसने कहा कि जिनके पास ‘दो नम्बर’ का पैसा है, वे मूर्खता से पैसे वाले नहीं बन बैठे हैं. जिस पैसे पर कर चोरी की गई होती है, उसे किसी दूसरे रूप में या देश की वित्तीय प्रणाली की पहुंच से बाहर रखा जाता है. जो मुझे पता चला वह सही ही था क्योंकि शोधों से भी बराबर पता चलता रहा है कि हर साल अघोषित आय का करीब आधा हिस्सा संपत्तियों में निवेश कर दिया जाता है, और करीब 44-46% को स्वर्ण और आभूषणों और विदेश में बेनामी संपत्तियों में खपा दिया जाता है. मात्र 4-6% हिस्से को ही नकदी के रूप में रखा जाता है.

सरकार ने एकाएक विमुद्रीकरण करके प्रणाली से लगभग 87% नकदी यानि 15.44 लाख करोड़ रुपये सोख लिए. प्रधानमंत्री ने जब घोषणा की कि नोटबंदी से देश को ‘काले धन’ से निजात मिल जाएगी तो समूचे राष्ट्र ने इसका स्वागत किया. सरकार ने नोटबंदी का यह कारण भी गिनाया कि जाली नोटों को खत्म करने के साथ ही आतंकियों को पैसा मिलने के संजाल को तोड़ना चाहती है. सही है कि एक हजार करोड़ रुपये की जाली मुद्रा की समस्या देश को दरपेश थी. 2014-15 में इसमें करीब 22% का इजाफा हुआ. 2015-16 में पांच सौ रुपये के 415 तथा सौ रुपये के 35% नोट जाली थे, जबकि बाकी एक हजार रुपये के जाली नोट थे. 

इन आंकड़ों को इस तथ्य के समक्ष रखें कि इस साल अप्रैल माह में पांच सौ रुपये के 1646 करोड़ और सौ रुपये के 1642 करोड़ रुपये की मुद्रा प्रचलन में थी. इस लिहाज से जाली मुद्रा प्रणाली में खासी कम ही थी, और क्षति पहुंचाने की स्थिति में नहीं थी. बेहतर होता कि उच्च मूल्य के नोटों के जरिए जाली मुद्रा को तरतीबवार तरीके से चलन से बाहर किया जाता. अब आरबीआई का कहना है कि बीते वर्ष की तुलना में वित्तीय वर्ष 17 में जाली नोटों को ढूंढ निकालने का आंकड़ा 20.4% ज्यादा रहा. इसके बावजूद जाली नोटों का कुल मूल्य मामूली 42 करोड़ रुपये रहा. तो इतनी बड़ी मुसीबत मोल लेने की क्या जरूरत थी? यह तो स्पष्ट है कि ऐसे प्रमुख ‘सुधार’ के लिए सरकार की तैयारी न के बराबर थी. जब करंसी नोटों की कमी हो गई तो आरबीआई और बैंकों के पास पर्याप्त नोट नहीं थे जिससे कि करंसी के अभाव को पूरा कर पाते. बल्कि हुआ यह कि राष्ट्र की वित्तीय प्रणाली चरमराती दिखी.

दिहाड़ी कामगारों, जल्द खराब होने वाले साज-सामान का करोबार करने वाले छोटे खुदरा व्यापारियों और किसानों पर तो बुरी गुजरी. और इनकी संख्या करोड़ों में है. किसानों को फसल की बुआई में दिक्कत हुई. आरबीआई को नये नोट लाने में महीनों लग गए. और इस दौरान संकट बना रहा. इतने लंबे समय तक मुद्रा की कमी के संकट से अर्थव्यवस्था को नुकसान होना लाजिम था. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो राजनेता से ज्यादा विख्यात अर्थशास्त्री हैं, ने अनुमान जताया था कि नोटबंदी के फैसले से जीडीपी में 2% तक की कमी आ सकती है. उनका आकलन अब तथ्य साबित हुआ है. आधिकारिक रूप से जारी किए गए जीडीपी के आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं. 3600 करोड़  रुपये, जो 500 और 2000 रुपये के नये नोट जारी करने में व्यय होने का अनुमान है, को भी शामिल कर लें तो जीडीपी को  हुआ नुकसान करीब तीन लाख करोड़ रुपये के करीब बैठता है. यह पैसा कभी वापस नहीं आ सकेगा. सिर्फ पागलपन के चलते ऐसा हुआ है. अब यह भी देखें कि भारत की श्रम शक्ति करीब 45 करोड़ है. इसमें संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी मात्र 7% ही है. बाकी का श्रम बल असगंठित क्षेत्र में नियोजित है. वह भी दिहाड़ी कामगारों के रूप में. उनके घरों में नोटबंदी के बाद के दिनों में दो वक्त का चूल्हा तक नहीं जल पाया. इस प्रकार कथित ‘काले धन’ के नाम पर सरकार ने प्रचलन से वास्तविक मुद्रा प्रवाह को सोख लिया.

अर्थव्यवस्था को हो चुके नुकसान से अनजान बने प्रधानमंत्री ने अब एक नया राग छेड़ दिया है. जोर-शोर से कह रहे हैं कि वह तो उस गरीब-गुरबा के लिए लड़ रहे है, जिसे पिछले दशकों के दौरान पैसे वाले उच्च वगरे ने लूटा है. इस प्रकार उनने उच्च वगरे के खिलाफ माहौल बना डाला और वर्ग संघर्ष की आंच को सुलगा दिया है. इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य लेकिन कटु सत्य है कि उनके सर्वाधिक मुखर समर्थकों में अधिकांश वे लोग ही हैं जिनके पास ‘काली दौलत’ है. कहने की जरूरत नहीं कि नोटबंदी की पूरी कवायद बुरी तरह से नाकाम हुई है.

मोहन गुरुस्वामी


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