प्रदूषण : जहरीले धुएं की जकड़न

Last Updated 09 Nov 2017 04:56:45 AM IST

सर्दियों की आहट के साथ उत्तर भारत में धुंध लौट आई है. दिल्ली-एनसीआर में तो हालात सबसे ज्यादा खराब है.


प्रदूषण : जहरीले धुएं की जकड़न

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने इधर दिल्ली के कई इलाकों समेत, आनंद विहार, गाजियाबाद और नोएडा में हवा की गुणवत्ता के सूचकांक को ‘गंभीर’ अवस्था जताते हुए दर्ज किया है. उल्लेखनीय है कि इस धुंध में पंजाब-हरियाणा के खेतों में जलाई गई पराली का योगदान न के बराबर है, क्योंकि उधर से हवा की कोई ऐसी लहर इस दौरान यहां नहीं आई जो स्मॉग अपने संग ले आती. खुद दिल्ली-एनसीआर में सर्वोच्च अदालत के निर्देश के बाद पटाखों को जलाने से भी काफी परहेज बरता गया. तो सवाल है कि यह धुंध आखिर कहां से आई?

असल में इसके पीछे है इस पूरे इलाके में हर रोज बढ़ती कारों की संख्या. दिल्ली और इसके निकटवर्ती शहरों में बढ़ते निजी वाहनों से जहां सड़कों पर दबाव बढ़ा है, उनसे निकलने वाले जहरीले प्रदूषण की मात्रा में भी भयानक इजाफा हुआ है. 2016 बीतते-बीतते राजधानी दिल्ली की सरकार निजी कारों से जुड़ा आंकड़ा पेश करके बताया था कि वर्ष 2015-2016 के बीच इस महानगर में वाहनों की संख्या 97 लाख पार कर गई है.

2014-15 में यह संख्या 88 लाख थी जो कि एक ही साल में 9.93 फीसद बढ़कर एक करोड़ के करीब पहुंच गई.  इन निजी वाहनों में सबसे बड़ी संख्या कारों की है, जिसका उपभोक्ता शहरी मध्यवर्ग है. मध्यवर्गीय तबके ने चार से पांच लाख की कार वैसे तो एक स्टेटस सिंबल या सपने के तहत ही खरीदी थी, लेकिन बढ़ती महानगरीय दूरियों और पब्लिक ट्रांसपोर्ट की खामियों के चलते कारण वह उसकी अनिवार्य जरूरतों में शामिल हो गई है.

निजी वाहनों का यह शौक या कहें कि मजबूरी कैसी-कैसी त्रासदियां रच रहा है, इसका सभी को थोड़ा-बहुत अनुमान है. जैसे, आईआईटी-कानपुर द्वारा जारी एक रिपोर्ट में साफ किया गया है कि देश में सर्वाधिक वाहन घनत्व वाले महानगर दिल्ली में हवा को जहरीला करने में वाहनों का योगदान 25 फीसद तक है. इस अध्ययन पर मुहर लगाते हुए दिल्ली सरकार ने बताया था कि देश की राजधानी में वर्ष 2015 में साढ़े 6 हजार लोगों की मौत श्वास संबंधी बीमारियों की वजह से हुई, जिसके लिए यहां की प्रदूषित हवा सीधे तौर पर जिम्मेदार है.

वैसे तो ऑड-ईवन फॉर्मूला अपना कर, कार-फ्री डे का आयोजन करके और 15 साल से ज्यादा पुराने वाहनों को सख्ती के साथ सड़कों से हटाने जैसे उपाय यहां की सरकार कर चुकी है, लेकिन जिस तरह से लोग कारों के पीछे भाग रहे हैं, उसका नतीजा है कि इस शहर में ट्रैफिक जाम और स्मॉग (जहरीली धुंध) की समस्याएं यहां की स्थायी नियति बन गई हैं. मसला अकेले दिल्ली-मुंबई का नहीं है. कानपुर, इंदौर, लुधियाना, अहमदाबाद समेत ज्यादातर उत्तर-मध्य भारतीय शहरों में ट्रैफिक जाम और वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण ने लोगों को सांस लेना मुश्किल कर दिया है. इसके कारण आम लोगों की जिंदगी औसतन तीन साल तक कम हो रही है.

इस बारे में एक अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो, हार्वर्ड और येल के अर्थशास्त्रियों का है. इसके मुताबिक देश के करीब 66 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं, जहां की हवा में मौजूद सूक्ष्म कण पदाथरे (पार्टकिुलेट मैटर) का प्रदूषण भारत के ही सुरक्षित मानकों से ऊपर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) वर्ष 2014 के एक सर्वे में यह भी बता चुका है कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 शहर भारत में हैं.

डब्ल्यूएचओ ने यह भी कहा था कि वायु प्रदूषण भारत में अकाल मौतों की प्रमुख वजहों में से एक है. इससे संबंधित बीमारियों की वजह से हर साल छह लाख बीस हजार लोगों की मौतें भारत में होती हैं. कार पर पूंजी लगाने वालों की मजबूरी यह है कि महंगी होती प्रॉपर्टी और आबादी के दबाव के मद्देनजर उन्होंने जिन उपनगरीय इलाकों में निवास को प्राथमिकता दी है, वहां से कार्यस्थल तक आना-जाना आसान नहीं है.

दिल्ली से बाहर मेट्रो का इतना विस्तार नहीं हुआ है कि सभी लोग आसानी से दिल्ली पहुंच सकें. मेट्रो की अपनी सीमाएं भी है. दिल्ली-एनसीआर में तो लोग मेट्रो स्टेशन तक पहुंचने के लिए भी कारों का इस्तेमाल करते हैं. मेट्रो के बरक्स पब्लिक ट्रांसपोर्ट के रूप में बसें लोगों को ऐसी सहूलियत मुहैया नहीं करा पा रही हैं कि वे कार खरीद को तिलांजलि दे सकें. जब तक कारों की तादाद काबू में नहीं लाई जाती, ट्रैफिक जाम से लेकर धुंध के कहर-जहर को रोकना तकरीबन नामुमकिन ही है.

अभिषेक कुमार


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