एनटीपीसी : ऐसे हादसों पर रोक जरूरी

Last Updated 08 Nov 2017 01:00:08 AM IST

नवम्बर 1 को ऊंचाहार (रायबरेली) स्थित एनटीपीसी के ताप बिजलीघर में हुई भीषण दुर्घटना में अभी तक 33 मजदूर मारे गए हैं व 100 से अधिक घायल हैं.


एनटीपीसी : ऐसे हादसों पर रोक जरूरी

लगभग 60 मजदूरों के गंभीर रूप से घायल होने के समाचार हैं. हालांकि दुर्घटना के कारणों की विस्तृत स्थिति पूरी जांच से ही सामने आएगी, पर आरंभिक जानकारियों से उच्च स्तर पर गंभीर मानवीय गलतियों के संकेत तो मिलने ही लगे हैं. आरोप है कि बड़ी संख्या में ठेका मजदूरों को खतरनाक स्थितियों में कार्य करने को भेजा गया, बॉयलर के ठीक रख-रखाव या मेनटेनेंस में भी कमी रही.

500 मेगावाट की यूनिट 6 को जल्दबाजी में चालू किया गया, जिससे सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा सका. फिलहाल इस बारे में पूरी जानकारी के लिए चाहे कुछ इंतजार करना पड़े पर विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर होने वाली कार्यस्थल की दुर्घटनाओं से इतना तो स्पष्ट है कि जरूरी सावधानियां अपना कर इनमें बहुत कमी लाई जा सकती है.

हकीकत यह है कि जहां सीवर की सफाई, कुछ तरह के खनन कार्यों, रसायन व विस्फोट जैसे उद्योगों में दुर्घटनाएं बहुत समय से अधिक होती रही हैं, वहां अब पहले सुरक्षित माने जाने वाले क्षेत्रों जैसे कृषि में भी जानलेवा दुर्घटनाएं बढ़ रही है जैसा कि हाल में विदर्भ क्षेत्र में पेस्टीसाइड छिड़काव की दुर्घटनाओं में होने वाली बड़ी संख्या में मौतों या किसानों व मजदूरों के जहरीलेपन से प्रभावित होने की घटनाओं से सिद्ध हुआ. आक्यूपेशनल हेल्थ एंड सेफ्टी के विकोष ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़ों के आधार पर बताया है कि दुनिया में एक वर्ष में 12 करोड़ आक्यूपेशनल या रोजगार से जुड़ी हुई दुर्घटनाए होती हैं. इनमें से 210000 दुर्घटनाएं जानलेवा सिद्ध होती हैं.

प्रतिदिन, औसतन ऐसे 500 व्यक्ति हैं, जो रोजगार के लिए अपने घर से जाते हैं पर कार्यस्थल पर दुर्घटना के कारण फिर कभी घर नहीं लौटते हैं. आक्यूपेशनल र्घटनाओं में मौतों से अधिक गंभीर समस्या तरह-तरह की गंभीर चोट लगने की हैं. इस कारण बड़ी संख्या में प्रभावित व्यक्ति विशेषकर मजदूर तरह-तरह की अपंगता का शिकार भी होते हैं. यदि विश्व में जो आक्यूपेशनल दुर्घटनाओं की दर है, यहीं भारत में भी मान ली जाए हो तो यहां एक वर्ष में 2 करोड़ आक्यूपेशनल दुर्घटनाएं होती हैं.

यह दुर्घटनाएं कृषि, बड़े व छोटे उद्योगों, विभिन्न निर्माण स्थलों, खदानों, वनों आदि विभिन्न कार्यस्थलों पर होती हैं. पर इनमें से बहुत कम दुर्घटनाएं ही संज्ञान में आती हैं या इनका कोई रिकॉर्ड रखा जाता है. इनसे प्रभावित होने वालों की बहुत कम क्षतिपूर्ति हो पाती है. विशेषज्ञों के मुताबिक यह जरूरी नहीं है कि आधुनिकता व मशीनीकरण के आगमन से सुरक्षा की स्थिति में सुधार हो. कई बार सुरक्षा पर प्रतिकूल असर भी पड़ सकता है. अत: तकनीकी में बदलाव के समय सेफ्टी का विशेष ध्यान रखना जरूरी है. डॉ. रोनाल्ड स्किब ने अपने अध्ययन में बताया है कि प्राय: सभी दुर्घटनाओं के कई मिले-जुले कारण होते हैं पर इनमें मानवीय गलतियों की मुख्य भूमिका होती है. गार्डन एम. स्मिथ और मार्क वीजलराइट ने कार्यस्थल दुर्घटनाओं को कम करने में ‘पब्लिक हेल्थ’ एप्रोच की पैरवी की है.

उन्होंने बताया है कि सामान्यत: दुर्घटनाओं को कम करने के प्रयास एक कंपनी या एक इकाई में केंद्रित होते हैं. पर यदि जन-स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखा जाए, जो किसी स्थान के सभी उद्योगों व वहां की आबादी को समग्र रूप से देखते हुए पूरे क्षेत्र का नियोजन सुरक्षा की दृष्टि से करना चाहिए. जहां खतरनाक स्थिति का बुरा असर उद्योग में काम करने वाले लोगों पर पड़ता है, वहां आसपास रहने वाले लोगों को भी इससे जुड़े खतरे सहने पड़ते हें, जैसे कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी दुर्घटनाओं में कई बार देखा गया है.

इस क्षेत्र में हुए अनुसंधानों से हादसों की संभावना को कम करने के व उनसे होने वाली मौत की संभावना को कम करने के कई उपाय उपलब हुए हैं. स्वीडन, फिनलैंड, जापान व जर्मनी ने जानलेवा सिद्ध होने वाली कार्यस्थल की दुर्घटनाओं को कम करने में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है. यह देश जानलेवा कार्यस्थल की दुर्घटनाओं में 30 से 40 वर्षो में लगभग 60 से 70 प्रतिशत की कमी कर सके हैं. यह उपलब्धि महत्त्वपूर्ण तो है, पर यदि विश्व स्तर पर देखें तो अभी यह उपलब्धि बहुत कम क्षेत्रों तक सीमित है. इससे अधिक क्षेत्र ऐसे हैं जहां अभी स्थिति बहुत चिंताजनक बनी हुई है. अत: कार्यस्थल की दुर्घटनाओं को कम करने के लिए अभी बहुत प्रयास बाकी हैं. हमारे देश में अभी इस क्षेत्र में ज्यादा प्रगति नहीं हो सकी है व कई चुनौतियां हमारे सामने हैं.

भारत डोगरा


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