दौरे से क्या हासिल?

Last Updated 07 Nov 2017 06:11:33 AM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी एशिया यात्रा पर हैं. पश्चिमी मीडिया के एक धड़े के अनुसार उनका टूर दशकों में संपन्न होने वाला एक ट्रिकीस्ट डिप्लोमैटिक टूर (चतुराईयुक्त कूटनीतिक यात्रा) है.


दौरे से क्या हासिल?

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या किसी को भी अभी तक स्पष्ट हो पाया है कि ट्रंप पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की ‘एशिया पीवोट’ नीति पर चल रहे हैं, या उसका परित्याग कर चुके किसी नये सिद्धांत को लेकर बढ़ रहे हैं? सवाल यह भी कि क्या ट्रंप मान कर चल रहे हैं कि एशिया में शांति के लिए धमकी और युद्ध ही सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं? ट्रंप भले ही पूर्वी एशियाई देशों के समिट में शामिल हो रहे हों लेकिन क्या उनका मर्म व जरूरतें जान पाए हैं? वास्तव में पूर्वी एशियाई देश किससे भय खाते हैं, उ. कोरिया से या चीन से? एशिया शांति का रास्ता कहां से होकर जाएगा-प्योंगयांग या बीजिंग?
ट्रंप की यात्रा से पहले उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल एच. आर. मैकमास्टर ने उनकी यात्रा के तीन लक्ष्य मोटे तौर पर गिनाए हैं. पहला-उ. कोरिया के परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए अंतरराष्ट्रीय संकल्प मजबूत करना, दूसरा-स्वतंत्र एवं मुक्त ¨हद-प्रशांत क्षेत्र को बढ़ावा देना; और तीसरा-निष्पक्ष एवं परस्पर व्यापार तथा आर्थिक गतिविधियों के जरिए अमेरिका को समृद्ध बनाना. ट्रंप की यात्रा के रणनीतिक केंद्र टोक्यो और सियोल हैं, जबकि शेष औपचारिक. कारण यह है कि चीन और द. कोरिया की सीमा उ. कोरिया से लगती है, और जापान को उसकी समुद्री सीमा स्पर्श करती है. उ. कोरिया जिस तरह परमाणु ताकत बढ़ा रहा है, और उ. कोरियाई शासक किंम जोंग उन जैसी आक्रामता का प्रदर्शन कर रहे हैं, उससे  उ. कोरिया से सर्वाधिक खतरा जापान और द. कोरिया को ही है.

कुछ विश्लेषकों के अनुसार ट्रंप की यात्रा दशकों में कहीं एक बार होने वाली युक्तिपूर्ण या चतुराई भरी कूटनीतिक यात्रा है. इस दौरान वे एक दिन बीजिंग में बिताएंगे जबकि शेष समय पूर्वी एशियाई देशों में. इस दौरान वे द्विपक्षीय और बहुपक्षीय रिश्तों को परखेंगे. उन्हें मजबूत करने की कोशिश करेंगे. संभव है कि इस दौरान योकोता (जापान) और गुआम (द. कोरिया) जाकर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल हों. लेकिन एशिया प्रशांत क्षेत्र में किसी कदम को उठाने से पहले पिछले दो दशकों की अमेरिकी ट्रांस-पेसिफिक (या इंडो-पेसिफिक) नीति का अध्ययन करना होगा ताकि उन्हें मालूम चल सके कि पूर्वी एशियाई देश अमेरिका पर कितना भरोसा कर सकते हैं, या अमेरिका इन्हें भरोसे में लिए बगैर कितनी लंबी और किस किस्म की लड़ाई लड़ सकता है. हां, वे 10 और 11 नवम्बर को वियतनाम में रहेंगे, जहां हनोई में द्विपक्षीय संबंधों पर तथा अगले दिन दनांग में एशिया-पेसिफिक इकोनॉमिक कोऑपरेशन इकोनॉमिक लीडर्स की मीटिंग में बहुपक्षीय आयाम तलाशने की कोशिश करेंगे. 12 व 13 नवम्बर को मनीला में होंगे जहां अमेरिका के इस क्षेत्र के साथ व्यापारिक रिश्तों को पुख्ता करने की कोशिश होगी. इस औपचारिक उपस्थिति से उन्हें अतिरेक लाभ कितना मिलेगा, यह कहना मुकिल है. लेकिन उम्मीद कम ही है क्योंकि ओबामा की एशिया पीवोट नीति के नेपथ्य में जाने के बाद पूर्वी एशियाई देश पुन: ड्रैगन की फुफकार से असहज महसूस करने लगे हैं. 
यहां एक ही बात समझने की है कि ट्रंप चीन के अतिरिक्त चार में से उन दो राष्ट्रों में शिरकत कर रहे हैं,  जिनका चीन से दक्षिण चीन सागर को लेकर तीव्र विवाद है, और फिलीपींस के कारण ही चीन इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ अर्बिट्रेशन में मुंह की खा चुका है. शेष दो राष्ट्र यानि जापान और द. कोरिया वे हैं, जिनका उ. कोरिया से सीधा टकराव है, लेकिन आर्थिक प्रतिस्पर्धा चीन से भी है. चीन का उद्देश्य प्रशांत सागर में अपनी शक्ति को स्थापित करना ही नहीं बल्कि उसे बनाए रखना भी है, और इसके लिए उसे उ. कोरिया की जरूरत है. इसलिए चीन कदापि नहीं चाहेगा कि अमेरिका उ. कोरिया को आतंकवादी घोषित कर, उसके खिलाफ उसी तरह की कार्रवाई करे जैसी अफगानिस्तान के खिलाफ की थी, या इराक के खिलाफ. इतना तो मानकर चलना चाहिए कि चीन उ. कोरिया को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने संबंधी विषय पर इंटरनेशनल कंसेंसस नहीं बनने देगा. न ही सुरक्षा परिषद में इससे संबंधित प्रस्ताव पास होने देगा.
ऐसा नहीं कि ट्रंप प्रशासन चीन के इस नजरिए से वाकिफ नहीं है. एक बात और, उ.  कोरिया अब चीन के दबाव में उस तरह से नहीं आएगा जैसे कि पहले आ जाता था. संभव है कि उ. कोरिया चीन की बात मानने के लिए सौदेबाजी करे. स्वाभाविक है कि संगत अनुपात में चीन भी अमेरिका से उ. कोरिया के नाम पर सौदेबाजी करेगा.
चूंकि ट्रंप की विदेश नीति में अब तक सुनिश्चित नहीं है कि वह एशिया-पीवोट पर आधारित होगी या मॉस्को पीवोट पर या बीजिंग-पीवोट पर (ऐसा संभव है क्योंकि ट्रंप एक व्यवसायी हैं, और उनकी बेटी मुख्य सलाहकार की भूमिका में हैं, इसलिए वे व्यापारिक रिश्तों पर विशेष ध्यान देते हुए बीजिंग के करीब जा भी सकते हैं). ऐसे में द. कोरिया और जापान भले ही उन पर भरोसा कर लें लेकिन वियतनाम और फिलीपींस सहित पूर्वी एशियाई देश उन पर भरोसा करेंगे, यह कहना मुश्किल है. तब ट्रंप के इसे दौरे को यूरोपीय-अमेरिकी मीडिया के मुताबिक ट्रिकीस्ट डिप्लोमैटिक माना जाए या फिर बेसलेस डिप्लोमैटिक?
बहरहाल, व्हाइट हाउस चाहता है कि उ. कोरिया को आतंकवादी राष्ट्र करार दे. ट्रंप चाहते हैं कि किम जोंग उन को दंड दिया जाए और अमेरिकी शक्ति की पुनप्र्रतिष्ठा हो. जापान और द. कोरिया सुरक्षा चाहते हैं, और एशियाई देश शांतिपूर्ण विकास. चीन ट्रांस-पेसिफिक में एकाधिकार चाहता है. ऐसे में तो यही लगता है कि एशिया-प्रशांत नये रणनीतिक गेम का क्षेत्र बनने जा रहा है. महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका दक्षिण-एशिया और इंडो-प्रशांत क्षेत्र के केंद्र में भारत को निर्णायक भूमिका निभाने का प्रस्ताव रख रहा है. लेकिन क्या डोनाल्ड ट्रंप और उनके अमेरिका फस्र्ट को परखा जा चुका है? शायद नहीं, फिर तो सावधान रहने की जरूरत है.

रहीस सिंह


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