मनोरोग : बदलनी होगी जीवनशैली

Last Updated 07 Nov 2017 05:59:43 AM IST

रोजमर्रा की भागम-भाग जिंदगी में आदमी का बढ़ता गुस्सा, सरदर्द, पीठदर्द, हताशा, निराशा व नकारात्मक विचारों की प्रबलता तत्पश्चात अवसाद ये कुछ ऐसे लक्षण हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि ये मानिसक रोगों के लक्षण हैं.


मनोरोग : बदलनी होगी जीवनशैली

लेकिन कथित विकास की प्रतिस्पर्धा में प्राय: लोग इसे मानसिक रोग मानने को तैयार नहीं. यही कारण है कि मनोरोगियों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.
वैसे तो पूरी दुनिया में मनोरोगियों की बहुत बड़ी तादाद है, और वह लगातार बढ़ती ही जा रही है. लेकिन भारत जो गरीबी में जीते हुए भी इस रोग से 90 के दशक के पहले तक तकरीबन अछूता था, यहां अब रोग तेजी से पांव पसारता जा रहा है. आर्थिक उदारीकरण के बाद की समृद्धि ने देश में मनोरोगियों की भी बाढ़-सी ला दी है. वैसे तो देश या दुनिया में कुल कितने मानसिक रोगी हैं, इसका ठीक-ठीक आंकड़ा तो कहीं भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि आम तौर पर 99 फीसद लोग इस रोग से प्रभावित होने के बावजूद चिकित्सकों के पास नहीं जाते और न ही खुद को मानसिक रोगी ही मानते हैं.

बावजूद इसके भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दावा है कि देश की लगभग 7 करोड़ आबादी मनोरोगों के चपेट में है जबकि यह तादाद 1991 तक महज 3 करोड़ ही थी. हालांकि सरकार ने हाल के दिनों में इस ओर ध्यान दिया है, और संसद ने लंबित मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक, 2013 को मंजूरी दे दी है. लेकिन केवल कानून बन जाने से इस समस्या का समाधान संभव नहीं दिखता. समाजशास्त्री डॉ. अविनाश सिंह कहते हैं कि इस बीमारी के लिए पाश्चात्य जीवन शैली भी काफी हद तक जिम्मेदार है.

कथित विकास और विलास की अतृप्त प्रतिस्पर्धा के चलते आदमी को अपने लिए वक्त ही नहीं है. उनका दावा है कि अकेले अमेरिका की 20 फीसदी आबादी किसी न किसी मनोरोग से प्रभावित है. धन कमाने की अंधी दौड़ में वे खुद को मानसिक रोगी मानने को तैयार नहीं हैं. वहीं, भारत में जहां 1991 तक महज 3 फीसद लोग इसके दायरे में थे, उनकी तादाद भी अब बढ़कर 6 फीसद से ज्यादा हो गई है. यद्यपि भारत में योग क्रांति के बाद के बाद लोगों में अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. लोगों की जीवन शैली में बदलाव आ रहा है. लेकिन विकराल हो चुकी इस समस्या का व्यापक समाधान सिर्फ  योग से संभव नहीं.

इसके लिए सरकार के साथ ही सामाजिक संगठनों को भी आगे आना होना. सरकार का दायित्व है कि वह पीड़ितों के समुचित इलाज का प्रबंध करे, तो सामाजिक संगठन लोगों को जागरूक करें और अपने स्तर से उन्हें इस मानसिक त्रासदी से उबरने में सहयोग दें. लेकिन अभी तक सरकार और सामाजिक संगठन, दोनों ही अपने दायित्व पर खरे नहीं उतरे हैं. भारत में 1982 से ही जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम चल तो रहा है पर इसकी गति बेहद धीमी है. देश भर के 660 जिलों में अभी तक महज 443 जिलों में ही मानसिक रोग निवारण केंद्र खुल सके हैं. तो देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों, जिनकी आबादी 6 करोड़ से ज्यादा है, में अभी तक एक भी चिकित्सा केंद्र नहीं खुल पाया है. आंकड़े बताते हैं कि देश की 3.1 लाख आबादी पर महज 1 मनोचिकित्सक उपलब्ध है. इनमें भी 80 फीसद चिकित्सक तो शहरी क्षेत्रों में हैं. इस लिहाज से ग्रामीण क्षेत्रों में तो 10 लाख की आबादी पर एक मनोचिकित्सक ही उपलब्ध है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा तो और भी चौंकाने वाला है. उसका कहना है कि पिछले 15 सालों में देश भर में तकरीबन 126166 लोगों ने विभिन्न मानसिक रोगों के चलते आत्महत्याएं की हैं. इनमें सर्वाधिक तादाद अकेले महाराष्ट्र में रही, जहां 19601 लोगों ने आत्महत्या की तो प. बंगाल दूसरे स्थान पर रहा. वहां 13932 लोगों ने अपना जीवन गंवा दिया. इसकी विकरालता को इस आधार पर समझा जा सकता है कि दुनिया का हर चौथा आदमी कभी न कभी मानसिक रोग का शिकार हुआ है. लेकिन कुछ आदतों में सुधार करके इससे बचा भी जा सकता है. मनोचिकित्सक कहते हैं कि व्यक्ति अपनी कुछ आदतों जैसे ज्यादा देर तक टीवी देखना, सेलफोन का ज्यादा इस्तेमाल आदि के साथ ही देर तक सोने की आदतों जैसी आदतों का परित्याग कर इससे बच सकता है. इसके अलावा, नियमित 30 मिनट का व्यायाम एवं ध्यान भी बेहतर परिणाम दे सकता है. लेकिन जो इसकी चपेट में हैं, उन्हें चिकित्सकीय परामर्श जरूर लेना चाहिए.

विंध्यवासिनी त्रिपाठी


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