भाजपा- तुलना की राजनीति से परे

Last Updated 19 Oct 2017 03:15:29 AM IST

गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपानी ने निर्वाचन आयोग पर यह आरोप लगाया है कि राज्य के 2012 के विधान सभा चुनाव के दौरान कांग्रेस की मदद की थी.


भाजपा- तुलना की राजनीति से परे

मुख्यमंत्री ने यह आरोप कांग्रेस के उस आरोप में लगाया कि 2017 में होने वाले गुजरात विधान सभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान करने के साथ नहीं किया. पांच वर्ष पूर्व 2012 के विधान सभा चुनाव की तारीख का ऐलान एक साथ किया गया था. निर्वाचन आयोग एक केंद्रीय संवैधानिक संस्था है. कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात की विधान सभा के चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान नहीं करने पर अपनी प्रतिक्रिया में यह कहा कि गुजरात और केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और वह गुजरात के विधान सभा चुनाव से पूर्व मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कई तरह की घोषणाएं करना चाहती है.

सर्वविदित है कि मतदान के लिए तारीखों का ऐलान होने के बाद निर्वाचन क्षेत्रों के लिए चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाती है. आचार संहिता के लागू होने के बाद सरकारों के लिए खासतौर से ये मुसीबत होती है कि वह मतदाताओं को तात्कालिक रूप से लुभाने की कोशिश नहीं कर सकती है. संसदीय राजनीति में यह एक पक्की धारणा बन गई है कि मतदाताओं की याददाश्त बेहद क्षणिक होती है. वे पुरानी बातें भूल जाते हैं और नई तरह की घोषणाएं या नई भावनाओं की उपज से प्रभावित होकर ही मतदान करते हैं. इसीलिए पार्टियां यह कोशिश करती हैं कि मतदाताओं के बीच अपने अनुकूल भावनाएं खड़ी की जाएं.

आचार संहिता चुनाव आयोग की ही देन नहीं है. आचार संहिता राजनीतिक पार्टियों की रजामंदी से बनी है. लेकिन जिस तरह से चुनाव को लेकर संसद में अपने द्वारा बनाए गए कानून व नियमों को राजनीतिक पार्टियां तोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ती है, उसी तरह से वे किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की तर्ज पर आचार संहिता को तोड़ने की कोशिश करती है. मगर राजनीतिक दलों द्वारा नियमों, कानूनों व आचार संहिता को तोड़ने के लिए फिर भी कोशिश करनी पड़ती है. अपना तकनीकी बचाव करना पड़ता है. सत्ताधारी पार्टी का पक्ष मजबूत करने के इरादे से सरकार के लिए आचार संहिता को तोड़ने की कोशिश भी मुश्किल होती है.

संसदीय राजनीति की चुनावी संस्कृति में कई तरह की विकृतियां मौजूद हैं और देश का संसदीय लोकतंत्र इन्हीं विकृतियों के साथ बढ़ रहा है. लेकिन इन विकृतियों को और बढ़ाने का प्रयास हो और इस तर्ज पर कि विपक्ष ने भी करता है तो फिर सरकार नाम की संस्था पर भी आम लोगों का भरोसा खत्म होगा. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत ने रुपानी के आरोप का जवाब दे दिया कि 2012 के विधान सभा चुनाव में हिमाचल प्रदेश की तरह ही गुजरात के लिए भी चुनाव आचार संहिता 83 दिनों के लिए लागू थी. हिमाचल प्रदेश के लिए आयोग द्वारा चुनाव का ऐलान करने के बाद भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने गुजरात विधान सभा के चुनाव की तारीख नहीं घोषित करने के पक्ष में अपने तर्क दिए थे और बताया था कि किन-किन वर्षो में दोनों राज्यों के लिए चुनाव की तारीखों का ऐलान करने के बीच कितने दिनों का फर्क था.

रुपानी ने एक तो कांग्रेस के इस आरोप को पुष्ट किया है कि आयोग ने भाजपा और केंद्र की सरकार के प्रभाव में हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात विधान सभा के लिए चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं किया है. लेकिन उससे भी गंभीर बात यह है कि उन्होंने आयोग के गुजरात के लिए तारीखों का ऐलान हिमाचल प्रदेश के चुनाव के साथ नहीं करने के फैसले को इस तर्क के साथ उचित बताया है कि 2012 में गुजरात के लिए चुनाव के दौरान कांग्रेस की मदद की थी. तब केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार थी. मुख्यमंत्री विजय रुपानी ने कांग्रेस के आरोपों का जवाब देने के बजाय संवैधानिक संस्था निर्वाचन आयोग को ही कटघरे में खड़ा कर दिया.

राजनीतिक पार्टियों के बीच आपस की प्रतिद्वंद्विता में संवैधानिक संस्थाओं व संस्थाओं की स्वायत्तता की भावना को नष्ट करना यह संसदीय लोकतंत्र के ढांचे के लिए गंभीर चुनौती पेश करती है. कांग्रेस पर भी ये आरोप लगता रहा है कि उसकी शैली संस्थाओं की स्वायत्तता को चोट पहुंचाने वाली है. लेकिन कांग्रेस पर जब भी ये आरोप लगे हैं तो उसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों व परिपाटी से उसके वैसे फैसलों की तुलना की जाती थी, जैसे कांग्रेस पर अध्यादेशों के जरिये सरकार चलाने का आरोप लगता रहा. भाजपा की राजनीतिक शैली लोकतांत्रिक मूल्यों व परिपाटी का हवाला देने की नहीं है. कांग्रेस के शासन के साथ तुलना की शैली उसके राजनीतिक और राजकाज का मुख्य हथियार है.

आमतौर पर हम ये देख सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी व उसकी सरकारें जब भी लोकतांत्रिक मूल्यों व परिपाटी के विपरीत फैसले करती है तो वह अपने फैसलों को कांग्रेस के शासन से तुलना कर जायज ठहराने की कोशिश करती है. महंगाई बढ़ रही है, जब ये आरोप लगता है तो भाजपा के प्रवक्ता और सरकार के मंत्री कांग्रेस के जमाने में महंगाई के आंकड़े लेकर लोगों के सामने आ जाते हैं. सांप्रदायिक दंगे होते हैं तो कांग्रेस के जमाने से सांप्रदायिक दंगों की तुलना की जाती है. गाय के नाम पर हत्या की घटनाएं हाल में बढ़ीं तो अमित शाह ने ये आंकड़े पेश किए कि भीड़ के नाम पर हत्याएं पहले की तुलना में कितनी कम हुई है.

राजनीतिक प्रतिसपर्धा में एक-दूसरे की राजनीतिक शैली और राजकाज की उपलब्धियों से तुलना एक कारगर शैली होती है. लेकिन उसकी दिशा सकारात्मक हो तभी वह लोकतंत्र को मजबूत करती है. लेकिन भाजपा की तुलना करने की राजनीतिक शैली के लिए उसके मुख्य वैचारिक आधार की जरूर शिनाख्त की जानी चाहिए. लोकतंत्र के लिए कांग्रेस या किसी भी पार्टी का रहना नहीं रहना गौण है, लेकिन यह उसकी प्राथमिक शर्त है कि संसदीय चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार संस्था और उस पर लोगों का भरोसा हो. भारतीय जनता पार्टी के भीतर राजनीतिक आक्रामकता लोकतंत्र के मूल्यों के विपरीत है.

 

 

अनिल चमड़िया


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