दीपावली आत्मालोक का महापर्व

Last Updated 19 Oct 2017 01:27:20 AM IST

हमारे यहां सुख हो या दुख-दोनों अवस्थाओं में प्रकाश करने की पुरातन परंपरा रही है. वैदिक काल में यह प्रकाश अग्निरूप में था, बाद में मंदिर के आरती-दीप के रूप में प्रतिष्ठित हो गया.


दीपावली आत्मालोक का महापर्व (फाइल फोटो)

वैदिक काल से वर्तमान तक दीपकों के दिव्य आलोक में हम इस उत्सव का अनुष्ठान करते आए हैं. दीपावली हमारे आत्म उजास की थाती है. होली महोत्सव है और दशहरा महानुष्ठान, जबकि एकमात्र दीपावली ही सही संपूर्ण अथरे में महापर्व है. यह पर्व मां महालक्ष्मी के आह्वान के साथ अज्ञान और अंधकार के पराजय का भी पर्व है. इस दिन दीपों का प्रकाश कर हम दीप प्रज्ज्वलन की वैदिक परंपरा को गतिमान बनाते हैं. महाकवि अघोष ने सौदरानंद महाकव्य में मोक्ष की उपमा दीपक की निर्वाण दशा से की है.

पुराण ग्रंथों में दीपावली का सम्यक्  विवेचन मिलता है. पद्म पुराण में लौकिक मान्यातओं, वैभव एवं प्रदर्शन से पृथक इस पर्व को शालीन, सुसंस्कारिक एवं सुसंस्कृत आवरण पहना कर धार्मिकता एवं सात्विकता की ज्योति से मंडित किया गया है. पौराणिक कथानक के अनुसार वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने जब दैत्यराज बलि से संपूर्ण धरती लेकर उसे पाताल लोक जाने को विवश दिया तो भक्त बलि ने उनसे निवेदन किया कि भगवन! धरती लोक के कल्याण के लिए मेरी आपके यह विनती है कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या के तीन दिनों तक जो प्राणी मृत्यु के देवता यमराज के नाम से दीपदान करे; उसे यम की यातना कभी न मिले और उसका घर श्री-संपदा-सर्वकामना महालक्ष्मी की दया-दृष्टि से सदैव आपूरित रहे.

कहा जाता है तभी से दीपोत्सव की परम्परा शुरू हो गई. कालान्तर में इस पर्व से नरकासुर वध, 14 साल के वनवास और रावण वध के उपरांत श्रीराम की अयोध्या वापसी का प्रसंग भी जुड़ गया. कहा जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यमराज  ने जिज्ञासु नचिकेता को ज्ञान की अंतिम वल्लि का उपदेश दिया था. पतिव्रता सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश से पति को मुक्त कराया था. जैन तीर्थकर भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था और देवों ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी. ज्योतिपर्व के साथ जुड़े पावन प्रसंगों की एक सुदीर्घ श्रंखला है, जो अज्ञान के अंधकार से लड़ने की हमारी उत्कट अभिलाषा और प्रबल जिजीविषा की परिचायक रही है. इससे इतर देशी साहित्य में दीपावली का लौकिक परिदृश्य प्रकट होता है.



गृह्य सूत्रों के अनुसार चंद्र संवत्सर नववर्ष के प्रारंभ होने के कारण सफाई आदि की जाती थी. ‘बुद्धघोष’ का राजगृह सजता था और ‘धम्मपद अल्प कथा’ के अनुसार इस अवसर पर ‘कौमुदी महोत्सव’ का आयोजन रात्रि भर चलता था. पांच दिवसीय इस उत्सव का पहला पर्व त्रयोदशी यानी को ‘धनतेरस’ पड़ता है जो कल था. सागर मंथन के दौरान इसी दिन अमृत घट लेकर आयुर्वेद के जनक आचार्य धन्वंतरि प्रकट हुए थे. स्कंदपुराण के अनुसार त्रयोदशी की संध्या में यमदीप दान के उपरांत मां लक्ष्मी व कुबेर की पूजा के साथ आचार्य धन्वंतरि का पूजन-अनुष्ठान किया जाता है. वैद्यगण इस दिन उनसे प्रार्थना करते हैं ताकि उनकी औषधियां आरोग्य प्रदायक हो सकें. इसके अगले दिन नरक-चतुर्दशी को पितरों को दीपदान दिया जाता है.

मान्यता है कि श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर का वध किया था. तीसरे दिन महानिशा यानी अमावस्या की रात्रि में दीपोत्सव मनाया जाता है, ‘धर्मसिंधु’ के अनुसार इसी दिन मनुष्य उल्काओं से अपने पितरों की परमगति के लिए प्रार्थना करते हैं. दीपावली के बाद प्रतिपदा आती है. यह प्रारंभ में नवान्न-पूजा का पर्व था, जो बाद में अन्नकूट-पूजा में परिवर्तित हो गया. दक्षिण भारत में बलि-पूजा भी प्रतिपदा को ही होती है. तत्पश्चात कार्तिक शुक्ल को भाईदूज के दिन बहनें भाई को मंगल तिलक कर उनके कल्याण और दीर्घायु की प्रार्थना करती हैं.

अनेकानेक प्रेरक प्रसंगों से जुड़ा दीपावली का महापर्व श्रेष्ठ जीवनमूल्यों एवं आदर्शों के प्रति संकल्पित होने का शुभ अवसर है. जिस तरह सद्बुद्धि के अभाव में समृद्धि हितकारी नहीं हो सकती, उसी तरह विपुल बुद्धि भी धनाभाव के क्षणों मे बेकार बन जाती है. अत: इस दीपपर्व के आलोक में हम सद्बुद्धि व समृद्धि की प्रतिनिधि देवशक्तियों की सामूहिक उपासना कर उनसे ज्ञान, प्रकाश, विभूति एवं समृद्धि के अनुदान वरदान मांगते हैं. सचमुच, दीपावली अज्ञान के अमावसी अंधियारे में आत्मज्ञान के दिपदिपाते दीयों का आलोक पर्व है.

 

 

पूनम नेगी


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