मॉनसून : बारिश का अतिवाद
कहने को तो मॉनसून की सामान्य समयावधि (जून से सितम्बर) बीत चुकी है. लेकिन देश के कुछ हिस्सों में ऐसी भीषण बारिश हो रही है, जिसने सौ सालों के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं.
मॉनसून : बारिश का अतिवाद |
कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि में इस साल पहले तो दक्षिण-पश्चिम मॉनसून की अतिसक्रियता देखने को मिली और अब दक्षिण-पूर्व मॉनसून (यानी लौटते मॉनसून) में भारी बारिश का अनुमान मौसम विभाग लगा रहा है.
हालांकि हाल के कुछ वर्षो में गुजरात, जम्मू-कश्मीर, उत्तरांचल (केदारनाथ), तमिलनाडु (चेन्नई) आदि जगहों पर अतिवृष्टि के इतने किस्से हो चुके हैं कि भारी बारिश कोई नई बात नहीं लगती. लेकिन अब खास यह है कि बारिश शहरों को ज्यादा तकलीफ दे रही है. शहरी इलाकों की बात है तो याद करें 12 साल पहले 26 जुलाई, 2005 को मुंबई में हुई बारिश को. एक झटके में कई दिनों के लिए ठहरा देने वाली बारिश ने रेल, सड़क यातायात से लेकर हर काम में ऐसी बाधा डाली थी कि लोगों को जल पल्रय जैसा अहसास होने लगा था. लोग जहां के तहां फंसे रह गए थे. थोड़ा पीछे जाएं तो अतिशय बारिश के ऐसे कई किस्से देश के अलग-अलग हिस्सों की किस्मत में बदे दिखते हैं.
इस दौरान बेमौसम बारिश ने शहरों से लेकर गांव-देहात में क्या कुछ नहीं कर डाला. बीते वर्षो में इससे हुए नुकसान ने सरकारों के पसीने छुड़ा दिए. असल में, मौसम ने पिछले कुछ सालों से हमें चौंकाने का सिलसिला बना लिया है. बारिश का बदलता चक्र अब अलग तरह की परेशानियां ला रहा है. इस साल दक्षिण और मध्य भारत में जिस तरह की बारिश हो रही है, उसके पीछे अरब सागर के गर्म होते पानी को जिम्मेदार माना जा रहा है.
हाल में एक साइंस जर्नल ‘नेचर कम्युनिकेशन’ ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है, जिसके मुताबिक, 1950 से अब तक भारत के कई इलाकों में अतिवृष्टि के मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है. ज्यादातर इलाके मध्य भारत में हैं. अध्ययन का यह भी कहना है कि जहां देश के कुछ इलाकों में भारी बारिश हो रही है, वहीं कई अन्य इलाकों में बारिश में कमी भी देखी जा रही है. मौसम के इस अतिवादी बदलते पैटर्न का कारण यह है कि हवा में नमी ज्यादा होने से बादल बहुत दूर तक नहीं जा पाते और अरब सागर के नजदीकी क्षेत्रों में बरस जाते हैं. अरब सागर का पानी गर्माने का कारण इसमें कार्बन डाईऑक्साइड की ज्यादा मात्रा का घुलना है, जो मानवीय गतिविधियों की देन है. अरब सागर का गर्माता पानी तो असल में पूरे मॉनसून के पैटर्न पर असर डालने लगा है, जो ज्यादा चिंता की बात है.
भारी बारिश की घटनाओं से एक बात तो साफ है कि मौसम की बदलती चाल हमें जो संदेश दे रही है, वह काफी गंभीर है. यों तो मौसम विभाग मॉनसून, सूखे या सर्दी-गर्मी के इन संकेतों को पकड़ कर देश व जनता को सतर्क करता रहा है, लेकिन मौसम की अतिवादी करवटों से बचाने वाले इंतजामों की कमियों के कारण मौसमी मुसीबतें हम पर कहर बनकर टूटने लगी हैं. सिर्फ यह जरूरी नहीं रह गया है कि मौसम विभाग हमें बताए कि तापमान कितने डिग्री के बीच रहेगा या आसमान में बादल रहेंगे या नहीं, बल्कि इस बारे में भी उसे सचेत करना होगा कि कौन-कौन सी वजहें हमारे सागरों का तापमान बढ़ा सकती हैं, और हमें किन बातों से बचना होगा ताकि मॉनसून की सामान्य चाल बरकरार रहे. जिस तरह बदलते मौसमी पैटर्न के ये वाकये तेजी से घटित हो रहे हैं, उनके मद्देनजर ध्यान रखना होगा कि देश की खेती-बाड़ी, रहन-सहन, उद्योग-धंधे काफी हद तक मौसम पर ही निर्भर करते हैं.
इसलिए मौसम की बड़ी तब्दीलियों को दर्ज करने और उनसे बचाव के उपायों के चिंतन की जिम्मेदारी सिर्फ मौसम विभाग पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए बल्कि इसमें इसरो जैसी संस्थाओं के वैज्ञानिकों को भी अपना योगदान देना चाहिए. ज्यादा जरूरी है कि मौसम पर असर डालने वाली प्रमुख घटना जलवायु परिवर्तन के बारे में सचेत हुआ जाए. विचार करने की जरूरत है कि उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, मध्य प्रदेश से लेकर गुजरात-महाराष्ट्र तक को प्रभावित करने वाले मौसमी बदलाव कहीं जलवायु परिवर्तन नामक समस्या ही देन तो नहीं हैं. दुनिया के सामने भारत को भी यह सवाल पुरजोर ढंग से उठाना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन के कारण जो समस्याएं वह झेल रहा है, वे सिर्फ उसकी अपनी समस्या नहीं हैं. लिहाजा, इनसे निपटने के साझा उपायों पर काम होना चाहिए अन्यथा प्रकृति की लगातार मार विकास के सारे इंतजामों को बौना साबित करती रहेगी.
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